क्या आपने किसी बड़ी दूरबीन से अंतरिक्ष में सूर्य के चक्कर लगाते हुए शनि ग्रह को ठीक से देखा है। यदि देखा है तो आप शनि के उस नीताभ ग्रह पर निश्चित ही मुग्ध हुए होंगे, जो चारों ओर से एक चौड़ी समान आकर्षक पट्टिका से आवृत्त दिखाई देंगे और ऐसा लगेगा कि किसी चमकीली पारदर्शी जलाधारी के मध्य एक द्युलोकीय मणिरूप शिवलिंग विद्यमान है। काश! यदि दूर अतीत में ग्रह-नक्षत्रों को विस्तार देती कोई दूरबीन होती और नक्षत्र विज्ञानी उसे मुग्ध एवं तन्मय भाव से देखते तो शनि के स्वरूप एवं उसकी फलश्रुति के बारे में किसी भी प्रकार की भयावह कल्पना न करते।
ज्योतिष ग्रंथ चाहे साढ़ेसाती और शनि की कृष्णमयता तो लेकर जो भी परंपरागत कहते रहे हों, उससे शायद नक्षत्र-विज्ञानी इतने भयभीत प्रतीत नहीं होते। सुफल देने वाला एवं स्थायी संपत्ति बनवाने वाला शनि अनेक पौराणिक गाथाओं एवं मिथकों के अविश्वसनीय आवरणों में जनसाधारण को ज्ञाताज्ञात आशंकाओं से ग्रस्त करने में सदैव अग्रणी माना जाता रहा है। पौराणिक साहित्य में नवग्रहों के नाम एवं उनके महात्म्य का विशद प्रतिपादन हुआ है-
अर्थात ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु एवं केतु ये ग्रह सब शांतिप्रद एवं मंगलकारी हैं। ज्योतिष शास्त्र में नवग्रहों का इस कारण बड़ा महत्व प्रतिपादित किया गया है। इस कारण समस्त मांगलिक कार्यों में इन नवग्रहों की ऐश्वर्य, सुख-समृद्धि एवं शांति हेतु पूजा-उपासना की जाती है। विभिन्न हिन्दू मंदिरों के प्रवेश द्वारों के शीर्ष पर इसी कारण नवग्रहों का अंकन मिलता है।
नवग्रहों के कोई पृथक प्राचीन मंदिर होने की कोई परंपरा नहीं रही है, अलबत्ता कई स्थानों पर नवग्रह के मंदिर आज भी देखे जा सकते हैं। प्राचीन भारतीय प्रतिमा विज्ञान में शनि का अंकन पौराणिक विवरण के आधार पर होता है। उनके अनुसार शनि काले वर्ण के कहे गए हैं। आगम ग्रंथ में ऐसा उल्लेख है कि शनि श्वेत वस्त्रों को धारण करते हैं। अपनी दोनों भुजाओं में से एक में वे गदा धारण करते हैं तथा दूसरा वरद मुद्रा में रहता है। मत्स्य पुराण इन्हें लोहे से निर्मित रथ पर आरूढ़ बतलाता है। विष्णु पुराण में ऐसा कहा गया है कि शनि मंदगामी हैं और अपने रथ पर आरूढ़ होकर शनै:-शनै: चलते हैं। इनके रथ में आकाश में उत्पन्न हुए विचित्र वर्ण के घोड़े जुते हैं-
आकाशसम्भवैरश्वै: शबलै: स्यन्दनं पुतम्।
तमारूह्य शनैर्याति मंदगामी शनैश्चर:।।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण शनि के रूप में अधिक स्पष्ट उल्लेख करता है। उसके अनुसार शनि को काले वर्ण का होना चाहिए और उन्हें वस्त्र भी काले वर्ण के ही पहनाने चाहिए। उनके दोनों हाथों में दंड तथा अक्षमाला रहती है। उनका संपूर्ण शरीर नसों से ढंका रहता है। शनि का रथ लोहे का बना रहता है और 8 सर्प मिलकर उस रथ को चलाते हैं।
कृष्णवासास्तथाकृष्ण: शनि: कार्यस्सिरातत:।।
दण्डाक्षमालासंयुक्त करद्वितयभूषित:।
कार्ष्णायसे रथे कार्यस्तथौवाष्टभुंगमे।।
स्पष्ट है कि शनि विषयक पौराणिक मान्यताओं के आधार पर शनि की प्रतिमाएं निर्मित हुई थीं और आगम ग्रंथों और विविध पंचांगों के आधार पर उनकी पूजा-उपासना का क्रम चल निकला। आधुनिक काल में भी शनि ग्रह को एक देवता का स्वरूप प्रदान किया गया। कई पारंपरिक पोथियों में उनके माहात्म्य के बारे में की मिथकीय कहानियां उपलब्ध हैं।
आजकल तो कई छोटे-मोटे नगरों व कस्बों में शनि देवता के पृथक देवालयों के निर्माण की परंपरा चल निकली है। पूजा-उपासना की विभिन्न विधियों के माध्यम से भयग्रस्त अथवा श्रद्धावान भक्तों की भारी भीड़ इन मंदिरों में शनिवार के दिन विशेष रूप से लगने लगी है। आकाशीय ग्रह किस प्रकार लोक-जीवन में प्रविष्ट एवं प्रतिष्ठ होता है, यह उसका प्रमाण है।