निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 10 अगस्त के 100वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 100 ) में श्रीकृष्ण रुक्मिणी को बताते हैं कि किसी तरह सुदामा इस गरीबी में मेरा नाम जपता रहता है, परंतु वह मुझसे मदद नहीं मांगना चहता है।...सुदामा श्रीकृष्ण से इसलिए मदद नहीं मांगते थे कि वे श्रीकृष्ण के मित्र और भक्त भी थे। भक्त वाले रिश्ते में तो कोई लाज नहीं थी परंतु मित्र वाले रिश्ते में संकोच था। वह सोचता था कि मित्र के आगे हाथ फैलाने से स्वाभिवान को चोट पहुंचेगी।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
श्रीकृष्ण कहते हैं- देखो रुक्मिणी इतने में ही मेरा धन्यवाद कर रहा है जैसे मैंने कोई असीम कृपा कर दी उस पर। हालांकि ये उसका अपने कर्मों से कमाया हुआ प्रारब्ध है। मैंने अपनी तरफ से उसमें एक दाना भी नहीं डाला। ये विनम्रता एक भक्त में ही हो सकती है। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- वो तो देख रही हूं परंतु ये बात मुझे समझ में नहीं आती भगवन की आप सर्वशक्तिमान होते हुए भी अपने भक्त की कुछ भी सहायता नहीं कर रहे हैं।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब तक सुदामा मुझसे सहायता नहीं मांगे तो मैं कैसे उसकी सहायता करूं? वह सहायता मांगने के लिए मेरी ओर एक कदम बढ़ाए तो मैं 100 कदम आगे जाकर उसकी सहायता करूं। वह कातर होकर मुझे सहायता के लिए पुकारे तो एक क्षण में उसके पास पहुंच जाऊं जैसे मैं गज के लिए भागता हुआ चला गया था। परंतु वह तो धैर्य की एक ऐसी मजबूत चट्टान है जिसे बड़े से बड़ा तूफान भी नहीं हिला सकता। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि आप उसके धैर्य और धर्म की परीक्षा ले रहे हैं कि वह कब टूटता है? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं देवी, कभी तो मुझे ऐसा लगता है कि मैं कब द्रवित होकर टूट जाऊं और विधि के विधान को तोड़कर उसका प्रारब्ध बदल दूं।
तब रुक्मिणी कहती है कि आप उसके प्रारब्ध को नहीं बदल सकते परंतु मति तो बदल सकते हैं। इस पर श्रीकृष्ण पूछते हैं- अर्थात? तब रुक्मिणी कहती है- अर्थात ये कि आप उसे अपना पूर्णभक्त बना दीजिये। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम्हारे कहने का मतलब ये कि वो अभी पूर्ण भक्त नहीं है? तब रुक्मिणी कहती है- नहीं, अभी उसके अंदर अपने ब्राह्मणत्व का अहम् बाकी है। उसे अपने ब्राह्मणत्व के कर्तव्य पालन, अपने प्रारब्ध से हार न मानने और शांतचित्त रहकर दु:ख सहन करने की अपनी शक्ति पर गर्व है। आप उसकी बुद्धि से ज्ञान के ये पर्दे हटा दीजिये। उसे ये समझा दीजिये की भक्ति में न किसी गर्व का स्थान है, न किसी संकोच का और ना किसी लज्जा का।...यह सुनकर श्रीकृष्ण प्रसन्न हो जाते हैं और कहते हैं कि परंतु इस रास्ते में अड़चन है क्योंकि मेरे साथ उसके दो रिश्ते हैं एक भगवान का और एक मित्रता का। वो मुझे भगवान भी मानता है और अपना मित्र भी। वह भगवान से तो सहायता मांग लेगा परंतु मित्र से नहीं।
यह सुनकर रुक्मिणी कहती हैं कि मैं ये सब नहीं मानती कि यदि आप सचमुच चाहें तो उसकी कोई सहायता नहीं कर सकते। आपको तो लोग अकारण ही दयालु कहते हैं। मुझसे इसकी दशा देखी नहीं जाती प्रभु। इस पर दया कीजिये। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप साक्षात लक्ष्मी का अवतार है। इसलिए जब स्वयं लक्ष्मी ने ही उसकी दशा बदलने का संकल्प कर लिया है तो अवश्य ही उसका प्रारब्ध बदलने का समय आ गया है।
फिर उधर सुदामा को एक द्वार पर भिक्षा मांगते हुए बताया जाता है। घर का मालिक बाहर निकलकर कहता है अभी मैं काम में व्यस्त हूं कल आना। दूसरे द्वार पर जाता है तो वहां पर भी द्वार बंद कर लिया जाता है।...यह देखकर रुक्मिणी पूछती है कि प्रभु इस नगर के लोगों का हृदय इतना कठोर क्यों है? किसी के भी मन में इतनी भी ममता नहीं रही कि एक फटेहाल ब्राह्मण को मुठ्ठीभर ही अन्न दे दें। क्या ये चांडालों का नगर है?
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि नहीं देवी ये सभी लोग अंदर से हृदय के अच्छे हैं। तब रुक्मिणी कहती है- फिर? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि ये जो भाग्य दी देवी हैं ना, इसे ही प्रारब्ध भी कहते हैं। वो इन लोगों का दिल पत्थर बना देती है। उस क्षण के लिए उनकी दया भावना शून्य हो जाती है। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- परंतु प्रभु किसी के मन में तो दया का भाव डाल दीजिये क्योंकि उसके परिवार ने दो दिनों से कुछ नहीं खाया है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप ही डाल दीजिये परंतु जल्दी कीजिये वह पांचवें घर पहुंचने ही वाला है। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है कि आपकी यही इच्छा है तो ठीक है मैं ही कुछ कर देती हूं।
उधर, सुदामा एक घर के सामने भिक्षा मांगता है तो एक महिला तेश में बाहर आती है परंतु रुक्मिणी के प्रभाव से उसका मन बदल जाता है और वह कहती है- ब्राह्मण देवता तनिक ठहरों मैं भिक्षा लाती हूं। फिर वह महिला खीर लाकर देती है और कहती है कि वहां सामने वाले घर में आज उत्सव है। वहां ब्राह्मणों को वस्त्र बांट रहे हैं नई धौती मिल जाएगी। यह सुनकर सुदामा कहते हैं कि नहीं देवी मेरे पांच घर आज पूरे हो चुके हैं। ब्राह्मण का छठे घर में जाने का विधान नहीं है देवी। यह सुनकर वह महिला कहती है कि मैंने तो इसलिए कहा था कि तुम्हारी धौती जगह-जगह से फट गई है। वहां से नई धौती मिल जाएगी। नहीं जाना तो तुम्हारी इच्छा। फिर सुदामा वहां से चला जाता है।
रास्ते में एक घुड़सवार का घोड़ा बिदकर पागल हो जाता है। भगदड़ मच जाती है यह देखकर सुदामा भी घबरा जाता है। वह भी भागने लगता है लेकिन वह घोड़ा उसी की ओर आकर उसे गिरा देता है और तब उसके हाथ की खीर भूमि पर गिर जाती है। यह देखकर रुक्मिणी कहती है- ये क्या हो गया प्रभु? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- देखा रुक्मिणी यही प्रारब्ध की देवी का कमाल है। आपने जो उसके प्रारब्ध से अधिक उसे जो दिलाया प्रारब्ध की देवी ने उसे मिट्टी में मिला दिया। वास्तव में यह खीर उस कुत्ते के भाग्य में थी जो उसे सुदामा के द्वारा मिल गई।
यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- परंतु प्रभु इसका कष्ट कैसे कटेगा। कैसे मिटेगी इसकी भूख? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि देवी अब वह समय भी आने वाला है जब यह मुझसे सहायता मांगने पर विवश हो जाएगा। अब थोड़ा ही समय रह गया है।
फिर उधर, सुदामा के घर पर उसके चार बच्चे उसकी माता से भोजन की मांग करते हैं। सुदामा खटिया पर बैठ हुआ यह सुनता रहता है। वह आंखें बंद करके श्रीकृष्ण का जाप करने लगता है। यह देखकर उसकी पत्नी कहती है कि श्रीकृष्ण का जाप करने से आपकी जठराग्नि शांत होती होगी परंतु हमारे बच्चों का क्या? इन्होंने क्या अपराध किया है कि इन्हें हर रोज भूखा सोना पड़ता है। यह सुनकर सुदामा कहता है कि यह संसार प्रभु की माया है वसुंधरे, जो होना है उसकी इच्छानुसार ही होना है। यह सुनकर उसकी पत्नी कहती है कि इसका अर्थ, इसका अर्थ यह है कि हम भूखे प्यासे रहें ये प्रभु की इच्छा है? इसका अर्थ हम दु:ख झेलते रहें ये प्रभु की इच्छा है? यह सुनकर सुदामा चुप रह जाता है। फिर उसके बच्चे उससे कहते हैं- पिताजी बहुत भूख लगी है कुछ खाने को दो ना।
फिर उसकी पत्नी कहती है कि मेरी बात आपको कड़वी लगती है परंतु सत्य तो यह है कि हम हर सुबह इस आशा के उठते हैं कि आज भरपेट खाना खाएंगे और हर रात इस नए विचार से सो जाते हैं कि कल भरपेट खाना खाएंगे। परंतु आज तक न तो कोई ऐसी सुबह हुई है और ना ही कल भरपेट खाना खिलाने वाला आया है।
यह सुनकर सुदामा प्रारब्ध और प्रभु का उपदेश देता है परंतु उसकी पत्नी यह बातें नहीं समझ पाती है। सुदामा कहता है कि यह सब हमारे पूर्व जन्मों का कर्म है। यह सुनकर उसकी पत्नी कहती है कि इसका अर्थ ये कि हम सभी पूर्व जन्म में पापी थे? हमारे पूर्व जन्मों का कर्म हमारे बच्चे क्यों भुगते, क्या ये पूछा है आपने कभी श्रीकृष्ण से?...सुदामा पुन: चुप रह जाता है। फिर वह कहती है कि यदि हम सबने पूर्व जन्म में पाप किए हैं तो अपने श्रीकृष्ण से कहिये कि मैं आप सबके पापों का फल भोगने को तैयार हूं। मुझे चाहे जितना भी दु:ख दे लें परंतु आपको और मेरे बच्चों को दु:ख ना दें।
यह सुनकर सुदामा कहते हैं कि विश्वास रखो सुख के दिन अवश्य आएंगे वसंधरे। यह सुनकर उसकी पत्नी कहती है- मुझे विश्वास है कि सुख के दिन अवश्य आएंगे परंतु हमारे जीते जी नहीं आएंगे। अपने कृष्ण से कहिये कि मरने से पहले मुझे सुख का एक दिन, बस एक दिन तो दिखा दें। अपने प्रभु से इतना तो कह दो। यह सुनकर सुदामा कहता है कि उन्हें कहने की क्या आवश्यकता है। वो स्वयं भी तो सबकुछ देख रहे होंगे। उन पर विश्वास रखो और उनकी मर्जी पर सबकुछ छोड़ दो।
यह सुनकर रुक्मिणी से श्रीकृष्ण कहते हैं- तो देवी अब आपकी सुदामा के बारे में क्या राय है? रुक्मिणी हाथ जोड़कर कहती है प्रभु आपका सुदामा महान है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां देवी वह संसार का एक श्रेष्ठ और महान व्यक्ति है। वह एक योगी है। संसार के सारे बंधन तोड़कर वह एक सन्यासी भी हो सकता है परंतु जिससे उसने विवाह किया है उस पत्नी और बच्चों की जिम्मेदारी छोड़कर वह मोक्ष नहीं पाना चाहता है। मन से वैरागी होकर भी वह घर गृहस्थ का कर्तव्य निभा रहा है। तब रुक्मिणी कहती है कि प्रभु पृथ्वीलोक तो मोह का मायाजाल है सुदामा को इस मोह का मायाजाल नहीं हुआ? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- देवी सुदामा निर्मोही है किसी भी मोह का उसे मोह होगा कैसे। फिर भी वो देखो, उसके लिए एक नया मोहजाल पालकी में बैठकर आ रहा है।
सुदामा एक घर पर भिक्षा मांग रहा होता है तभी पालकी में सवार एक ब्राह्मण उसे देखकर पालकी उठाने वाले से कहता है- रुको...रुको। पालकी रुक जाती है तो तब वह व्यक्ति सुदामा को पुकारता है- सुदामा सुदामा। सुदामा पलटकर देखता है तो वह व्यक्ति इशारे से उसको पास बुलाता है। सुदामा उसको पास से देखकर कहता है- अरे चक्रधर तुम? तब वह व्यक्ति कहता है- हां मैं चक्रधर तुम्हारा मित्र। फिर सुदामा कहता है- चक्रधर तुम्हें पालकी में देखकर संतोष हुआ मित्र। यह सुनकर चक्रधर कहता है कि और तुम्हें झोली फैलाकर भिक्षा मांगते मुझे संतोष नहीं हुआ मित्र। यह सुनकर सुदामा कहता है कि मैं कोई अनुचित काम नहीं कर रहा हूं मित्र। पूजा-पाठ करके दक्षिणा लेना ब्राह्मण का धर्म है और पांच घरों से भिक्षा मांगता हूं छठे घर से नहीं चक्रधर। तुम भी तो कभी भिक्षा मांगते थे मेरे साथ?
यह सुनकर चक्रधर हंसता है और कहता है- परंतु अब मैं तुम्हारी तरह भिक्षा नहीं मांगता सुदामा। तुम खुद ही देख लो तुममें और मुझमें कितना अंतर है। आज मुझे पालकी का सम्मान है और तुम आज भी झोली फैलाकर भिक्षा मांग रहे हो। धर्म-अधर्म की बातें करते रहोगे तो कुछ भी नहीं पा सकोगे। मेरी ओर देखो मैं सिर्फ राजा के दरबार में हाथ फैलाता हूं। आज मैं और मेरा परिवार सुखी है। तुम भी मेरी बात मान लो और राजा के दरबार में हाजिर हो जाओ और राजा के गुणों का वर्णन करो। उनसे सोने की मोहरों की दक्षिणा प्राप्त करो। तुम्हारा प्रारब्ध बदलने का चमत्कार ये सोने की मोहरें ही कर सकती है।
यह सुनकर सुदामा कहता है कि तुम्हारी बातों से ऐसा लगता है कि तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। राजा ईश्वर का अंश होता है परंतु ईश्वर नहीं होता। इसलिए ईश्वर का गुणगान करो। ईश्वर की भक्ति करो, लोगों को भक्ति योग का मार्ग दिखाना ही ब्राह्मण का धर्म है। राजा के सामने सोने की मोहरों के लालच में हाथ फैलाना ब्राह्मण का धर्म नहीं है- चक्रधर। यह सुनकर चक्रधर कहता है- सुदामा भावना के सपने मत देखो कुछ सांसारिक ज्ञान की बातें करो। तब सुदामा कहता है कि मैं सांसारिक ज्ञान की बातें ही कह रहा हूं। शास्त्र कहता है कि ब्राह्मण ब्रह्म जानता है इसीलिए उसे ब्राह्मण कहते हैं और ब्राह्मण का स्थान राजा के सामने उससे भी ऊंचा गुरु का पद होता है। वह राजा की झूठी प्रशांसा करने वाला भाट नहीं होता।
यह सुनकर चक्रधर भड़क जाता है और कहता है तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है सुदामा। कदाचित तभी तुम इस प्रकार की बातें कर रहे हो। अगर तुम्हारे प्रारब्ध में मृत्यु तक भिक्षा मांगते हुए जीना लिखा है तो कोई कुछ नहीं कर सकता। ऐसा कहकर चक्रधर वहां से चला जाता है और सुदामा अपने घर।
अपने घर में वह अपने बच्चों के साथ चावल खाने के लिए बैठता है तभी बाहर से गाय की आवाज सुनाई देती है तो वह कहता है अरे! धीनू को कैसे भूल गया। मैं धीनू को उसका हिस्सा देकर आता हूं। फिर वह अपनी पत्तल में से एक मुठ्ठी चावल निकालकर धीनू को उसका हिस्सा देकर पुन: आकर बैठ जाता है। फिर उसकी पत्नी कहती है अब भोजन शुरू करो। फिर सभी प्रार्थना करके भोजन करने लगते हैं तभी बाहर से किसी भिखारी की आवाज सुनाई देती है तो उसकी पत्नी देखती है कि सुदामा अपने हिस्से का बचा भोजन वह भिखारी को देने बाहर चले जाते हैं।
वापस भीतर लौटकर वह अपनी पत्नी को देखता है और फिर पत्नी उसे देखती है। फिर वह लौटे का पानी पी कर कहता है- मेरा भोजन हो गया वसुंधरे। यह कहकर वह लौटा उसकी पत्नी के हाथ में रख देता है। उसकी पत्नी कुछ नहीं बोलती है।
उधर, श्रीकृष्ण को उनकी तीनों पत्नियां भोजन खिलाने के लिए उन्हें सुंदर से पाट पर बिठाती हैं। सत्यभाभा हस्त पंखे से हवा करती है, जामवंती खाना लेकर आती है और रुक्मिणी खाना परोसती हैं। प्रभु भोजन का ग्रास (कोल) तोड़कर खाने ही लगते हैं तभी वे रुक जाते हैं और उस ग्रस को पुन: थाली में रख देते हैं। रुक्मिणी पूछती है- क्या हुआ प्रभु?
श्रीकृष्ण झूठमूठ का मुस्कुराकर कहते हैं- मेरा पेट भर गया। यह सुनकर सत्यभामा कहती है- पेट भर गया? श्रीकृष्ण कहते हैं- हां। तब जामवंती कहती है भोजन करने से पहले ही? फिर श्रीकृष्ण भोजन की थाली को नमस्कार करके उठ जाते हैं तब रुक्मिणी उनके हाथ धुलाते वक्त पूछती है- असली बात क्या है प्रभु? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब मेरा भक्त भोजन न कर सकता तो मैं कैसे भोजन कर सकता हूं? यह सुनकर सत्यभामा पूछती हैं किसने भोजन नहीं किया वासुदेव? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- सुदामा ने। तब सत्यभामा पूछती है ये सुदामा कौन है और उन्होंने भोजन क्यों नहीं किया?
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि सुदामा एक गरीब ब्राह्मण है। उसे और उसके परिवार को हर दिन भोजन नहीं मिलता। फिर भी सुदामा धर्म के मार्ग से विचलित नहीं होता। गृहस्थ प्राणी का कर्तव्य है कि भोजन से पहले ही एक हिस्सा अपने पशु को और भोजन के समय कोई आतिथि आया हो तो उसे खिलाना चाहिए। आज सुदामा ने यही किया और अतिथि को देने के बाद स्वयं सुदामा के लिए कुछ भी बचा नहीं, ये होता है धर्म पालन।...भक्त कभी-कभी अपनी भक्ति से खुद को इतना ऊंचा कर देता है कि भक्त और भगवान में कोई अंतर ही नहीं रह जाता। इसी कारण सुदामा मुझे बहुत प्रिय है। उसे इस बात का दुख है कि वह अपने परिवार का पलन ठीक तरीके से करने में असफल हो रहा है। सत्यभामा कहती है कि फिर वो आपके पास क्यों नहीं आते? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- इसलिए कि उसके मन में ये शंका है कि कृष्ण जो उसका बाल सखा है अब द्वारिकाधीश हो जाने के बाद गरीब सुदामा को पहचानेगा की नहीं? जय श्रीकृष्णा।
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