जातिवाद प्रत्येक धर्म, समाज और देश में है। हर धर्म का व्यक्ति अपने ही धर्म के लोगों को ऊंचा या नीचा मानता है। क्यों? यही जानना जरूरी है। लोगों की टिप्पणियां, बहस या गुस्सा उनकी अधूरी जानकारी पर आधारित होता है। कुछ लोग जातिवाद की राजनीति करना चाहते हैं इसलिए वह जातिवाद और छुआछूत को और बढ़ावा देकर समाज में दीवार खड़ी करते हैं और ऐसा भारत में ही नहीं दूसरे देशों में भी होता रहा है। इतिहास में या कथाओं में वही लिखा जाता है जो 'विजयी' लिखवाता है। हम हारी हुई कौम हैं। अपने ही लोगों से हारी हुई कौम। हमें किसी बाहर के व्यक्ति ने नहीं अपने ही लोगों ने बाहरी लोगों के साथ मिलकर हराया है। क्यों?
# गुलामी
दलितों को 'दलित' नाम हिन्दू धर्म ने नहीं दिया, इससे पहले 'हरिजन' नाम भी हिन्दू धर्म के किसी शास्त्र में नहीं लिखा। इसी तरह इससे पूर्व के जो भी नाम थे वह हिन्दू धर्म ने नहीं दिए। आज जो नाम दिए गए हैं वह पिछले 70 वर्ष की राजनीति की उपज है और इससे पहले जो नाम दिए गए थे वह पिछले 800 साल की गुलामी की उपज है। गुलामी के शासनकाल में हिंदुओं ने अपना मूल धर्म और संस्कृति खो दी है। खो दिए हैं देश के कई हिस्से। यह जो भ्रांतियां फैली है और यह जो समाज में कुरीरियों का जन्म हो चला है इसमें गुलाम जिंदगी की त्रासदी और हिन्दुओं के साथ किए गए षड़यंत्र को भुलाया नहीं जा सकता। जिन लोगों के अधिन भारतीय थे उन लोगों ने भारतीयों में फूट डालने के हर संभव प्रयास किए और इसमें वह सफल भी हुए।
गुलामी के शासनकाल के बाद बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं जो आज दलित हैं, मुसलमान है, ईसाई हैं या अब वह बौद्ध हैं। बहुत से ऐसे दलित हैं जो आज ब्राह्मण समाज का हिस्सा हैं। यहां ऊंची जाति के लोगों को सवर्ण कहा जाने लगा हैं। यह सवर्ण नाम भी हिन्दू धर्म ने नहीं दिया। दरअसल, नाम देकर हिन्दू समाज को विभाजित करने की यह राजनीतिक कौन कर रहा है? निश्चित ही इन 70 वर्षों में वामपंथ की विचारधारा ने देश के सामाजिक तानेबाने को तोड़कर रख दिया है। कैसे?
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हिन्दू धर्मग्रंथों के चुनिन्दा उद्धरण देकर हिन्दुओं में व्याप्त तथाकथित जातीय भेदभाव को प्राचीन एवं शास्त्र सम्मत सिद्ध करने का वामपंथी एवं प्रचारक मजहबों के कथित विद्वानों द्वारा निरंतर प्रयास होता रहा है। कभी एकलव्य के अंगूठे की बात हो अथवा किसी शम्बूक की दंतकथा हो, श्रवण कुमार की कथा हो या कर्ण की व्यथा हो, चुन चुन कर ऐसे संदर्भ निकाले जाते हैं जिनके माध्यम से हिन्दू समाज की एकता एवं समरसता पर प्रहार किया सके और बड़ी चालाकी से उन कथाओं एवं प्रसंगों को नकार दिया जाता है जो कि हिन्दू विभाजक एजेंडे के विरुद्ध होते हैं। दरअसल, कथा के उस भाग को छुपा कर वहीं हिस्सा बताया या प्रचालित किया जाता है जिससे की दलित समाज में सवर्णों के प्रति नफरत का विस्तार रहो। फिर इसी को आधार बनाकर वीडियो बनाना, लेख लिखना, सेमिनाकर करके भड़काऊ भाषण देना और अंतत: हिंसा भड़काकर सामाजिक खाई को और बढ़ाना। ऐसा कई तरीके हैं जिससे समाज में विभाजन किया जा सकता हो। इसका मूल मकसद है धर्मान्तरण करना।
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राजनीति और धार्मिक षड़यंत्र :
वर्तमान में दुनियाभर में राजनीतिक और धार्मिक समीकरण बदले हैं। इस बदले हुए माहौल में पाकिस्तान, चीन और अन्य वामपंथी समर्थक मुल्क भारत को तोड़ने की साजिश में लगे हैं। इसी साजिश के तहत ही कुछ राजनीतिक और धार्मिक संगठनों ने हिन्दू विरोधी आंदोलन को नेतृत्व प्रदान कर रखा है। भारत में दीर्घकाल से ही सांप्रदायिक और जातीवाद एक राजनीतिक मुद्दा रहा है लेकिन आजादी के बाद इसे और भी ज्यादा हवा दी गई। क्या हम जानते हैं कि इसका मकसद क्या है? क्या सचमुच हिन्दुओं में जातीवाद एक समस्य है? आओं जानते हैं कि सचाई क्या है।
हिन्दू समाज के दलितों के नाम पर राजनीति करके समाज में फूट डालने का प्रचलन सदियों से रहा है। दलित ही नहीं बल्कि क्षत्रियों के विभिन्न समूहों को अब क्षत्रिय समाज से अलग करके क्षत्रियों की शक्ति को भी कम कर दिया गया है। मसलन, पटेल, गुर्जर, जाट आदि। बहुत से ऐसे समाज हैं जिन्हें हिन्दुओं से अलग करके अब हिन्दू शक्ति को कमजोर किए जाने की साजिश भी चल पड़ी है। दक्षिण भारत में जहां लिंगायत संप्रदाय को हिन्दुओं से अलग करने के तर्क द्वारा कुचक्र रचा जा रहा है वहीं उत्तर भारत में विश्नोई समाज को हिन्दू समाज से अलग घोषित किए जाने की साजिश चल रही है।
वर्तमान में जबसे नरेंद्र मोदी सत्ता में आए हैं तभी से वे लोग ज्यादा सक्रिय हो गए हैं जो हिंदू धर्म के विरोधी हैं। हालांकि नरेंद्र मोदी और आरएसएस का विरोधी होना समझ में आता है लेकिन हिन्दू और भारत का विरोधी होना यह समझ से परे है। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ चाहे कुछ भी हो लेकिन इस देश में कभी भी धर्मनिरपेक्ष राजनीति नहीं हुई है। धर्मनिरपेक्ष दलों ने सबसे ज्यादा जातिवादी राजनीतिक की है। इसके कई उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
भारत के इस दौर में नया तबका पैदा हो गया है जिसको भारतीय धर्म और इतिहास की जरा भी जानकारी नहीं है। जिसमें 20 से 35 साल के युवा, अनपढ़ और गरीब ज्यादा हैं। इतिहास और धर्म की जानकारी से इन अनभिज्ञ लोगों को षड़यंत्रों के संबंध में बताना थोड़ा मुश्किल ही होगा क्योंकि दलितों की आड़ में जाति और धर्म की राजनीति करने वाले नेता बड़ी-बड़ी बातें करते हैं तो इन अनभिज्ञ लोगों को अच्छा लगता है। वे सभी इनके बहकावे में आ जाते हैं। भड़काकर ही धर्मांतरण या राजनीतिक मकसद को हल किया जा सकता है।
वर्तमान में नवबौद्धों द्वारा बुद्ध के शांति संदेश के बजाय नफरत को ज्यादा प्रचारित किया जा रहा है। इसमें उनका मकसद है हिन्दू दलितों को बौद्ध बनाना। नवबौद्धों को भड़काने में वामपंथी और कट्टर मुस्लिम संगठनों का हाथ भी निश्चित तौर पर देखा जा सकता है। साम्यवाद, समानता और धर्मनिरपेक्षता की बातों को प्रचारित करके उसकी आड़ में जो किया जा रहा है वह किसी से छुपा नहीं है।
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देवी देवता और ऋषि मुनि कौन थे?
क्या हम शिव को ब्राह्मण कहें? विष्णु कौन से समाज से थे और ब्रह्मा की कौन सी जाति थी? क्या हम भैरव, दसमहाविद्या और कालीका माता को दलित समाज का मानकर पूजना छोड़ दें?
आज के शब्दों का इस्तेमाल करें तो ये लोग दलित थे- महर्षि वेद व्यास, ऋषि कवास इलूसू, ऋषि वत्स, ऋषि काकसिवत, महर्षि महिदास अत्रैय, महर्षि वाल्मीकि आदि ऐसे महान वेदज्ञ हुए हैं जिन्हें आज की जातिवादी व्यवस्था दलित वर्ग का मान सकती है। ऐसे हजारों नाम गिनाएं जा सकते हैं जो सभी आज के दृष्टिकोण से दलित थे। वेद को रचने वाले, मनु स्मृति को लिखने वाले और पुराणों को गढ़ने वाले ब्राह्मण नहीं थे।
क्या धर्मग्रंथों में जातिवाद है?
अक्सर जातिवाद, छुआछूत और सवर्ण, दलित वर्ग के मुद्दे को लेकर धर्मशास्त्रों को भी दोषी ठहराया जाता है। इस मुद्दे पर धर्म शस्त्रों में क्या लिखा है यह जानना बहुत जरूरी है। यह भी जानना जरूरी है कि हिन्दू धर्म के शास्त्र कौन से हैं। क्योंकि कुछ लोग उन शास्त्रों का हवाला देते हैं जो असल में हिन्दू शास्त्र नहीं है। हिन्दुओं का धर्मग्रंथ मात्र वेद है, वेदों का सार उपनिषद है जिसे वेदांत कहते हैं और उपनिषदों का सार गीता है। इसके अलावा जिस भी ग्रंथ का नाम लिया जाता है वह हिन्दू धर्मग्रंथ नहीं है।
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मनुस्मृति, पुराण, रामायण और महाभारत यह हिन्दुओं के धर्म ग्रंथ नहीं है। इन ग्रंथों में हिन्दुओं का इतिहास दर्ज है, लेकिन कुछ लोग इन ग्रंथों में से संस्कृत के कुछ श्लोक निकालकर यह बताने का प्रयास करते हैं कि ऊंच-नीच की बातें तो इन धर्मग्रंथों में ही लिखी है। असल में यह काल और परिस्थिति के अनुसार बदलते समाज का चित्रण है। दूसरी बात कि इस बात की क्या ग्यारंटी की उक्त ग्रंथों में जानबूझकर संशोधन नहीं किया गया होगा। हमारे अंग्रेज भाई और बाद के कम्यूनिष्ट भाइयों के हाथ में ही तो था भारत के सभी तरह के साहित्य को समाज के सामने प्रस्तुत करना तब स्वाभाविक रूप से तोड़ मरोड़कर बर्बाद कर दिया।
प्राचीन काल में धर्म से संचालित होता था राज्य। हमारे धर्म ग्रंथ लिखने वाले और समाज को रचने वाले ऋषि-मुनी जब विदा हो गए तब राजा और पुरोहितों में सांठगाठ से राज्य का शासन चलने लगा। धीरे धीरे अनुयायियों की फौज ने धर्म को बदल दिया। बौद्ध काल ऐसा काल था जबकि ग्रंथों के साथ छेड़खानी की जाने लगी। फिर मुगल काल में और बाद में अंग्रेजों ने सत्यानाश कर दिया। अंतत: कहना होगा की साम्यवादी, व्यापारिक और राजनीतिक सोच ने बिगाड़ा धर्म को।
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कर्म का विभाजन:- वेद या स्मृति में श्रमिकों को चार वर्गो- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र-में विभक्त किया गया है, जो मनुष्यों की स्वाभाविक प्रकृति पर आधारित है। यह विभक्तिकरण कतई जन्म पर आधारित नहीं है। आज बहुत से ब्राह्मण व्यापार कर रहे हैं उन्हें ब्राह्मण कहना गलत हैं। ऐसे कई क्षत्रिय और दलित हैं जो आज धर्म-कर्म का कार्य करते हैं तब उन्हें कैसे क्षत्रिय या दलित मान लें? लेकिन पूर्व में हमारे देश में परंपरागत कार्य करने वालों का एक समाज विकसित होता गया, जिसने स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को निकृष्ट मानने की भूल की है तो उसमें हिन्दू धर्म का कोई दोष नहीं है। यदि आप धर्म की गलत व्याख्या कर लोगों को बेवकूफ बनाते हैं तो उसमें धर्म का दोष नहीं है।...कोई भी व्यक्ति नाई तब बना होगा जब कैची और उस्तरे का अविष्कार हुआ होगा। इसी तरह कोई मोची तभी बना होगा जबकि जुते और चम्पल का अविष्कार हुआ होगा। इससे पहले वे क्या थे?
प्राचीन काल में ब्राह्मणत्व या क्षत्रियत्व को वैसे ही अपने प्रयास से प्राप्त किया जाता था, जैसे कि आज वर्तमान में एमए, एमबीबीएस आदि की डिग्री प्राप्त करते हैं। जन्म के आधार पर एक पत्रकार के पुत्र को पत्रकार, इंजीनियर के पुत्र को इंजीनियर, डॉक्टर के पुत्र को डॉक्टर या एक आईएएस, आईपीएस अधिकारी के पुत्र को आईएएस अधिकारी नहीं कहा जा सकता है, जब तक की वह आईएएस की परीक्षा नहीं दे देता। ऐसा ही उस काल में गुरुकुल से जो जैसी भी शिक्षा लेकर निकलता था उसे उस तरह की पदवी दी जाती थी।
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इस तरह मिला जाति को बढ़ावा:- दो तरह के लोग होते हैं- अगड़े और पिछड़े। यह मामला उसी तरह है जिस तरह की दो तरह के क्षेत्र होते हैं विकसित और अविकसित। पिछड़े क्षेत्रों में ब्राह्मण भी उतना ही पिछड़ा था जितना की दलित या अन्य वर्ग, धर्म या समाज का व्यक्ति। पीछड़ों को बराबरी पर लाने के लिए संविधान में प्रारंभ में 10 वर्ष के लिए आरक्षण देने का कानून बनाया गया, लेकिन 10 वर्ष में भारत की राजनीति बदल गई। सेवा पर आधारित राजनीति पूर्णत: वोट पर आधारित राजनीति बन गई।
मध्यकाल में जबकि मुस्लिम और ईसाई धर्म को भारत में अपनी जड़े जमाना थी तो उन्होंने इस जातिवादी धारणा का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और इसे और हवा देकर समाज के नीचले तबके के लोगों को यह समझाया गया कि आपके ही लोग आपसे छुआछूत करते हैं। मध्यकाल में हिन्दू धर्म में बुराईयों का विस्तार हुआ। कुछ प्रथाएं तो इस्लाम के जोरजबर के कारण पनपी, जैसे सतिप्रथा, घर में ही पूजा घर बनाना, स्त्रीयों को घुंघट में रखना आदि।
मुगलों के बाद अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो की नीति' तो 1774 से ही चल रही थी जिसके तहत हिंदुओं में ऊंच-नीच और प्रांतवाद की भावनाओं का क्रमश: विकास किया गया अंतत: लॉर्ड इर्विन के दौर से ही भारत विभाजन के स्पष्ट बीज बोए गए। माउंटबैटन तक इस नीति का पालन किया गया। बाद में 1857 की असफल क्रांति के बाद से अंग्रेजों ने भारत को तोड़ने की प्रक्रिया के तहत हिंदू और मुसलमानों को अलग-अलग दर्जा देना प्रारंभ ही नहीं किया बल्कि दोनों की कौम के भीतर अपने ही लोगों से छुआछूत करने की भावना को भी पनपाया।
हिंदुओ को विभाजित रखने के उद्देश्य से ब्रिटिश राज में हिंदुओ को तकरीबन 2,378 जातियों में विभाजित किया गया। ग्रंथ खंगाले गए और हिंदुओं को ब्रिटिशों ने नए-नए नए उपनाप देकर उन्हों स्पष्टतौर पर जातियों में बांट दिया गया। इतना ही नहीं 1891 की जनगणना में केवल चमार की ही लगभग 1156 उपजातियों को रिकॉर्ड किया गया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज तक कितनी जातियां-उपजातियां बनाई जा चुकी होगी। इसके अलावा 'पदियां' देकर ऐसे कई लोगों को अपने पक्ष में किया जिन्होंने बाद में अंग्रेजों के लिए काम किया, उनके लिए भारतीयों के खिलाफ ही युद्ध लड़ा या षड़यंत्र रचा।
आजादी के बाद आरक्षण और पद देकर यही काम हमारे राजीतिज्ञ करते रहे। उन्होंने भी अंग्रेजों की नीति का पालन किया और आज तक हिन्दू ही नहीं मुसलमानों को भी अब हजारों जातियों में बांट दिया। बांटो और राज करो की नीति के तहत आरक्षण, फिर जातिगत जनगणना, हर तरह के फार्म में जाति का उल्लेख करना और फिर चुनावों में इसे मुद्दा बनाकर सत्ता में आना आज भी जारी है।
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'रंग' बना जाति का 'जहर'
वर्ण का अर्थ होता है रंग। रंग अर्थात गोरा, काला, गेहूंआ और लाल। रंगों का सफर कर्म से होकर आज की तथाकथित जाति पर आकर पूर्णत: विकृत हो चला है। आर्य काल में ऐसी मान्यता थी कि जो श्वेत रंग का है वह ब्राह्मण, जो लाल रंग का है वह क्षत्रिय, जो काले रंग का है वह क्षुद्र और जो मिश्रित रंग का होता था उसे वैश्य माना जाता था। यह विभाजन लोगों की पहचान और मनोविज्ञान के आधार पर किए जाते थे। इसी आधार पर कैलाश पर्वत की चारों दिशाओं में लोगों का अलग-अलग समूह फैला हुआ था। काले रंग का व्यक्ति भी आर्य होता था और श्वेत रंग का भी। विदेशों में तो सिर्फ गोरे और काले का भेद है किंतु भारत देश में चार तरह के वर्ण (रंग) माने जाते थे। जैसे चांदी, सोना, तांबा और लौहा।
पहले हम यक्ष और रक्ष थे फिर हम देव (सूर) और दैत्य (असुर) में बदल गए। फिर ब्राह्मण और श्रमण में, फिर वैष्णव और शैव में बदल गए। इस दौरान लोगों ने अपने अपने वंश चलाएं। फिर ये वंश समाज में बदल गए। धर्म ने नहीं अपने हितों की रक्षा के लिए राजाओं ने बदला समाज। जैसा कि आज के राजनीतिज्ञ कर रहे हैं।
प्राचीनकाल में जातियों के प्रकार अलग होते थे। जातियां होती थी द्रविड़, मंगोल, शक, हूण, कुशाण आदि। आर्य जाति नहीं थी बल्कि उन लोगों का समूह था जो सामुदायिक और कबीलाई संस्कृति से निकलकर सभ्य होने के प्रत्येक उपक्रम में शामिल थे और जो सिर्फ वेद पर ही कायम थे।
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रक्त की शुद्धता : प्राचीनकाल में श्वेत लोगों का समूह श्वेत लोगों में ही रोटी और बेटी का संबंध रखता था। पहले रंग, नाक-नक्क्ष और भाषा को लेकर शुद्धता बरती जाती थी। किसी समुदाय, कबीले, समाज या अन्य भाषा का व्यक्ति दूसरे कबीले की स्त्री से विवाह कर लेता था तो उसे उस समुदाय, कबीले, समाज या भाषायी लोगों के समूह से बहिष्कृत कर दिया जाता था। उसी तरह जो कोई श्वेत रंग का व्यक्ति काले रंग की लड़की से विवाह कर लेता था तो उस उक्त समूह के लोग उसे बहिष्कृत कर देते थे। कालांतर में बहिष्कृत लोगों का भी अलग समूह और समाज बनने लगा। लेकिन इस तरह के भेदभाव का संबंध धर्म से कतई नहीं माना जा सकता। यह समाजिक चलन, मान्यता और परम्पराओं का हिस्सा हैं। जैसा कि आज लोग अनोखे विवाह करने लगे हैं...गे या लेस्बियन। क्या इस तरह के विवाह को धर्म का हिस्सा माने। लोग बनाते हैं समाज और जाति और बदलते भी वही है।
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रंग बना कर्म : कालांतर में वर्ण अर्थात रंग का अर्थ बदलकर कर्म होने लगा। स्मृति काल में कार्य के आधार पर लोगों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या क्षुद्र कहा जाने लगा। वेदों का ज्ञान प्राप्त कर ज्ञान देने वाले को ब्राह्मण, क्षेत्र का प्रबंधन और रक्षा करने वाले को क्षत्रिय, राज्य की अर्थव्यवस्था व व्यापार को संचालित करने वाले को वैश्य और राज्य के अन्य कार्यो में दक्ष व्यक्ति को क्षुद्र अर्थात सेवक कहा जाने लगा। कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता अनुसार कुछ भी हो सकता था। जैसा कि आज बनता है कोई सोल्जर्स, कोई अर्थशास्त्री, कोई व्यापारी और कोई शिक्षक।
योग्यता के आधार पर इस तरह धीरे-धीरे एक ही तरह के कार्य करने वालों का समूह बनने लगा और यही समूह बाद में अपने हितों की रक्षा के लिए समाज में बदलता गया। उक्त समाज को उनके कार्य के आधार पर पुकारा जाने लगा। जैसे की कपड़े सिलने वाले को दर्जी, कपड़े धोने वाले को धोबी, बाल काटने वाले को नाई, शास्त्र पढ़ने वाले को शास्त्री आदि।
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कर्म का बना जाति : ऐसे कई समाज निर्मित होते गए जिन्होंने स्वयं को दूसरे समाज से अलग करने और दिखने के लिए नई परम्पराएं निर्मित कर ली। जैसे कि सभी ने अपने-अपने कुल देवता अलग कर लिए। अपने-अपने रीति-रिवाजों को नए सिरे से परिभाषित करने लगे, जिन पर स्थानीय संस्कृति का प्रभाव ही ज्यादा देखने को मिलता है। उक्त सभी की परंपरा और विश्वास का सनातन हिन्दू धर्म से कोई संबंध नहीं।
स्मृति के काल में कार्य का विभाजन करने हेतु वर्ण व्यवस्था को व्यवस्थित किया गया था। जो जैसा कार्य करना जानता हो, वह वैसा ही कार्य करें, जैसा की उसके गुण और स्वभाव में है तब उसे उक्त वर्ण में शामिल समझा जाए। आज इस व्यवस्था को जाति व्यवस्था या सामाजिक व्यवस्था समझा जाता है। गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार ही कर्म का निर्णय होना होता है, जिसे जाति मान लिया गया है। वर्ण का अर्थ समाज या जाति से नहीं वर्ण का अर्थ स्वभाव और रंग से माना जाता रहा है।
वर्णाश्रम किसी काल में अपने सही रूप में था, लेकिन अब इसने जाति और समाज का रूप ले लिया है, जो कि अनुचित है। प्राचीनकाल में किसी भी जाति, समूह या समाज का व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या दास बन सकता था। जैसे चार मंजिल के भवन में रहने वाले लोग ऊपर-नीचे आया-जाया करते थे। जो ऊपर रहता था वह नीचे आना चाहे तो आ जाता था और जो नीचे रहता था वह अपनी योग्यतानुसार ऊपर जाना चाहे, तो जा सकता था। लेकिन जबसे ऊपर और नीचे आने-जाने की सीढ़ियां टूट गई हैं, तब से ऊपर का व्यक्ति ऊपर और नीचे का नीचे ही रहकर विकृत मानसिकता का हो गया है।
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मनुस्मृति और मनुवाद :
कभी किसी ने यह जांच नहीं की कि जिस मनुस्मृति में वर्णव्यवस्था का उल्लेख है वह कहां से छपी है? क्या वह असली है या कि क्या उसमें हेरफेर किया गया है? क्या वह गीता प्रेस गोरखपुर से छपी है या पश्चिम बंगाल, केरल या इलाहाबाद के किसी प्रकाशन समूह ने छापी है? दूसरी बात मनुस्मृति हिन्दुओं का धर्मग्रंथ नहीं है। धर्मग्रंथ तो मात्र वेद ही हैं।
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मनु स्मृति क्या है?
मनु स्मृति विश्व में समाज शास्त्र के सिद्धान्तों का प्रथम ग्रंथ है। जीवन से जुडे़ सभी विषयों के बारे में मनु स्मृति के अन्दर उल्लेख मिलता है। समाज शास्त्र के जो सिद्धान्त मनु स्मृति में दर्शाए गए हैं वह सभी संसार की सभी सभ्य जातियों में समय के साथ-साथ थोड़े परिवर्तनों के साथ मान्य हैं। मनु स्मृति में सृष्टि पर जीवन आरम्भ होने से ले कर विस्तरित विषयों के बारे में जैसे कि समय-चक्र, वनस्पति ज्ञान, राजनीति शास्त्र, अर्थ व्यवस्था, अपराध नियन्त्रण, प्रशासन, सामान्य शिष्टाचार तथा सामाजिक जीवन के सभी अंगों पर विस्तरित जानकारी दी गई है। समाजशास्त्र पर मनु स्मृति से अधिक प्राचीन और सक्षम ग्रंथ अन्य किसी भाषा में नहीं है। इसी ग्रंथ के आधार पर दुनिया के संविधानों का निर्माण हुआ और दूसरे धर्मों के धार्मिक कानून बनाए गए। यही कारण था कि इस ग्रंथ की प्रतिष्ठा धूल में मिलाने के लिए अंग्रेजों और विधर्मियों ने इसके बारे में भ्रम फैलाया।
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ब्राह्मणवाद और मनुवाद क्या है?
भारतीय राजनीति में सेक्युलरवादियों ने जिन दो शब्दों का सर्वाधिक उपयोग या दुरुपयोग किया वह है 'मनुवाद और ब्राह्मणवाद।' इन शब्दों के माध्यम से हिन्दुओं में विभाजन करके दलितों के वोट कबाड़े जा सकते हैं या उनका धर्मान्तरण किया जा सकता है। अधिकांश लोगों में भ्रम है कि मनु कोई एक व्यक्ति था जो ब्राह्मण था। जबकि तथ्य यह है कि मनु एक राजा थे। इसके अलावा मनु एक नहीं अब तक 14 हो गए हैं। इनमें से भी स्वयंभुव मनु और वैवस्वत मनु की ही चर्चा अधिक होती है। इन दोनों में से स्वयंभुव मनु से ही मनु स्मृति को जोड़ा जाता है।
मनु के बारे में दूसरा भ्रम मनु संहिता को मनुवाद बना देना है। दरअसल यह मनुवाद शब्द पिछले 70 वर्षों में प्रचारित किया गया शब्द है। संहिता और वाद में बहुत अंतर होता है। संहिता का आधार आदर्श नियमों से होता है जबकि वाद दर्शनशास्त्र का विषय है। जैसे अणुवाद, सांख्यवाद, मार्क्सवाद, गांधीवाद आदि।...कुछ लोग मानते हैं कि बाबा साहब अंबेडकर ने जिस तरह संविधान लिखा उसी तरह प्राचीनकाल में राजा स्वायंभुव मनु ने 'मनु स्मृति' लिखी। जिस तरह संविधान में संशोधन होते गए उसी तरह हर काल में 'मनु स्मृति' में सुविधा अनुसार हेरफेर होते गए। अंग्रेजों के काल में इसमें जबरदस्त हेरफेर हुए।
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ब्राह्मणवाद क्या है?
जिस तरह मनुवाद जैसा कोई वाद नहीं है उसी तरह ब्राह्मणवाद भी कोई वाद नहीं। लेकिन कुछ लोग कहते हैं कि किसी नियम, कानून या परम्परा के तहत जब किसी व्यक्ति को उसकी जाति, धर्म, कुल, रंग, नस्ल, परिवार, भाषा, प्रांत विशेष में जन्म के आधार पर ही किसी कार्य के लिए योग्य या अयोग्य मान लिया जाए तो वह ब्राह्मणवाद कहलाता है। जैसे पुजारी बनने के लिए ब्राह्मण कुल में पैदा होना। ब्राह्मणवाद के बारे में आम जनता की सोच यहीं तक सीमित है।
आजकल यही हो रहा है आरक्षण के नाम पर किसी जाति, धर्म, कुल, रंग, नस्ल, परिवार, भाषा, प्रांत विशेष में जन्म के आधार पर ही आरक्षण दिया जा रहा है। यही तो ब्राह्मणवाद का आधुनिक रूप है। इस तरह का प्रत्येक वाद ब्राह्मणवाद ही है। फिर चाहे वह नारीवाद हो, किसानवाद हो, अल्पसंख्यक वाद हो, वंशवाद हो; सभी के सभी ब्राह्मणवाद ही है क्योंकि इनका निर्धारण योग्यता से नहीं जन्म से होता है।
आज कोई भी महिला, कोई भी किसान, कोई भी पिछड़ा, कोई भी अल्पसंख्यक, कोई भी दलित वर्ग संपन्न और सक्षम हो जाने के बाद भी आरक्षण की सुविधा को खोने को तैयार नहीं है। आज एक किसान करोड़ों की कार में घुमकर भी इंकम टैक्स देने से इंकार कर सकता है। एक दलित विशेष कानून का सहारा लेकर किसी को भी गिरफ्तार करवा सकता है। एक महिला अपने अधिकारों का दुरुपयोग करके किसी की भी जिंदगी बर्बाद कर सकती है। अर्थात इनके वचन ही सत्य और स्व:प्रमाणित मान लिए जाते हैं जैसे किसी समय ब्राह्मणों के वचनों को सत्य माना लिया जाता था। यही तो ब्राह्मणवाद है।
अर्थात मनुष्य शूद्र (छोटा) के रूप में उत्पन्न होता है तथा संस्कार से ही द्विज (दूसरा जन्म लेने वाला) बनता है। इस द्विज को कई लोग ब्राह्मण जाति का मानते हैं लेकिन कई ब्राह्मण द्विजधारी नहीं है।
मनुस्मृति का वचन है- 'विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठम् क्षत्रियाणं तु वीर्यत:।' अर्थात ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है तथा क्षत्रिय की बल वीर्य से। जावालि का पुत्र सत्यकाम जाबालि अज्ञात वर्ण होते हुए भी सत्यवक्ता होने के कारण ब्रह्म-विद्या का अधिकारी समझा गया।
शस्त्रों में जाति का विरोध : ऋग्वेद, रामायण एवं श्रीमद्भागवत गीता में जन्म के आधार पर ऊँची व निचली जाति का वर्गीकरण, अछूत व दलित की अवधारणा को वर्जित किया गया है। जन्म के आधार पर जाति का विरोध ऋग्वेद के पुरुष-सुक्त (X.90.12), व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोक (IV.13), (XVIII.41) में मिलता है।
ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों के हैं। इनमें से एक के भी नाम के आगे जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल नहीं हुआ है जैसा की वर्तमान में होता है-चतुर्वेदी, सिंह, गुप्ता, अग्रवाल, यादव, सूर्यवंशी, ठाकुर, धनगर, शर्मा, अयंगर, श्रीवास्तव, गोस्वामी, भट्ट, बट, सांगते आदि। वर्तमान जाति व्यवस्था के मान से उक्त सभी ऋषि-मुनि किसी भी जाति या समाज के हो सकते हैं।
अगर ऋग्वेद की ऋचाओं व गीता के श्लोकों को गौर से पढ़ा जाए तो साफ परिलक्षित होता है कि जन्म आधारित जाति व्यवस्था का कोई आधार नहीं है। मनुष्य एक है। जो हिंदू जाति व्यवस्था को मानता है वह वेद विरुद्ध कर्म करता है। धर्म का अपमान करता है। सनातन हिंदू धर्म मानव के बीच किसी भी प्रकार के भेद को नहीं मानता। उपनाम, गोत्र, जाति आदि यह सभी कई हजार वर्ष की परंपरा का परिणाम है।
भावार्थ : महर्षि मनु महाराज का कथन है कि मनुष्य क्षुद्र के रूप में उत्पन्न होता है तथा संस्कार से ही द्विज बनता है।
व्याख्या : मनुष्य जन्म से ही क्षुद्र अर्थात छोटा होता है लेकिन अपने संस्कारों से ही वह द्विज अर्थात दूसरा जन्म धारण करता है। दूसरे जन्म से तात्पर्य वह वैश्य, क्षत्रिय या ब्रह्मण बनता है या इनसे भी श्रेष्ठ वह ऋषि हो जाता है।
भावार्थ : हमारे हित के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को धारण करो।
व्याख्या : अर्थात मनुष्य अपने हित हेतु ही ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य के वरण को धारण करता है।
श्लोक : उस विराट पुरुष (ईश्वर) के ब्राह्मण मुख हैं, क्षत्रिय भुजाएँ हैं, वैश्य उरू हैं और शुद्र पैर हैं। अर्थात चरण वंदन उस परम पिता परमात्मा के पैरे को शुद्र माना गया है जिसकी हम वंदना करते हैं। (यर्जुवेद 31-11)
श्लोक : चातुर्वर्ण्य मया सृष्टां गुणकर्मविभागशः।
भावार्थ : मैंने गुण, कर्म के भेद से चारों वर्ण बनाए। महाभारत काल में वर्ण-व्यवस्था को गुण और कर्म के अनुसार परिभाषित किया गया है। चारों वर्णों के कर्तव्य अनेक स्थलों पर बतलाए गए हैं। सारे वर्ण अपने-अपने वर्णानुसार कर्म करने में तत्पर रहते थे और इस प्रकार आचरण करने से धर्म का ह्रास नहीं होता था।- महाभारत आदि पर्व 64/8/24-34)
मनुस्मृति का वचन है- 'विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठम् क्षत्रियाणं तु वीर्यतः।' अर्थात् ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है तथा क्षत्रिय की बल वीर्य से। जावालि का पुत्र सत्यकाम जाबालि अज्ञात वर्ण होते हुए भी सत्यवक्ता होने के कारण ब्रह्म-विद्या का अधिकारी समझा गया।
अतः जाति-व्यवस्था की संकीर्णता छोड़ दें। गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार ही वर्ण का निर्णय होना होता है, जिसे जाति मान लिया गया है। वर्ण का अर्थ समाज या जाति से नहीं वर्ण का अर्थ स्वभाव और रंग से माना जाता रहा है।
स्मृति के काल में कार्य का विभाजन करने हेतु वर्ण व्यवस्था को व्यवस्थित किया गया था। जो जैसा कार्य करना जानता हो, वह वैसा ही कार्य करें, जैसा की उसके स्वभाव में है तब उसे उक्त वर्ण में शामिल समझा जाए। आज इस व्यवस्था को जाति व्यवस्था या सामाजिक व्यवस्था समझा जाता है।
कुछ व्यक्ति योग्यता या शुद्धाचरण न होते हुए भी स्वयं को ऊँचा या ऊँची जाति का और पवित्र मानने लगे हैं और कुछ अपने को नीच और अपवित्र समझने लगे हैं। बाद में इस समझ को क्रमश: बढ़ावा मिला मुगल काल, अंग्रेज काल और फिर भारत की आजादी के बाद भारतीय राजनीति के काल में जो अब विराट रूप ले चुका है। धर्मशास्त्रों में क्या लिखा है यह कोई जानने का प्रयास नहीं करता और मंत्रों तथा सूत्रों की मनमानी व्याख्या करता रहता है।
जाति तोड़ों समाज जोड़ों- हमारे यहाँ अनेकों जाति की अब तो अनेक उपजातियाँ तक बन गई है। तथाकथित ब्राह्मण समाज में ही दो हजार आंतरिक भेद माने गए हैं। केवल सारस्वत ब्राह्मणों की ही 469 के लगभग शाखाएँ हैं। क्षत्रियों की 990 और वैश्यों तथा क्षुद्रों की तो इससे भी अधिक उपजातियाँ है। अपने-अपने इस संकुचित दायरे के भीतर ही विवाह होते रहते हैं। जिसका परिणाम यह हुआ है कि भारत की सांस्कृतिक एकता टूट गई। जब कोई एकता टूटती है तभी उसको जोड़ने के प्रयास भी होते हैं।