Shri Krishna 17 August Episode 107 : जब सुदामा की पत्नी ने कर दिया अपने झोपड़े को राजमहल जैसा बनाने से इनकार

अनिरुद्ध जोशी
सोमवार, 17 अगस्त 2020 (22:05 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 17 अगस्त के 107वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 107 ) में द्वारिका में सुदामा का भव्य स्वागत होता है और फिर उसके चरण धोने के बाद उसका उबटनों से स्नान होता है। फिर सुदामा खुद को दर्पण में देखकर अचंभित हो जाता है। फिर वह अपने हाथ की पोटली को और नए वस्त्र को देखता है। फिर वह सोचता है कि त्रिभुवन के धन भंडार में मेरे इस थोड़े से चावल की क्या औकात। अब उसे ये पोटली देने में लज्जा महसूस होती है। क्या सोचेगी रानियां और क्या बोलेंगे दास और फिर श्रीकृष्‍ण को किस-किस का उपहास सहना होगा। सुदाम यह सब सोचने लगता है।
 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
सुदामा चावल की पोटली को अपने सिरहाने छुपाने लगता है इतने में श्रीकृष्ण अपनी तीनों पत्नियों के साथ उनके कक्ष में आ जाते हैं। वे उन्हें पोटली छुपाते हुए देखकर कहते हैं- क्या छुपा रहे हो सुदामा। सुदामा सकुचाते हुए कहता है- अरे कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि कुछ कैसे नहीं, अवश्य कोई वस्तु छुपाई होगी तुमने। यह सुनकर सत्यभामा कहती है- अरे अरे ये क्या अपने मेहमान पर आरोप लगाना अच्छी बात नहीं है प्रभु। यह सुनकर जामवंती भी कहती है- बिल्कुल नहीं मेहमान तो भगवान का स्वरूप होता है। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- अरे तुम सब तो इससे अभी-अभी मिली हो, मैं तो इसे बचपन से जानता हूं। खाने-पीने की चीजों के मामले में ये एकदम स्वार्थी है। ऐसा कहकर वे सुदामा से कहते हैं- लाओ...लाओ और फिर वे सुदामा के तकीये के नीचे छुपी पोटली को लेने का प्रयास करते हैं सुदामा तकिया पकड़कर कहता है- अरे नहीं नहीं कुछ भी नहीं है। इस पर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि तब तो जरूर कोई स्वादिष्ट वस्तु है जिससे तुम अकेले हड़पकर लेना चाहते हो। भाभीजी ने अवश्य मेरे लिए कोई रसिली वस्तु भेजी होगी। आखिर श्रीकृष्ण तकीये के नीचे से वह पोटली निकाल ही लेते हैं।
 
तीनों रानियां देखने लगती हैं श्रीकृष्‍ण के हाथ की वह पोटली। फिर श्रीकृष्ण भावुक होकर कहते हैं- भाभीजी ने ये भेंट मेरे लिए भेजी है ना? सुदामा कुछ भी बोल पाने में सक्षम नहीं रहता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- तो तुमने अभी तक दी क्यों नहीं? अरे मैं तो पहले से ही जानता था कि भाभी तुम्हें कभी खाली हाथ नहीं भेजेंगी। कुछ नहीं तो पान-सुपारी ही भेज देंगी या दो मुठ्ठी चावल ही बांध देंगी मेरे लिए।
 
यह कहकर श्रीकृष्ण पोटली खोलने लगते हैं- तो सुदामा उन्हें रोककर कहता है- नहीं नहीं ये पोटली मत खोलो। बात ये है कि मैं जल्दी में चला आया। कुछ भी तैयार नहीं था तो तुम्हारी भाभी ने कहा कि इसे ही ले जाओ। देवरजी इससे ही मेरे स्नेह भाव को समझ जाएंगे। फिर श्रीकृष्ण वह पोटली खोल देते हैं- और देखते हैं कि उसमें तीन मुठ्ठी चावल हैं। रुक्मिणी, जामवंती और सत्यभामा यह तीनों भी ये देखकर भावुक हो जाती हैं। श्रीकृष्‍ण चावल को अपने हाथ में लेकर कहते हैं- अमृत लाए हो मेरे लिए और छुपाए-छुपाए फिर रहे हो। फिर श्रीकृष्ण आंखों में आंसू भरकर कहते हैं- वाह..वाह.. भाभीजी ने क्या भेंट भेजी है। प्यार के अमृत में भीगे हुए ये तंदुल (चावल), प्रेम के रंग में रंगे हुए ये स्नेह के माणिक मोती, स्नेह भावनाओं से सुगंधित ये अनमोल रतन। अरे ये तो संसार की सबसे उत्तम, सबसे अनमोल भेंट हैं और इसे छुपा रहे थे तुम। यह सुनकर सुदामा अचंभित हो जाता है।
 
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि इन तीन मुठ्ठी चावल पर तो मैं तीनों लोक वार दूं। यह सुनकर शिव, नारद, इंद्र और ब्रह्मा सभी अचंभित हो जाते हैं और इंद्र सहम जाता है।...यह सुनकर सुदामा श्रीकृष्‍ण की ओर देखता है तो श्रीकृष्ण फिर से कहते हैं- हां सुदामा तीनों लोक वार दूं।....यह सुनकर रुक्मिणी, सत्यभामा और जामवंती भी स्तब्ध हो जाती है। 
 
हाथ में चावल लेकर श्रीकृष्ण को सभी देवी और देवता सहम कर देखते हैं कि न जाने अब किस लोक की संपत्ति होए समाप्त। संपूर्ण लोक स्तब्ध हो जाता है और सभी सोच में पड़ जाते हैं कि प्रभु अब आगे क्या कहेंगे। इंद्र बुरी तरह से डर जाता है। हर दाने के मोल यदि देने लगे भगवान तो रह जाएगा सृष्टि में बस एक ही धनवान। 
 
फिर प्रेम के भूखे प्रभु श्रीकृष्‍ण प्रेम भाव से तंदुल खाने लगे हैं। दंतुल के दानों में दीन का देख दरिद्र चबाने लगे हैं। एक-एक मुठ्ठी में एक-एक लोक सुदामा के भाग्य में जाने लगे हैं। त्रिभुवनपति की देख उदारता तीनों भवन थर्राने लगे हैं।... प्रभु को चावल खाते देख सुदामा, रुक्मिणी, सत्यभामा और जामवंती आश्चर्य से देखते हैं। सुदामा ये देखकर बहुत ही प्रसन्न हो जाते हैं। उधर इंद्र का सिंहासन हिलने लगता है।
 
पहली मुठ्ठी लेते ही प्रभु ने स्वर्ग सुदामा के नाम किया है।... यह देखकर रुक्मिणी खड़ेचखड़े हाथ जोड़कर उन्हें संकेतों में रोकने का प्रयास करती है।... दूसरी मुठ्ठी में पृथ्‍वीलोक का वैभव वीप्र को सौंप दिया है।...तीसरी मुठ्ठी में देने लगे जो वैकुंड तो लक्ष्मी ने रोक लिया है।....रुक्मिणी दौड़कर जाती है और प्रभु श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लेती हैं और संकेतों से गर्दन हिलाकर मना करती हैं तो प्रभु श्रीकृष्ण करुणा भाव से कहते हैं- देने दो। लेकिन रुक्मिणी मना करती है। सुदामा हाथ जोड़कर पलंग पर बैठा रहता है उसे कुछ समझ में नहीं आता है कि ये हो क्या रहा है।...रुक्मिणी सोचती है- अपने निवास भी दान में दे रहा कैसा दानी ये मेरा पिया है।
 
रुक्मिणी लक्ष्मी रूप में प्रकट होकर कहती है- हे त्रिलोकीनाथ ये आप क्या कर रहे हैं। पहली में स्वर्ग, दूसरी में पृथ्‍वीलोक और अब तीसरी मुठ्ठी खाकर क्या वैकुंड भी दान में दे देना चाहते हैं? तब विष्णु रूप में प्रकट होकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि सुदामा के आधे चावल को भूल गई देवी जो उसने हमें अर्पण किया था। तब रुक्मिणी (लक्ष्मी) कहती है कि आधे चावल का दान चुकाने के लिए प्रभु आप तीनों लोक दान में दे देंगे, ये कैसे हिसाब है प्रभु आपका? तब विष्णु भगवान कहते हैं कि सीधा-सा हिसाब है कि वह आधा चावल सुदामा की कुल पूंजी थी जो उसने स्वयं भूखा रहकर हमें अर्पित किया था। अर्थात जब उसने अपनी कुल पूंजी अर्पित कर दी तो हमें भी उसके बदले अपनी सारी संपदा भेंट कर देना चाहिए, तभी तो हिसाब बराबर होगा।
 
तब रुकिमणी कहती है- हे त्रिलोकीनाथ आप तीन मुठ्ठी खाकर तीनों लोक दान में दे देना चाहते हैं इस तरह तो आप सुदामा की तरह भिक्षुक बन जाएंगे और सुदामा त्रिलोकीनाथ बन जाएंगे। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- तभी तो मित्रता का हिसाब बराबर होगा। मैं वो बन जाऊंगा और वो मैं। फिर मुझमें वो होगा और उसमें मैं। फिर दोनों में कोई अंतर नहीं रहेगा। दोनों बराबर हो जाएंगे। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- नहीं भगवन। आप भावना के आवेश में आकर हम सबके साथ ऐसा नहीं कर सकते। 
 
फिर पुन: वास्तविक धरातल पर आकर रुक्मिणी श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर कहती है कि ये तो बहुत अन्याय है प्रभु। आप अकेले ही भाभी के दिए हुए तंदुल खाए जा रहे हैं। अरे हमारा भी तो कोई हक बनता है इस अमृत में, लाइये हमें दीजिये। ऐसा कहकर रुक्मिणी चावल की वह पोटली श्रीकृष्ण से छीनकर ले जाती है तो श्रीकृष्ण कहते हैं- अरे अरे ये क्या कर रही हो। परंतु रुक्मिणी पोटली को ले जाकर वह चावल सत्यभामा और जामवंती के सामने खोलकर कहती है- हां लो खाओ। तीनों वह चावल खा लेते हैं और श्रीकृष्ण देखते ही रह जाते हैं। सुदामा यह देखकर कुछ समझ नहीं पाता है कि आखिर हो क्या रहा है। परंतु उसे अच्छा लगता है कि सभी उसके लाए चावलों को चाव से खा रहे हैं। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- देखा सुदामा मेरी एक मुठ्ठी चावल का नुकसान हो गया, सब खा गई। यह देखकर सुदामा खुशी से आंसू बहा देता है।
 
फिर रात्रि में सुदामा अपने शयन कक्ष में अपनी पत्नी की बातें सोचने लगता है। वह कहती थी कि जब आप अपने मित्र से मिलें तो उनको सारी हालत बता दीजियेगा। 
वो अवश्य आपके सारे दु:ख हर लेंगे। तब सुदामा कहता है कि देखो वसुंधरा। मैं वहां जा रहा हूं केवल तुम्हारे कहने पर। मैं फिर से कह रहा हूं कि मैं स्वयं अपने मुंह से कुछ नहीं मांगूगा। तब वसुंधरा कहती हैं कि आपको मांगने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी स्वामी। मांगने से तो इंसान देता है, वो तो भगवान हैं अंतरयामी हैं। वो बिना मांगे ही सबकुछ दे देंगे। आप केवल एक बार उनके पास पहुंच तो जाइये। अच्छी बात है चला जाऊंगा।...सुदामा यह सब सोच ही रहा होता है कि तभी वहां श्रीकृष्ण आ जाते हैं। सुदाम उन्हें देखकर चौंक जाता है।
 
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं क्षमा करना मित्र तुम्हारे कक्ष में बिना आज्ञा ही चला आया। यह सुनकर सुदामा कहता है अरे ये क्या कह रहे हो क्षमा मांगकर मुझे पाप का भागी क्यों बना रहे हो और फिर अपने मित्र से मिलने की आज्ञा की क्या आवश्यकता है, आओ बैठे मित्र। फिर श्रीकृष्ण सुदामा के पास बैठते हुए कहते हैं कि क्या सोच रहे थे?
 
इस पर सुदामा कहता है- नहीं कुछ भी तो नहीं। 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- भाभी से पहली बार जुदा हुए हो ना तो अवश्‍य उनकी याद सता रही होगी। यह सुनकर सुदामा उदास होने लगता है तो श्रीकृष्ण कहते हैं- लगता है कि मैं गलत समय पर आ गया हूं चलो भाई तो फिर मैं चलता है। यह सुनकर सुदामा उन्हें रोककर कहता है- अरे नहीं नहीं। ये तो मेरा सौभाग्य है कि अपने बाल सखा के साथ मुझे कुछ और समय बिताने का मौका मिल रहा है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि सौभाग्य तो मेरा है कि मुझे तुम जैसा मित्र मिल गया है। यह सुनकर सुदामा कहता है कि यह कहकर तुम मुझे लज्जित कर रहे हो मित्र। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- अरे लज्जा वज्जा छोड़ों और नि:संकोच अपने दिल की सारी बातें कह डालो। पता नहीं फिर एकांत में ऐसा अवसर मिले ना मिले। 
 
यह सुनकर सुदामा सोच में पड़ जाता है और सोचता है कि सुदामा यदि मांगना है तो यही अवसर है मांग लें। तब वह सोचता है नहीं नहीं। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- सुदामा ये अच्छी मित्रता है मन ही मन में कोई खिचड़ी पका रहे हो, पर हमें नहीं बता रहे। अरे मित्र से क्या छुपाना, बताओ क्या बात है। तब सुदामा सोच में पड़ जाता है तो फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि संसार में केवल मित्र के ही सामने व्यक्ति अपनी छाती फाड़कर अपना दु:ख और अपना सुख बांट सकता है। जब से हम गुरु आश्रम से बिदा हुए थे तुमने क्या किया, कैसे बिती और अब कैसे बित रही है? संसार में मित्र से अधिक सहायता करने वाला कोई नहीं होता, सो बताओ। मैंने तुम्हें कहा था कि मित्रता मैं निभाऊंगा। सो मेरा वचन आज भी सत्य है। बताओ कोई सेवा, कोई काम और कोई मदद। अरे मित्र से कैसा परदा, बताओ क्या बात है?
 
इतना कहने के बाद भी सुदामा कहता है नहीं कुछ भी तो नहीं। तुम वैसे ही शंका कर रहे हो, मुझे किसी भी चीज की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारी दया से सबकुछ तो है यहां। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- अरे यहां तो सब ठीक है मेरा मतलब था कि तुम्हारे घर पर तो सब ठीक-ठाक है ना? यह सुनकर सुदामा सकुचाते हुए कहता है- हां सब ठीक ही है। यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि परंतु भाभी ने अवश्य ही कोई संदेशा भेजा होगा? यह सुनकर सुदामा कहता है कि यदि कोई संदेश भेजा होता तो चावल की भेंट के साथ कह ना दिया होता।
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि क्या पता जैसे सबके सामने चावल छुपा रहे थे वैसे ही संदेश भी छुपा रहे हो? लेकिन इस समय तो मेरे अलावा यहां पर और कोई नहीं है फिर कैसी लज्जा, बताओ ना भाभी ने क्या कहा? तब सुदामा झूठ बोल जाता है कि आते समय तुम्हारी भाभी ने कहा कि तुम्हारी दया से सब कुछ ठीक ही है, कुशल मंगल ही है। यह सुनकर श्रीकृष्ण निराश हो जाते हैं।..यह वार्तालाप रुक्मिणी सुन रही होती है।
 
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्थात भाभी ने कोई इच्छा व्यक्त नहीं की? अरे ये कैसे हो सकता है। स्त्रियों की तो कई अभिलाषाएं होती हैं। उन्होंने अच्छे अच्छे आभूषणों और वस्त्रों की इच्‍छा प्रकट की होगी। तब सुदामा कहता है नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। मन को संतोष प्राप्त हो तो मनुष्य अपने साधनों में ही खुश रहता है। तुम मेरी चिंता न करो, मेरे घर में सब कुशल मंगल ही है। तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर में मैं बस इतना ही कह सकता हूं कि मेरे प्रभु की कृपा और मित्र के आशीर्वाद से मेरे घर में सब सकुशल है हां। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं ठीक है जब तुम कहते हो तो ऐसा ही होगा। तब श्रीकृष्ण दोहराकर आशीर्वाद की मुद्रा में कहते हैं...''ऐसा ही होगा।''
 
फिर बाद में रुक्मिणी द्रवित होकर कहती है कि ऐसा ही होगा, ये आपने कैसे मान लिया भगवन? तब श्रीकृष्ण हंसते हैं। फिर रुक्मिणी कहती है कि जबकि आप तो भलिभांति जानते हैं कि ऐसा नहीं है। सुदामा बहाने बना रहे हैं। सुदामा के घर सबकुछ कुशल नहीं है। वे गरीबी के मारे हैं। अपने आत्म सम्मान और आपको कष्ट ना देने के लिए वे अपनी दुर्दशा आपसे छिपा रहे हैं भगवन। यह सुनकर श्रीकृष्ण हंसते हैं तो रुक्मिणी कहती हैं कि मेरी परेशानी पर आप मुस्कुरा रहे हैं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- आनंद ले रहा हूं तुम्हारी परेशानी और व्याकुलता का। जिस तरह सुदामा को उस खंडहर में मुरली मनोहर बनकर उन्हें खाना न खिला पाने का आनंद तुम ले रही थी। उस समय मेरे मुख मंडल पर ममता झलक रही थी और इस समय तुम सिर से पैर तक ममतामयी हो गई हो। 
 
यह सुनकर रुक्मिणी कहती है कि तो क्या मुझे सुदामा के लिए एक मां की तरह चिंतित नहीं होना चाहिए? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- ऐसा मैंने कब कहा? तब रुक्मिणी कहती है- तो फिर आप निश्चिंत क्यों है? सुदामा के ये कहने पर की सब कुशल है तो आप 'ऐसा ही होगा' यह मान कर चले आए। तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं- देवी जब सुदमा ने ये कहा कि मेरा परिवार सब कुशल है तो मैंने कहा कि ऐसा ही होगा, अर्थात अब से ऐसा ही होगा। यह सुनकर रुक्मिणी प्रसन्न हो जाती है और कहती है ये तो बताइये कि ऐसा ही होगा तो होगा कैसे? 
 
फिर श्रीकृष्ण आंखें बंद करके खोलते हैं तो विश्वकर्मा प्रकट होते हैं और उन्हें प्रणाम करके कहते हैं- आज्ञा करें भगवन। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं अपने परम मित्र सुदामा के लिए एक राजमहल का निर्माण करना चाहता हूं और यह राजमहल हमारे राजमहल जैसा ही होना चाहिए और इसकी विशेषता यह हो कि इसमें जो भी आए वह शांति और संतोष का अनुभव करें। विश्वकर्मा कहते हैं- ऐसा ही होगा प्रभु। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि परंतु सुदामा के जाने का समय आ गया है इसलिए यह कार्य अतिशीघ्र होना चाहिए। तब विश्वकर्मा कहते हैं- जैसी प्रभु की आज्ञा। विश्वकर्मा वहां से चले जाते हैं।
 
उधर, सुदामा की पत्नी वसुंधरा रात्रि में श्रीकृष्‍ण की मूर्ति के समक्ष नमन कर रही होती है और उसके चारों बच्चे सोए रहते हैं। फिर वह भी खटिया बिछाकर सोने ही वाले रहती है कि तभी वहां विश्‍वकर्मा प्रकट होते हैं। यह देखकर वह अचंभित रह जाती है। वह हाथ जोड़कर घुटनों के बल बैठकर उन्हें नमस्कार करती हैं। विश्‍वकर्मा आशीर्वाद देते हैं और फिर वह कहती हैं- प्रणाम देवता। फिर विश्‍वकर्मा भी हाथ जोड़कर कहते हैं- प्रणाम देवी। फिर वसुंधरा खड़ी होकर कहती हैं- कौन हैं आप और इस गरीब की कुटिया में किस कारणवश पधारे हैं?
 
यह सुनकर विश्‍वकर्मा कहते हैं- देवी मेरा नाम विश्‍वकर्मा हैं। यह सुनकर वसुंधरा प्रसन्न होकर कहती है- देवशिल्पी विश्वकर्मा! फिर वह तुरंत ही खटिया बिछाकर हाथ जोड़कर कहती हैं- कृपया आसन ग्रहण करें। क्षमा करें गरीब की झोपड़ी में तो यही एक साधन हैं। ये टूटी-फूटी खाट आपके योग्य तो नहीं परंतु आप विराजेंगे तो कृपा होगी, आइये।
 
विश्‍वकर्मा मुस्कुराते हुए बैठ जाते हैं और कहते हैं- धन्यवाद देवी। तब वसुंधरा कहती हैं- आज्ञा कीजिये। मैं आपकी क्या सेवा करूं? तब विश्वकर्मा कहते हैं- सेवा तो मैं करने आया हूं देवी। मुझे भगवान श्रीकृष्ण ने आज्ञा दी है कि सुदामा के घर लौटने के पहले इस कुटिया के स्थान पर एक राजमहल का निर्माण करूं।.. यह सुनकर वसुंधरा आवाक रह जाता है तब विश्वकर्मा आगे कहते हैं कि ऐसा राजमहल जैसा भगवान श्रीकृष्ण का अपना राजमहल है।
 
यह सुनकर वसुंधरा आश्चर्य से कहती है- श्रीकृष्ण के राजमहल जैसा राजमहल? तब विश्‍वकर्मा कहते हैं- हां देवी वैसा ही राजमहल। हीरो पन्नों से जगमगाता राजमहल। वैसा ही वैभवशली महल और शानदार महल। यह सुनकर वसुंधरा कहती हैं कि ये उनकी उदारता है जो एक ब्राह्मण मित्र पर अपनी कृपा कर रहे हैं। एक गरीब की कुटिया को राजमहल में बदलना चाहते हैं परंतु।.. विश्वकर्मा पूछते हैं- परंतु क्या देवी? तब वसुंधरा कहती है कि मैं तो सोच रही थी कि भगवान श्रीकृष्ण तो अंतरयामी है। हम गरीबों को क्या चाहिए और क्या नहीं चाहिए। हम क्या स्वीकार कर सकते हैं और क्या नहीं, वो सब जानते हैं। तब विश्वकर्मा कहते हैं कि नि:संदेह वे सब जानते हैं तभी तो वो आपके परिवार के लिए सभी सुख उपलब्ध कराना चाहते हैं। 
 
यह सुनकर वसुंधरा कहती है कि परंतु उन्होंने ये कैसे सोच लिया कि मेरे परिवार में मेरे स्वामी, मेरे बच्चे और केवल मैं ही हूं? यह सुनकर विश्‍वकर्मा कहते हैं- अर्थात देवी? तब वसुंधरा कहती हैं कि अर्थात ये कि किसी मनुष्य का परिवार उसके बाल-बच्चों तक सीमित नहीं होता। उसके परिवार में उसके पड़ोसी, उसके गांववासी, उसके देशवासी सभी सम्मलित होते हैं जिनसे मानव समाज बनता है। यह सुनकर विश्वकर्मा कहते हैं कि तो आप क्या ये कहना चाहती हैं कि ये सारा गांव वृंदापुरी आपका परिवार है?
 
यह सुनकर वसुंधरा कहती हैं- हां विश्‍वकर्मा जी। परिवार उसे कहते हैं जिसके सदस्य स्नेह और सहानुभूति से एक अरसे से जुड़े होते हैं।.. यह सुनकर विश्वकर्मा प्रसन्न हो जाते हैं तब वसुंधरा कहती है कि किसी एक की अंगुली कटती है तो दूसरे को दर्द होता है। एक पड़ोसी भूखा होता है तो दूसरे पड़ोसी को खाना अच्छा नहीं लगता है। किसी एक का झोपड़ा जल उठता है तो दूसरे आग बुझाने के लिए कूद पड़ते हैं। जानते हैं क्यूं? केवल इसलिए कि सभी स्नेह और सहानुभूति की रस्सी में बंधे हुए एक ही परिवार के लोग हैं। वर्षों तक इसी वृंदापुरी वालों ने हमारे भरण-पोषण किया है। मेरे स्वामी ने घर-घर से भिक्षा ली है। हमारी हर श्वास उनकी आभारी है। उनके आभारों का बोझ हमारे दिलों पर हैं। ऐसे में यदि भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से हमारे अच्‍छे दिन आ रहे हैं तो मैं उन्हें कैसे भूल सकती हूं?
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण भावुक होकर कहते हैं- वाह वसुंधरा वाह! रुक्मिणी भी यह सुनकर भावुक होकर कहती है- धन्य हो तुम वसुंधरा धन्य हो तुम, कितनी महान हो तुम। 
 
उधर, फिर वसुंधरा कहती हैं- हे देवता आप ही बताइये, मेरे स्वामी जब द्वारिकाधीश से मिलने निकले थे तो उन्हें भेंट देने के लिए हमारे पास पान-सुपारियां तक नहीं थी। तब मैं ही अपनी पड़ोसन से दो मुट्ठी चावल मांगकर लाई थी। क्या ऐसे पड़ोसियों को इस समय मेरा भूल जाना उचित है।... तब विश्‍वकर्मा कहते हैं- नहीं देवी बिल्कुल नहीं। तब वसुंधरा कहती हैं- नहीं ना? तो फिर यदि मेरे इन्हीं निर्धन पड़ोसियों के टूटे-फूटे झोपड़ों के बीच त्रिलोकीनाथ ने हमारे लिए राजमहल बना दिया तो क्या अच्छा लगेगा? हे स्वर्ग निर्माता वृंदापुरी निर्धनों की बस्ती है। मैं इस नर्क के बीच में आपको केवल अपने लिए स्वर्ग बनाने की अनुमति नहीं दे सकती हूं। इतनी स्वार्थी नहीं हूं मैं। इसलिए आप हमारी ओर से भगवान से सादर ये निवेदन करें कि या तो इस झोपड़ी को यूं ही रहने दें या फिर पहले वृंदापुरी के हर घर को स्वर्ग बनाएं, फिर हमारी कुटिया पर कृपा दृष्टि करें। 
 
यह सुनकर विश्‍वकर्मा कहते हैं- हे देवी मैं अभी भगवान की इच्‍छा पूछता हूं। फिर विश्‍वकर्मा आंख बंद करते हैं तो श्रीकृष्ण कहते हैं- हे स्वर्ग निर्माता वसुंधरा के एक-एक शब्द को हमारा आदेश मानकर वृंदापुरी को स्वर्ग जैसा बना दो।....फिर विश्‍वकर्मा आंखें खोलकर कहते हैं- हे देवी भगवान ने आपनी इच्छा को स्वीकृति दे दी है। यह सुनकर वसुंधरा प्रसन्न हो जाती है। फिर विश्‍वकर्मा कहते हैं कि मुझे शीघ्र ही वृंदापुरी का उद्धार करना होगा। फिर वसुंधरा श्रीकृष्ण की मूर्ति की ओर देखकर उन्हें प्रसन्न और भावुक होकर नमस्कार करती है और कहती है- हे भगवन! आपने मेरी बात मान ली इसका बहुत-बहुत धन्यवाद। 
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं- वाह वसुंधरा तुम्हारे हृदय की विशालता देखकर आत्मा गदगद हो गई। आज तुम मानवता के उच्चतम शीखर पर खड़ी हो। श्रीकृष्ण और रुक्मिणी दोनों ही उसकी प्रशंसा करते हैं। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- परंतु हे देवी हमने अपने आधे चावल का मोल तो चुका दिया है लेकिन दूसरे आधे चावल का मोल आपको भी चुकाना है। याद है ना चावल का वह आधा दाना जो आपको अर्पित किया था? रुक्मिणी कहती हैं- कैसे भूल सकती हूं मैं उस अनमोल भेंट को। प्रभु उसके बदले मैं भी वसुंधरा को एक अमूल्य उपहार अवश्य दूंगी।
 
फिर विश्वकर्मा वसुंधरा और चक्रधर सहित सभी वृंदावासियों के समक्ष प्रकट होकर कहते हैं कि मैं देवशिल्पी विश्‍वकर्मा हूं। चक्रधर कहता है- हे देव हम सभी नगरवासियों की ओर से सादर प्रणाम स्वीकार करें। हे स्वर्ग निर्माता आपके स्वर्गलोक से वृंदापुरी तक आने का क्या प्रायोजन है?
 
तब विश्‍वकर्मा कहते हैं कि मैं भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से वृंदापुरी का नवनिर्माण करने आया हूं। यह सुनकर सभी ग्रामवासियों में हर्ष व्याप्त हो जाता है तब चक्रधर पूछता है कि हे देवता ईश्वर की इस कृपा के हम आभारी हैं परंतु आप ये बताने का कष्ट करें कि इस कृपा कारण क्या है? 
 
तब विश्‍वकर्मा कहते हैं इसका कारण है भक्तराज सुदामा। यह सुनकर सभी ग्रामवासी अचंभित होकर कहते हैं- सुदामा!...फिर वसुंधरा की ओर सभी देखने लगते हैं। यह देखकर अपने बच्चों के साथ वहां खड़ी वसुंधरा प्रसन्न हो जाती है।.. आगे विश्‍वकर्मा कहते हैं कि द्वारिकाधीश अपने मित्र सुदामा को एक अनोखी भेंट स्वरूप उनकी कुटिया के स्थान पर एक राजमहल का नवनिर्माण कराना चाहते थे परंतु उनकी पत्नी देवी वसुंधरा ने इसकी आज्ञा नहीं दी। देवी वसुंधरा की इच्‍छा है कि पहले वृंदापुरी के हर वासी के घर को महल बनाया जाए फिर वह अपनी कुटिया को महल बनाने की आज्ञा देंगी। अत: भगवान श्रीकृष्ण ने देवी वसुंधरा की ये इच्‍छा भी स्वीकार कर ली है। यह सुनकर सभी ग्रामीण वाह-वाह करने लगते हैं।
 
एक महिला कहती है- वसुंधरा बहन तुमने तो कमाल कर दिया। तब दूसरी कहती है- अरे सखी कमाल नहीं, निहाल कर दिया। सभी ग्रामीण खुश होकर पूछते हैं- क्या अब हम सबके घर राजमहल बन जाएंगे? तब दूसरा प्रसन्न होकर कहता है- अरे अवश्य देवशिल्पी के कथन में शंका कैसी। 
 
फिर देवशिल्पी विश्वकर्मा अपनी माया से सभी के झोपड़ों को महल में बदलना प्रारंभ करते हैं तो लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं रहता है। सब एक दूसरे से कहते हैं अरे देखो मेरा घर भी राजमहल बन गया। आओ अंदर से देखते हैं। पूरा गांव खुशी से झूम उठता है। चक्रधर वसुंधरा और उनके बच्चों के पास ही खड़ा हुआ या चमत्कार देखता रहता है। अंत में सभी के झोपड़े भव्य महल में बदल जाते हैं। जय श्रीकृष्णा। 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 

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