हिंदू प्रार्थना पद्धति को जानिए...

हिन्दू प्रार्थना को संध्या वंदन कहते हैं। बहुत से लोग नवधा भक्ति अर्थात श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चना, वंदना, मित्र, दाम्य, आत्मनिवेदन की बात करते हैं, लेकिन यह प्रार्थना का एक तरीका हो सकता है प्रार्थना नहीं। हिंदू अनुयायी प्रार्थना को छोड़कर सब कुछ करता है। जैसे- पूजा, आरती, भजन, कीर्तन, यज्ञ आदि। पुराणों में सभी की चर्चा है, लेकिन सर्वश्रेष्ठ प्रार्थना ही है।
 
संध्या वंदन में पूजा, आरती, प्रार्थना या करें ध्यान?
 
वैदिकजन पहले प्रार्थना करते थे, क्योंकि वह उसकी शक्ति को पहचानते थे। अकेले और समूह में खड़े होकर की गई प्रार्थना में बल होता है। आपने यदि वेद पढ़े हैं तो वैदिक ऋषि उसमें प्रार्थना करते हुए बताए गए हैं। वे उसे स्तुति करना कहते हैं। स्तुति किसी देवता से, प्रकृति से या परमेश्वर से की जाती है। आकाश की ओर मुख करके स्तुति करना उत्तम माना गया है।

आजकल हिन्दू संध्या काल में घर में ही पूजा या आरती करते हैं, तो कुछ किसी देवता की चालीसा पढ़ते हैं। कुछ मंदिर चले जाते हैं और वहां की आरती में शामिल होते हैं। सभी क्रियाएं प्रभु का स्मरण करने के लिए हैं। प्रतिदिन नियम और श्रद्धापूर्वक की गई प्रार्थना या पूजा ही सफल होती है। मन को भ्रम और भटकाव से बचाने के लिए प्रार्थना के सभी तरीके पुराणों में लिखे हैं। जिसकी जैसी रुचि वह वैसा करने के लिए स्वतंत्र है। बस जरूरी है उसके नियमों का पालन करना और दृढ़ता पूर्वक किसी एक ईष्ट में विश्वास बनाए रखना।
 
क्या है संध्याकाल? 
'सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है।'-आचार भूषण-89 
 
वैसे संधि आठ वक्त की होती है, जिसे आठ प्रहर कहते हैं। आठ प्रहर के नाम : दिन के चार प्रहर- पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह और सायंकाल। रात के चार प्रहर- प्रदोष, निशिथ, त्रियामा एवं उषा। हालांकि ज्योतिष ने दिनमान को तीन भागों में बांटा है:- प्रात:काल, मध्याह्न और सायंकाल। इस अनुसार सूर्योदय और सूर्यास्त के समय संध्या वंदन का विधान है।
 
मुख्‍यत: दो प्रहर में प्रार्थना का महत्व है:- पूर्वान्ह और सायंकाल। इसी काल में संध्या वंदन की जाती है। संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। इस पर्वकाल भी कहते हैं। इस काल में 'पवित्रता' का विशेष ध्यान रखा जाता है। यही वेद नियम है। यही सनातन सत्य है। संध्या वंदन के नियम है। संध्‍या वंदन में प्रार्थना ही सर्वश्रेष्ठ मानी गई है।

दिन में पूर्वकाल से मध्यकाल के पूर्व कभी भी संध्या करें। इधर, सायंकाल से उषा काल के अंतिम चरण तक कभी भी संध्या करें। संध्या काल में देवमूर्ति के समक्ष दीप जलाएं। इसी समय आंगन में तुलसी के पास भी दीप जलाएं।

संध्याकाल में बताई गई निषिद्ध बातें:-
सोना, खाना, पीना, शुभ कार्य, वेदपाठ, धन का लेन देन, अश्रुमोचन, यात्रा, शपथ लेना, गालियां देना, झगड़े करना, अभद्र एवं असत्य बोलना, चोखट पर खड़े रहना, संभोग आदि कार्य करना, नशा करना और वार्तालाप करना निषिद्ध बताया गया है।
 
संध्या वंदन के समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। संधिकाल में ही संध्या वंदन किया जाता है। वेदज्ञ और ईश्‍वरपरायण लोग इस समय प्रार्थना करते हैं। ज्ञानीजन इस समय ध्‍यान करते हैं। भक्तजन कीर्तन करते हैं। पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं। तब सिद्ध हुआ की संध्योपासना या हिन्दू प्रार्थना के चार प्रकार हो गए हैं- (1)प्रार्थना-स्तुति, (2)ध्यान-साधना, (3)कीर्तन-भजन और (4)पूजा-आरती। व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है। 
 
(1). प्रार्थना: संधिकाल में की जाने वाली प्रार्थना को संध्या वंदन उपासना, आराधना भी कह सकते हैं। इसमें निराकार ईश्वर के प्रति कृतज्ञता और समर्पण का भाव व्यक्त किया जाता है। इसमें भजन या कीर्तन नहीं किया जाता। इसमें पूजा या आरती भी नहीं की जाती। सभी तरह की आराधना में श्रेष्ठ है प्रार्थना। प्रार्थना करने के भी नियम हैं। वे‍दों की ऋचाएं प्रकृति और ईश्वर के प्रति गहरी प्रार्थनाएं ही तो हैं। ऋषि जानते थे प्रार्थना का रहस्य।
 
संध्या वंदन या प्रार्थना प्रकृति और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का माध्यम है। कृतज्ञता से सकारात्मकता का विकास होता है। सकारात्मकता से मनोकामना की पूर्ति होती है और सभी तरह के रोग तथा शोक मिट जाते हैं। संधिकाल के दर्शन मात्र से ही शरीर और मन के संताप मिट जाते हैं। प्रार्थना का असर बहुत जल्द होता है। समूह में की गई प्रार्थना तो और शीघ्र फलित होती है।
 
(2).ध्यान : ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। ध्यान का मूलत: अर्थ है जागरूकता। अवेयरनेस। होश। साक्ष‍ी भाव। ध्यान का अर्थ ध्यान देना, हर उस बात पर जो हमारे जीवन से जुड़ी है। शरीर पर, मन पर और आसपास जो भी घटित हो रहा है उस पर। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर। इस ध्यान देने के जारा से प्रयास से ही हम अमृत की ओर एक-एक कदम बढ़ा सकते हैं। ध्यान को ज्ञानियों ने सर्वश्रेष्ठ माना है। ध्यान से मनोकामनाओं की पूर्ति होती है और ध्यान से मोक्ष का द्वार खुलता है।
 
(3)कीर्तन : ईश्वर, भगवान या गुरु के प्रति स्वयं के समर्पण या भक्ति के भाव को व्यक्त करने का एक शांति और संगीतमय तरीका है कीर्तन। इसे ही भजन कहते हैं। भजन करने से शांति मिलती है। भजन करने के भी नियम है। गीतों की तर्ज पर निर्मित भजन, भजन नहीं होते। शास्त्रीय संगीत अनुसार किए गए भजन ही भजन होते हैं। सामवेद में शास्त्रीय सं‍गीत का उल्लेख मिलता है।
 
(4)पूजा-आरती : पूजा करने के पुराणिकों ने अनेकों तरीके विकसित किए है। पूजा किसी देवता या देवी की मूर्ति के समक्ष की जाती है जिसमें गुड़ और घी की धूप दी जाती है, फिर हल्दी, कंकू, धूम, दीप और अगरबत्ती से पूजा करके उक्त देवता की आरती उतारी जाती है। अत: पूजा-आरती के ‍भी नियम है।
 
हिंदू कर्तव्यों में सर्वोपरी है संध्या वंदन। संध्या वंदन में सर्वश्रेष्ठ है प्रार्थना। प्रार्थना को वैदिक ऋषिगण स्तुति या वंदना कहते थे। इसे करना प्रत्येक हिंदू का कर्तव्य है। आगे जानेंगे हम वैदिक प्रार्थनाओं का रहस्य।

शास्त्रोक्त संध्या वंदन को जानिए...
प्रातः संध्या (5: 30 से 7: 30) जब रात्री का विराम एवं दिन प्रारंभ हो, मध्याह्न संध्या ( 10:30 से 12:30) प्रातः काल का विराम एवं मध्याह्न काल प्रारम्भ हो एवं सायंकाल संध्या (5: 30 से 7:30) मध्याह्न काल का विराम एवं रात्री प्रारम्भ हो यह जो समय है यह त्रिकाल संध्या कहलाता है।
 
इस संध्या को करने की विधि निम्न प्रकार:- संध्या के पात्र तांबे का लोटा, तारबन, आचमनी, टूक्कस हाथ धोने के लिए कटोरी, आसन आदि लेकर के गायत्री छंद से इस संध्या की शुरुआत की जाती है। प्रातःकाल की संध्या तारे छिपने के बाद तथा सूर्योदय पूर्व करते हैं।

अंत में यह भी जानिए...
स्कंद पुराण में कहा गया है:-
अरोहणं गवां पृष्ठे प्रेतधूमं सरित्तटम्।
बालतपं दिवास्वापं त्यजेद्दीर्घं जिजीविषु।
अर्थात : जो दीर्घकाल तक जीवित रहना चाहते हैं, वह गाय बैल की पीठ पर न बैठे, चिता का धुंआ अपने शरीर को न लगने दें। गंगा को छोड़कर किसी भी नदी के तट पर न बैठे तथा दिन के समय सोना छोड़ दें।

संध्या वंदन का पुराणिक तरीका...

1. सर्वप्रथम अपने ऊपर निम्न मंत्र द्वारा जल छिड़कें- अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्था गतोअपी वा। य: स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचि:।। 
 
2. उसके बाद 3 बार आचमन (चम्मच से जल पीना) 
 
अ. ओह्म केशवाय नम:, ब. ओह्म नारायणाय नम: स्वाहा, स. ओह्म माधवाय नम: स्वाहा एवं अंत में हाथ धोने के लिए ओह्म ऋषिकेशायम नम: गोविन्दाय नम:। 
 
3. प्राणायाम : इस मंत्र से 3 बार जल छोड़ें- ॐ कारस्य ब्रह्मा ऋषिदैवी गायत्री छन्द: अग्निं परमात्मा देवता शुक्लो वर्ण सर्वकर्मारम्भे प्राणायामे विनियोग:। 
 
प्राणायाम का मंत्र- ॐ भूं: ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ मह: ॐ जन: ॐ तप: ॐ सत्यम ॐ (गुरु मंत्र जैसे गायत्री या ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) ॐ आपो ज्योति रसों अमृतं ब्रह्म भूभुर्व: स्वरोम। 
 
सर्वप्रथम अंगूठे से नासिका के दाहिने छिद्र को दबाकर उपरोक्त मंत्र पढ़ें एवं वासुदेव भगवान का ध्यान करें। जब सांस खींचना रुक जाए, तब अनामिका और कनिष्ठिका अंगुली से नाक के बाएं छिद्र को बंद कर उपरोक्त मंत्र जपें एवं कमल पर विराजमान ब्रह्माजी का ध्यान करें। अंत में अंगूठे को हटाकर दाहिने छिद्र से श्वास को धीरे-धीरे उपरोक्त मंत्र को जपते हुए छोड़ें एवं महाकालेश्वर भगवान का ध्यान करें।
 
4. फिर रुद्राक्ष की या तुलसी की माला धारण करें।
 
मंत्र : रुद्राक्ष माला के लिए महामृत्युंजय मंत्र एवं तुलसी की माला के लिए ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 
 
5. भस्म धारण- तीर्थों में (वृंदावन, उज्जैन, काशी, प्रयाग आदि) अच्छे स्थान की मिट्टी या यज्ञ की भभूति को महामृत्युंजय मंत्र से अभिमंत्रित कर अपने ललाट, दोनों कंधों, भुजाओं, हाथ-गले एवं हृदय पर लगाएं तथा साथ में गुरु मंत्र का भी पाठन करते रहें।
 
उपरोक्त क्रिया को करने के पश्चात सूर्य भगवान को अपने गुरु मंत्र या गायत्री मंत्र के पश्चात ब्रह्मस्वरूपिणे सूर्यनारायणाय नम: अयम अर्धों दत्तो न मम द्वारा 3 बार जल चढ़ाएं। 
 
यदि सूर्य उदय के पश्चात संध्या कर रहे हैं तो निम्न मंत्र द्वारा 3 बार जल चढ़ाएं...
 
ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशययन्नमृत: च। हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन ब्रम्ह्स्वरुपिंणे सूर्यनारायणाय नम: प्रयश्यित्तार्थ अयम अध्रो दत्तो न मम। 
 
प्रत्येक बार जल चढ़ाने के बाद अपने दक्षिण नेत्र, कर्ण एवं अपने नासापुट को स्पर्श करें। उसके पश्चात हाथ में जल लेकर एक परिक्रमा करते हुए अपने आसन के आसपास जल छोड़ें। 
 
6. सूर्य उपस्थान : दोनों हाथों को जोड़कर या सूर्य भगवान के सामने करके निम्न मंत्र या गुरु मंत्र द्वारा सूर्योपस्थान करना चाहिए- ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरुस्ताच्छुक्रमुच्चरत। पश्येम शरद: शतं जीवेम शरद: शत श्रृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद: शतमदीनाः स्याम शरद: शत भुयाश्च शरद: शतात।
 
7. गायत्री आवाहन- चम्मच में जल लेकर मंत्र पढ़ें- तेसोसित्यस्य परमेष्ठी प्रजापतिऋषि आज्यं देवता जगदी छन्द: याजुर्गायत्रयावाहने विनियोग:।
 
जल छोड़कर फिर निम्न मंत्र द्वारा प्रार्थना करें- 
 
ॐ तेजोसिशुक्कृमस्यमृतमसिधामनामासिप्रीयन्देवानामनाधृष्ट्टन्देवयजनमसि। 
 
8. गायत्री उपस्थान : जल छोड़ें- तुरियपदस्य विमल ऋषि: परमात्मा देवता गायत्री छन्द: गायत्र्युपस्थाने विनियोग:।
 
निम्न मंत्र द्वारा प्रार्थना करें:-
 
ॐ गायत्र्यस्येकपदीद्वीपदीचतुष्पघपघसिनहिपघसे नमस्तेतुरीयदर्शतायपदायपरोरजसेसावादोम्।
 
फिर जल छोड़ें- तत्सवितुरित्यस्य विश्वामित्र ऋषि: सविता देवता गायत्री छन्द: वायव्यं बीजं चतुर्थ शक्ति: पंश्चविंशतिव्यनजनानीकीलकं चतुर्थ पदं प्रणवो मुखम ब्रह्मा शिर: विष्णुहृदयं रूद: कवचं परमात्मा शरीरं पृथिवी योनि: प्राणापानव्यानोदानसमाना सप्राणा श्वेतवर्णा सांख्यायन सगोत्रा चतुर्विप्रत्याक्षरा षट्स्वरा सरस्वतीजिव्हा पिंगाक्षी त्रिपदा गायत्री अशेषपापक्षयाथे जपे विनियोग: 
 
ध्यान : मुक्ताविद्रूमहेमनीलधवलच्छायैमुखैस्त्रीक्षणेयुक्तामिन्दुनीबध्दरत्नमुकुटां तत्वार्थवर्णात्मिकाम्। गायत्री वरदाभयान्कुशकशाः शुभ्र कपालं गुणं शखं चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तेवहन्तिं भजे। 
 
9. अ. शाप विमोचन- जल छोड़ें अस्य श्री ब्रम्हशापविमोचनमंत्रस्य ब्रह्मा ऋषि: भुक्तिमुक्तिप्रदा ब्रम्हशापविमोचनी गायत्रीशक्तिदेवता गायत्री छन्द: ब्रम्हशापविमोचनार्थे जपे विनियोग:।
 
प्रार्थना- गायत्री ब्रह्मेत्युपसित यद्रूपं ब्रम्हविदो विदुः। तां पश्यन्तिधीराः सुमनसा वाचामग्रत:।।
ॐ वेदान्तनाथाय विदमहे हीरण्य गर्भाये धीमहि तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात।।
ॐ देवि गायत्री त्वं ब्रह्मद्विमुक्ता भव।। 
 
ब. जल छोड़ें- अस्य श्री वसिष्ठशापविमोचनमंत्रस्य निग्रहानुगृह्कर्ता वसिष्ठ ऋषि: वशिष्ठानुग्रहिता गायत्रीशक्तिदेवताविश्वोदभवा गायत्री छन्द: दसिष्ठशापविमोचनाथे जपे विनियोग:।
 
प्रार्थना (योनि मुद्रा से)- ॐ सोहमर्कमय: ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिव:। आत्मज्योतिरहं शुक्र: सर्वज्योति रसोस्म्यहम। ॐ देवि गायत्री त्वं वसिष्ठशापद्विमुक्ताभव्।।
 
स. जल छोड़ें- अस्य श्री विश्वामित्रशापविमोचन मंत्रस्य नूतनसृष्टिकर्ता विश्वामित्र ऋषि: विश्वमित्रानुग्रहिता गयात्रिशक्तिदेवता वाग्देहा गायत्री छन्द: विश्वमित्रशापविमोच्नार्थे जपे विनियोग:।
 
प्रार्थना- गायत्री भजाम्यग्नीमुखी विश्वगर्भा यदुदभवा: देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं तां कल्याणीमिष्टरीं प्रपधे यन्मुखान्नीः सृतोखिलवेदगर्भ:।। देवि गायत्री त्वं विश्वामित्रशापाद्विमुक्ता भव।।
 
10. न्यास- अस्य गायत्रस्त्रोपाहरणमंत्रस्य ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा ऋषिय: ॠग्यजु: सामानी छनदांसि क्रियामयं वपु: परत्पाराशक्तिदेवता हंबीजं संशक्ति: सोहं कीलकं अस्त्रोपसंहरणाथे जपे विनियोग:। 
 
ॐ ब्रह्म तेजोज्वालामालिनीं देविं ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नम:। ॐ विष्णु तेजोज्वालामालिनीं देविं ह्रीं तर्जनीभ्यां नम:। ॐ रूद्र तेजोज्वालामालिनीं देविं ह्रूं मध्यमाभ्यां नम:। ॐ अग्नि तेजोज्वालामालिनीं देविं ह्रैं अनामिकाभ्यां नम:। ॐ ज्ञान तेजोज्वालामालिनीं देविं ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नम: बहुरूपिणी गायत्री दिव्ये सन्ध्ये सरस्वति। अजरे अमरे देवी ब्रह्मयोनि नमस्तुते।। 
 
11. 24 मुद्रा- सुमुखं सम्पुटं चेव विततं विस्तृतं तथा दविमुखं त्रिमुखं चैव चतु:पंचमुखं तथा। षण्मुख अधोमुखं चैव व्यापकान्जलिकं तथा। शकटं यमपाशं च ग्रथितं चोन्मुखोन्मुखम। प्रलम्बं मुष्टिकं चैव मत्स्य: कुर्मो वराहकम्। सिंहाक्रांत महाक्रान्तं मुद्गरं पल्लवं तथा। 
 
12. गायत्री मंत्र जप (1 माला या 10 मंत्र) : प्रणवस्य परब्रह्मऋषि: परमात्मा देवता गायत्री छन्द: व्याह्र्तिनां प्रजापतिऋषि अग्निवासुसूर्य देवता गायत्री छन्द: सर्वपापक्षयाथे गायत्री मंत्र जपे विनियोग: जल छोड़कर गायत्री मंत्र की माला करें। 
 
13. जप के बाद फिर न्यास करें- ॐ भूः हृदयाय नम:। ॐ भुवः सिरसे स्वः। ॐ स्व शिखायै वषट्। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं कवचाय हुम्। ॐ भर्गो देवस्य धीमहि नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ धियोयोन: प्रचोदयात अस्त्राय फट् फिर 8 मुद्रा- सुर्भिज्ञानवैराग्यं योनि: शंखोथ पंकजम् लिंग निर्वाणकं चेव जापन्तेष्टौ प्रद्श्येत्।
 
14. यानि कानी च पापानी जन्मान्तरकृतानी च तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षीणपदे इस मंत्र से सूर्य भगवान की प्रदक्षिणा करें।
 
15. सूर्य नमस्कार- जल छोड़ें एक चक्र इत्यस्य नारायण ऋषि: सूर्यो देवता उष्णीक्छन्द: सूर्य नमस्कार: विनियोग: एक चक्रों रथो यस्य दिव्य: कनकभूषित:। स मे भवतु सुप्रित: पघ हस्तो दिवाकरः ॐ श्री सूर्याय नम:। ॐ गयात्रये नम:। ॐ सावित्रीये नम:। ॐ संध्याये नम:। ॐ सरस्वत्यै नम:।
 
16. दसों दिशाओं में प्रणाम करें- प्राच्याम् ॐ इन्द्राय नम:। आग्नेय्याम ॐ अग्नेय नम:। दक्षिणस्याम् ॐ यमाय नम:। नैऋत्याम ॐ निऋतये नम:। पश्चिमायाम ॐ वरुणाय नम:। वायव्याम् ॐ वायवे नम:। उत्तरास्यम ॐ कुबेराय नम: ईशान्याम् ॐ ईश्वराय नम:। उध्वायं ॐ ब्रम्हणे नम: अधोदिशी ॐ अनन्ताय नम:। 
 
17. जप निवेदन- जल छोड़ें- देवागातुविद इत्यस्य मनसस्प्तीॠषि: वातो देवता छन्द: जपनिवेदने विनियोग: ॐ देवागातुविदोगातुंव्वीत्वागातुमित मस्स्पतइमन्देवजज्ञ स्वाहाव्वतेधा:।। 
 
 

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