हिन्दू धर्म के ज्ञान का संक्षिप्त परिचय

कम से कम ज्ञात रूप से 90,000 वर्षों से हिन्दू सनातन धर्म का अस्तित्व है। 35,000 वर्ष पहले तक की सभ्यता के पूख्‍ता सबूत पाए गए हैं। 14,000 वर्ष पहले हिन्दू युग की शुरुआत हुई थी। अब तक वराह कल्प के स्वायम्भुव मनु, स्वरोचिष मनु, उत्तम मनु, तामस मनु, रैवत मनु, चाक्षुष मनु तथा वैवस्वत मनु के मन्वंतर बीत चुके हैं और अब वैवस्वत तथा सावर्णि मनु की अंतरदशा चल रही है। मथुरा के विद्वान ऐसा अनुमान लगाते हैं कि सावर्णि मनु का आविर्भाव विक्रमी संवत् प्रारंभ होने से 5630 वर्ष पूर्व हुआ था। माना जाता है कि वैवस्वत मनु का आविर्भाव 6673 ईसा पूर्व अर्थात 8689 वर्ष पहले हुआ था।
6,000 ईसा पूर्व में भारत में बहुत ही विद्वान खगोलशास्त्री विद्यमान थे जिन्होंने वेदों के ज्ञान पर आधारित खगोल विज्ञान का विकास किया और बताया कि धरती सूर्य का चक्कर लगाती और चन्द्रमा धरती का चक्कर लगाता है और धरती में गुरुत्वाकर्षण की शक्ति है। आज इस बात को विज्ञान भी मानता है, गैलीलियो या न्यूटन ने कोई नई बात नहीं बताई थी।
 
रक्तचाप की खोज, प्लास्टिक सर्जरी, विमान का आविष्कार, बिजली का आविष्कार, गणितीय विद्या, शून्य का आविष्कार, भाषा और व्याकरण का आविष्कार आदि अनेक ऐसे आविष्कार हैं जिनके बारे में तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता था।
 
लोग अल्बर्ट आइंस्टीन के उस वाक्य को भूल जाते हैं जिसमें उन्होंने कहा था- 'हम भारतीयों के बेहद आभारी हैं जिन्होंने हमें गिनना सिखाया जिसके बिना कोई भी वैज्ञानिक खोज करना मुमकिन नहीं था।'
 
यदि हम शरीर के तंत्रिका तंत्र की बात करें तो इसका उल्लेख पहले से ही वेद, आयुर्वेद और योग की किताबों में मौजूद है। यह जानकारी उसी रूप में मौजूद है जिस रूप में विज्ञान आज इसे प्रकट करता है। विज्ञान की यह जानकारी वेदों में दी गई शरीर के रचना-तंत्र की जानकारी से इतनी मिलती-जुलती है कि इससे सभी हैरान हैं कि 6,000 वर्ष पूर्व यह कैसे पता चला?
 
परा और अपरा विद्या : 
हिन्दू धर्म में ज्ञान को 2 श्रेणियों में रखा गया है। पहला परा विद्या और दूसरा अपरा विद्या। सभी तरह का वैज्ञानिक ज्ञान परा विद्या के अधीन है और वहीं आध्यात्मिक ज्ञान अर्थात परमात्मा और आत्मा का ज्ञान अपरा विद्या के अंतर्गत आता है। वैज्ञानिक ज्ञान ही आध्यात्मिक ज्ञान की ओर ले जाता है। 

हिंदू दर्शन के मुताबिक ब्रह्मांड की रचना करने वाला कोई व्यक्ति या एक कहानी नहीं है। इसके अनुसार जन्म और मृत्यु के चक्र में सभी गुंथे हुए हैं। चाहे आत्मा हो, शरीर, दृश्य या अदृश्य सबका इस चक्र में महत्व है।
 
हिन्दू धर्म के 5 मुख्य आधार हैं- ईश्वर, जीव, काल, प्रकृति और कर्म। इनमें पहले 5 अनंत हैं जबकि कर्म अस्थायी। काल का अर्थ समय। समय ईश्वर का अव्यक्तिगत और अनंत पक्ष है। इसका न आदि है और न अंत। हिन्दू धर्म के ब्रह्मांड की थ्‍योरी बिग बैंग द्वारा दी गई थ्योरी से 104 गुना ज्यादा है। वर्तमान सृष्टि अनगिनत सृष्टियों में से एक है। इसमें धरती पर 84 लाख प्रकार के करोड़ों जीव मौजूद हैं। ईश्‍वर और जीव में यह अंतर है कि ईश्‍वर अजन्मा और अनंत है जबकि जीव उसका सूक्ष्मतम रूप है। जीव शरीर धारण करता रहता है, लेकिन ईश्‍वर अजन्मा और अप्रकट है। ईश्‍वर को परमात्मा एवं जीव को एक आत्मा कहा जाता है। ईश्वर ने कभी न तो मनुष्य रूप में जन्म लिया और न ही किसी के शरीर पर अवतरित होकर कोई संदेश दिया। ऋषियों को जो ज्ञान मिला वह गहन ध्यान के क्षणों में मिला और उन्होंने जब उसे लोगों को सुनाया तो उसे श्रुति कहा गया। यह ज्ञान स्वयं ईश्वर ने दिया था। श्रुति के ज्ञान को जब लोगों ने सुनकर अपनी पीढ़ियों को विस्तृत रूप में अपने अपने तरीके से बताया तो उसे स्मृति ज्ञान कहा गया। इस तरह दो ग्रंथ बने श्रुति और स्मृति। श्रुति ही धर्मग्रंथ है।
 
प्रकृति में पदार्थ से अलग आत्मा एक सर्वोत्तम कण या परम अणु है जिसमें चेतना और स्वेच्छा है, जो पदार्थ से पूर्णत: विपरीत है लेकिन जो पदार्थ को संचालित करती रहती है। यही चेतना ब्रह्मांड की प्रेरक है और हर जीवित वस्तु में आत्मा रूप में विद्यमान है। हिन्दू धर्म के अनुसार पेड़-पौधों, कीट-पतंगों, गतिशील तत्वों में आत्मा अर्थात चेतना विद्यमान है। इस आत्मा का मूल स्वरूप परमात्मा के समान ही है, जैसे सत, चित्त और आनंद।
 
सर्वेश्वरवाद या अवतारवाद वेद नहीं पुराणों के अंग है। यह मूल सनातन धर्म की विचारधारा से अलग माने जाते हैं। दरअसल, ये सभी पहलू ईश्वर या परम तत्व के मूलभूत अंग माने जा सकते हैं। वेदों के अनुसार तो ईश्वर एक ही है।
 
परमात्मा या ईश्‍वर के मुख्‍यत: 3 पहलू हैं। पहला अव्यक्तिगत अर्थात ब्रह्म ज्योति। यह कारण और प्रभाव से ऊपर है। दूसरा पक्ष है परमात्मा, जो सभी जीवों की प्रेरणा है। परमात्मा या परमेश्वर का यह स्वरूप सभी प्राणियों की उत्पत्ति, पालन और विलय के लिए जिम्मेदार है। हर जीवित के पास स्वेच्छा अर्थात स्वतंत्र इच्छा है। परमात्मा आत्मा की व्यक्तिगत इच्छाओं और उनके क्रिया-कलापों के अनुसार ही उनका भविष्य निर्मित करते हैं अर्थात आप जैसा सोचते हैं, वैसा ही बनते हैं और जैसा करते हैं वैसा ही पाते हैं। ईश्‍वर का तीसरा पक्ष है भगवान।
 
इसीलिए वेद कहते हैं कि अपने अंतरतम में झांकों और उसे पवित्र करो। यदि हम अपने अंतरमन की सुनने लगेंगे तो इसका अहसास होगा कि हमें वहां से कैसे संदेश मिल रहा है। हमारा अंतरतम हमें किस मार्ग पर जाने के लिए प्रेरित करता है। कई बार हमें अपने जीवन के समाधान इसी अंतरमन में मिलते हैं। जटिल से जटिल समस्या का समाधान हमारे भीतर ही मौजूद होता है। जो लोग धर्म के मार्ग से भटके हुए हैं उन्हें यह मार्गदर्शन नहीं मिलता है। ऐसे लोगों के लिए तीसरा पक्ष भगवान हैं। भगवान अर्थात ईश्वर के व्यक्तित्व का प्रतिरूप और संदेशवाहक। हम अपने दिन और प्रतिदिन की क्रियाओं में भगवान के मार्गदर्शन को महसूस कर सकते हैं। 
 
ईश्वर की शक्तियां हैं:- संवित शक्ति यानी संज्ञानात्मक शक्ति, संधिनी (आंतरिक) शक्ति, ईश्वर की शक्तियां, हलादिनी शक्ति यानी बाहरी शक्ति।
 
संधिनी शक्ति से चेतन प्राणियों की रचना हुई। हलादिनी शक्ति से ब्रह्मांड की। इस संसार या भौतिक प्रकृति को 3 गुणों में बांटा गया है- पहला ईश्वरीयता अर्थात सतो, उत्कंठा यानी रजो और तीसरा अनभिज्ञता अर्तात तमो। जीवन की इच्छाओं की पूर्ति के लिए भौतिक प्रकृति ने ईश्वर की इच्छा से इन 3 गुणों को मिलाकर कई रूप धारण किए हैं। सभी चेतन आत्माएं अर्थात मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे आदि सभी अलग अलग-तरह से इस त्रिगुण भौतिक प्रकृति की रचना से प्रभावित होते हैं। सभी प्राणी इस भौतिक प्रकृति में अलग-अलग क्रियाओं में रत हैं।
 
अनंत काल से प्राणी अपने कर्मों (सोचना, खाना, देखना, सुनना, बोलना, कुछ करना आदि) के अनुसार सुख और दुख भोगते आ रहे हैं। प्राणी चाहे अपने द्वारा किए हुए अगले-पिछले सभी कर्मों को भुला दे या भूल जाएं लेकिन कर्मों के परिणाम उसे भुगतना ही होते हैं। उसकी दशा से ज्ञात होता है कि उसने किस तरह के कर्म किए होंगे। कर्म-चक्र सदैव प्राणियों की इच्छाओं, आकांक्षाओं और कल्पनाओं से संचालित होता रहता है। 
 
सभी जीवों में चेतना का क्रमिक विकास हुआ है। इस सृष्टि में कुल 84 लाख प्रकार के जीव हैं। ये प्रकार घटते और बढ़ते रहते हैं। चेतना के क्रम-विकास के तहत जीव मनुष्य योनि में लाखों योनियों में जन्म लेने के बाद जन्म लेता है। इसीलिए कहा जाता है कि मानव योनि दुर्लभ है। मानव योनि में चेतनता लगभग पूर्णत: विकसित होती है और उसे अपने आत्मा होने का आभास होता है। चेतनता का अर्थ है- होश, जागरण, बोध आदि। मनुष्य ही अपने अस्तित्व के बारे में जानने का जिज्ञासु, पिपासु और मुमुक्षु होता है।
 
जीव अर्थात जैसे कृमि, जंतु और पशुओं के पास लघु चेतना होती है। वे पेड़ों की भांति आवृत्त नहीं होते। पेड़ और पौधों में भी चेतना होती है लेकिन वे सुप्त अवस्था में रहते हैं। मनुष्य की चेतना उदयमान होती है। मनुष्य अपनी चेतना का विस्तार करने में सक्षम है। हिन्दू धर्म में मानव में जिज्ञासा एक महत्वपूर्ण तत्व है। यह मानव का मौलिक कर्तव्य भी है। जिज्ञासा ज्ञान के विस्तार का एक महत्वपूर्ण अंग है। जिज्ञासा ही ज्ञान और विज्ञान का विस्तार होता है।
 
जिज्ञासा हर उस रहस्य को जानने के लिए होनी चाहिए जिससे आत्मा या स्वयं के अस्तित्व के होने का रहस्य ज्ञात हो। सत्य का ज्ञान हो। यही जिज्ञासा जब तक मुमुक्षा में नहीं बदल जाती तब तक वह जिज्ञासा ही रहती है। 
 
ज्ञान का अर्जन 3 तरीकों से किया जा सकता है- प्रत्यक्ष ज्ञान, अनुमान ज्ञान और तर्क के द्वारा। इन्द्रियों अर्थात नाक, कान, आंख, स्पर्श, स्वाद आदि द्वारा अर्जित ज्ञान ही प्रत्यक्ष ज्ञान है। अनुमान का अर्थ है किसी अनभिज्ञ वस्तु और किसी दूसरी कल्पनीय वस्तु की आपस में संबंध की तुलना कर उसकी प्रकृति का आकलन करना, जैसे दूर उठ रहे धुएं को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां नीचे कहीं आग जल रही होगी। तर्क से अभिप्राय है कि वह प्रमाण जो प्रत्यक्ष और प्राकृतिक घटना का प्रतिनिधित्व कर सके। ज्ञान अर्जन करने के ये तीनों ही तरीके सत्य को जानने में सक्षम नहीं हैं। ये किसी घटना या सत्य का पूर्ण स्पष्टीकरण नहीं दे सकते हैं।
 
प्रत्यक्ष की 4 सीमाएं हैं। पहला है भ्रम। इन्द्रियां और मस्तिष्क कई परिस्थितियों में कार्य नहीं कर पाते हैं और भ्रमित हो जाते हैं, जैसे कि मृगतृष्णा। दूसरा है प्रमाद। प्रमाद का अर्थ बेहोशी या अंधापन। प्रमाद में आकर इन्द्रियां कई बार सही निर्णय नहीं कर पातीं और गलत मार्गदर्शन कर गलतियों का कारण बनती है। तीसरा है कर्णपत्वा। हमारी इन्द्रियों की शक्तियां सीमित हैं और वे पूर्ण सत्य का केवल कुछ भाग ही समझ पाती हैं, जैसे कि हम पराबैंगनी और विद्युतीय चुबकत्व को नहीं देख पाते हैं, ठीक वैसे ही कई प्रकार की ध्वनि तरंगों को भी हम सुन नहीं पाते हैं। चौथा है विप्रलिप्सा। अहम या अहंकार में पड़कर इन्द्रियां दूषित हो जाती हैं और व्यक्ति बेईमान बन जाता है। जारी...

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