निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 1 सितंबर के 122वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 122 ) में संभरासुर अपने सेवक और भानामति के पति भाणासुर की जब गर्दन काट देता है तो उसकी मुंडी यज्ञकुंड में जाकर गिरती है तो गुरुदेव कहते हैं कि तुमने मेरा यज्ञ भंग कर दिया और अब मैं तुम्हें अमृत्व प्रदान नहीं कर सकता। तब कालपुरुष भी आकर गुरुदेव को उपदेश देता है कि मैंने पहले ही चेतावनी दी थी कि मृत्यु अटल है। फिर गुरुदेव कालपुरुष से कहते हैं कि इसलिए मैं आत्मदाह करके मैं स्वयं आपको समर्पित करता हूं। मेरा अंतिम प्रणाम स्वीकार कीजिये मृत्युदेव। यह कहकर वे मंत्र द्वारा अग्नि प्रज्वलित करके भस्म हो जाते हैं और संभरासुर गुरुदेव गुरुदेव करता रह जाता है।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
फिर संभरासुर अपने महल में जाकर अपनी पत्नी के समक्ष खुद को ही क्रोधित होकर कोसने लगता है कि मैं मूर्ख हूं। मैंने मूर्खता की है मायावती। हां मायावती भाणासुर ने मुझसे सचाई छुपाई थी इसलिए मैंने उसका वध किया और उसकी गर्दन हवन कुंड में गिर गई और सारा खेल बिगड़ गया मायावती।.. यह सुनकर मायावती कहती है- ये आपने बहुत बुरा किया स्वामी, ये आपने ठीक नहीं किया।..
फिर संभरासुर कहता है कि गुरुदेव ने पहले ही कहा था कि ये बालक अशुभ है। मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी जो गुरुदेव की बात नहीं मानी। फिर वह कहता है- मायावती ये पुत्र उसी दिन मिला था जिस दिन वह बड़ी मछली मिली थी। जिस दिन हमें वह बड़ी मछली मिली थी उसी दिन मैंने कृष्ण पुत्र को समुद्र में फेंक दिया था। अब सारी बात मेरी समझ में आ गई है कि ये सबकुछ कृष्ण की माया है। देवताओं की चाल है चाल। मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई। तब मायावती कहती है- परंतु महाराज आपको उस भूल को सुधारना होगा और आपको उस बालक का वध करना ही होगा। तब वह कहता है- अवश्य मायावती अवश्य। उसे ढूंढने के लिए मैं अपनी सारी शक्तियां लगा दूंगा।
फिर संभरासुर दूसरे कक्ष की गैलरी में जाकर आसमान की ओर देखकर कहता है- हे विकटासुर प्रकट हो जाओ, तुरंत प्रकट हो जाओ। वहां पर एक भयंकर और विशालकाय राक्षस प्रकट होकर कहता है- क्या आज्ञा है मेरे लिए असुरेश्वर। यह सुनकर संभरासुर कहता है- हे विकटासुर मेरा शत्रु बालक प्रद्युम्न रसायन विद्या से युवक बन रहा है तुम अपनी सारी आसुरी शक्तियों का प्रयोग करके जहां कहीं भी हो उसे ढूंढ निकालो और तुरंत उसका वध कर दो। मैं एक पल भी उसे जीवित नहीं देखना चाहता.. जाओ। यह सुनकर विकटासुर वहां से चला जाता है। इसके बाद संभरासुर अपने पुत्र कुंभकेतु और सेना को भी यही आदेश देता है कि प्रद्युम्न और भानामति को ढूंढ निकालो और उन्हें बंदी बनाकर लाओ।
श्रीकृष्ण यह देख लेते हैं और फिर उधर, प्रद्युम्न पर रसायन विद्या का प्रयोग जारी रहती अंत में प्रद्युम्न को एक बार फिर से कमल की पंखुड़ियां ढंक लेती हैं। फिर भानामति तप करती है और उसके बाद पु:न पंखुड़ी खुलती है तो उसमें से युवा प्रद्युम्न निकलता है जिससे देखकर भानामति सहित सभी प्रसन्न हो जाते हैं। प्रद्युम्न उस कमल के फूल पर खड़ा हो जाता है और सभी देवी एवं देवताओं को प्रणाम करता है। तब अश्विनी कुमार, गंधर्वदेव, नागदेव और यक्षदेव उसे आशीर्वाद देते हैं। फिर ब्रह्माजी उसे सभी तरह का ज्ञान देते हैं। फिर सभी देवियां आसमान से उसके उपर फूल बरसाती हैं। भानामति ये देखकर प्रसन्न हो जाती है तब प्रद्युम्न भानामति को प्रणाम करता है तो वह उसे आशीर्वाद देती हैं और तब कहती है- पुत्र प्रद्युम्न जिन देवताओं के सहारे मैंने तुम्हें युवावस्था प्रदान की है उन सबको प्रणाम करो पुत्र। प्रद्युम्न कहता है- जो आज्ञा माताश्री।.. यह देखकर रुक्मिणी भी भावुक हो जाती है।
फिर प्रद्युम्न यक्ष देवता को प्राणाम करते हैं तो वे कहते हैं कि एक अलौकिक कार्य तुम्हारे हाथ से प्रदान होने वाले हैं जिसके लिए मैंने तुम्हें यक्ष विद्या प्रदान की है। फिर प्रद्युम्न गंधर्वदेव को प्रणाम करता है तो वे कहते हैं- मैंने तुम्हें गंधर्व विद्या प्रदान की है। फिर नाग देवता कहते हैं- मैंने तुम्हें तुम्हारे कार्य की सफलता के लिए सहस्र नागों का बल प्रदान किया है। मैंने तुम्हें वरदान दिया है कि तुम्हें किसी सर्प या नाग से भय नहीं लगेगा और ना ही उनके विष का तुम पर प्रभाव पड़ेगा। फिर सभी देवता वहां से चले जाते हैं।
फिर प्रद्युम्न अपनी माता भानामति से पूछता है- माताश्री! सभी देवता किस कार्य की सफलता के लिए कह रहे थे? तब भानामति कहती है- पुत्र प्रद्युम्न उचित समय आने पर तुम्हें सबकुछ बता दिया जाएगा। तब वह पूछता है कि वह उचित समय कब आएगा माताश्री? तब भानामति कहती है- शीघ्र ही।...
तभी भानामति देखती है कि संभरासुर के कुछ सैनिक उस स्थान के नजदीक आ गए हैं तो वह अपनी माया से उन सभी सैनिकों को वहां से तूफान पैदा करके भगा देती हैं। यह देखकर प्रद्युम्न हाथ जोड़कर कहता है- कितनी सहजता से आपने उन सैनिकों को भ्रम में डाल दिया। माताश्री क्या आप मुझे इस विद्या की शिक्षा देंगी? यह सुनकर भानामति कहती है- अवश्य पुत्र। यह मायावी विद्या है पुत्र और ये विद्या तुम्हें अवश्य ही सिखनी होगी। पुत्र इस पृथ्वीलोक पर कई मायावी रहते हैं। उनसे सामना होने पर तुम्हें एक मायावी विद्या का ही प्रयोग करना होगा। पुत्र ये त्रिलोक एक रणभूमि है। यहां हर समय हर पल कोई ना कोई युद्ध चलता ही रहता है। युद्ध केवल शस्त्रों का ही नहीं होता, कभी-कभी यहां भाव और भावनाओं का भी युद्ध होता है।
यह सुनकर प्रद्युम्न कहता है भाव और भावना? क्या स्नेह के संबंध आड़े नहीं आएंगे माताश्री? फिर भानामति कहती है कि पुत्र संसार में संबंधों की बेड़ियां मानवों को बुरी तरह से जकड़कर रखती हैं। युद्ध हो या धर्मयुद्ध इसे जीतने के लिए सबसे पहले इन बेड़ियों को तोड़ना पड़ता है। पुत्र यदि मेरी ममता भी तुम्हें युद्ध भूमि में आगे बढ़ने से रोके तो तुम्हें इसे भी त्याग देना चाहिये। जो मोह-माया के चक्र में फंस जाते हैं वे युद्ध में असफल हो जाते हैं पुत्र।
उधर, रुक्मिणी कहती है श्रीकृष्ण से कि क्या प्रद्युम्न से मिलने नहीं जाएंगे हम? आपने तो प्रद्युम्न की सुरक्षा का प्रबंध भी नहीं किया। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- देवी भानामति प्रदयुम्न की सुरक्षा का कवच है। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है कि परंतु प्रद्युम्न भानामति के पास नहीं हमारे पास सुरक्षित रहेगा। मेरा प्रद्युम्न से मिलना आवश्यक है भगवन। इस पर श्रीकृष्ण पूछते हैं- वो किसलिए देवी? तब रुक्मिणी कहती है कि मैं उसकी मां हूं। इतने दिनों तक तो दिल पर पत्थर रख लिया था मैंने पर अब प्रद्युम्न से मिले बगैर नहीं रहूंगी मैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप फिर से पुत्र मोह के चक्रव्यूह में फंस रही हैं देवी। देवी आप अशांत क्यों होती है त्रिलोक का कल्याण करने के बाद प्रद्युम्न अवश्य आएगा। जरा आप सोचिये आप इतनी बेचैन हैं तो देवी रति कितनी बेचैन होगी?
उधर, देवी रति खुशी के मारे नारदमुनि का हाथ पकड़कर नृत्य करने लगती है। यह देखकर नारदमुनि कहते हैं- नारायण नारायण। देवी रति ये आप क्या कर रही हैं, हाथ छोड़ दीजिये मेरा। देवी रति प्रद्युम्न के युवक बन जाने की खुशी मैं आप पागल हो गई हैं। यह सुनकर देवी रति हंसते हुए कहती हैं- हां ऋषिवर। मुझे तो लगता है कि ये खुशी मैं सहन ही नहीं कर पाऊंगी। सचमुच ही पागल हो जाऊंगी। आपने देखा नहीं युवक प्रद्युम्न तो साक्षात कामदेव का रूप है। मेरा वो सुहाग जिसके दर्शन करने के लिए मैंने युगों-युगों से प्रतीक्षा की थी। मेरे पति परमेश्वर का शरीर वापस मिल गया है और मैं उनके बगैर व्याकुल ना होऊं ये कैसे हो सकता है। अब तो मैं उनसे मिले बगैर रुक नहीं सकती। ऐसा कहकर देवी रति वहां से चली जाती है।
देवी रति वहां उस उद्यान में पहुंच जाती है जहां पर प्रद्युम्न अपने धनुष पर बाण चढ़ाकर किसी लक्ष्य को साथ रहा होता है। देवी रति एक फूलों की झाड़ी की आड़ से उसे देखती है। देवी रति प्रद्युम्न को उपर से नीचे तक देखती है।
फिर वह फूलों पर फूंक मारकर अपनी माया से प्रद्युम्न के धनुष और बाण को फूलों से सजा देती है। यह देखकर प्रद्युम्न को आश्चर्य होता है। तब देवी रति जोर-जोर से हंसने लगती है। देवी रति की हंसी की आवाज सुनकर प्रद्युम्न कहता है- कौन, कौन है? ये मधुर हंसी किसकी है? यह सुनकर देव रति झाड़ के पीछे से ही कहती है कि आप ही ढूंढ निकालिये की ये मधुर हंसी किसकी है।
फिर प्रद्युम्न पूछता है- हे सुंदरी कौन हैं आप? क्या नाम है आपका? फिर देवी रति हाथ में फूलों का धनुष और बाण लेकर कहती है आइये आप मेरे साथ आइये मैं आपको मेरा नाम बताऊंगी। फिर वह प्रद्युम्न के सीने पर वह बाण चला देती है तो प्रद्युम्न मदहोश होकर एक महल में पहुंच जाता है जहां पर देवी रति उसके समक्ष खड़ी होती है। प्रद्युम्न चारों ओर देखकर कहता है- ये कहां ले आई मुझे, ये कौन सी जगह है? ये सब मुझे जाना पहचाना-सा क्यों लग रहा है? तब रति कहती है- क्योंकि ये आप ही का महल है। यह सुनकर प्रद्युम्न आश्चर्य से पूछता है- मेरा महल? तब देवी रति कहती है- हां स्वामी। यह सुनकर प्रद्युम्न कहता है- स्वामी! आप मुझे स्वामी क्यों कह रही हैं?...
फिर देवी रति प्रद्युम्न को उनके पिछले जीवन की याद दिलाती है और कहती है कि आप कामदेव हैं और मैं आपकी पत्नी रति हूं। शिवजी की तपस्या भंग करने के कारण क्रोधित होकर उन्होंने आपको भस्म कर दिया था।... फिर प्रद्युम्न को सबकुछ याद आ जाता है कि वे किस तरह भस्म हो गए थे। फिर प्रद्युम्न देवी रति को अपने सीने से लगाकर कहते हैं- देवी रति।
उधर, प्रद्युम्न की माता भानामित उन्हें ढूंढती है और प्रद्युम्न को पुकारती है और सोचती है कि कहां गया होगा। वह व्याकुल होकर चारों तरफ पुकारती है और जगह-जगह ढूंढती है। वह व्याकुल होकर खुद से ही कहती हैं कि कहां गया होगा, अब मैं उसे कैसे समझाऊं की संभरासुर के मायावी राक्षस उसे ढूंढ रहे होंगे। कहीं संभरासुर उसे उठाकर तो नहीं ले गया होगा? आखिर में सभी जगह ढूंढने के बाद वह थक-हारकर वह रोते हुए कहती है- हे प्रभु मुझे क्षमा कर दो प्रभु। मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा सकी। मैं आपकी अक्षम्य अपराधी हूं। आखिर संभरासुर प्रद्युम्न को उठाकर ले ही गया। अभी तक तो मैंने प्रद्युम्न को मायावी विद्या भी नहीं दी है। फिर वह संभरासुर का सामना कैसे कर पाएंगा।
यह देखकर देवी रुक्मिणी वहां प्रकट होकर कहती है- भानामति रोने की कोई आवश्यकता नहीं है, प्रद्युम्न सुरक्षित है। यह सुनकर भानामति कहती है- सुरक्षित है तो कहां है? मैं तो अपनी मायावी विद्या से उसे हर जगह ढूंढने का प्रयास कर चुकी हूं परंतु वह कहीं दिखाई नहीं दिया।....फिर रुक्मिणी कहती है कि तुम्हारी मायावी विद्या देव विद्या के सामने प्रभावी नहीं है। देवी रति उसे देवलोक ले गई हैं। देवी रति युगों-युगों से कामदेव की प्रतीक्षा कर रही थीं। प्रद्युम्न को युवावस्था प्रदान करने के बाद उससे रहा नहीं गया। वह अपनी देवी विद्या से उसे देवलोक ले गई है। तुम बिल्कुल चिंता न करो भानामति प्रद्युम्न बिल्कुल सुरक्षित है और उसका और देवी रति का मिलन भी हुआ है। यह सुनककर भानामति निश्चिंत हो जाती है और प्रणाम करती है।
उधर, देवी रति और प्रद्युम्न रूप कामदेव का मिलन नृत्य बताया जाता है।... इधर, देवर्षि नारदमुनि श्रीकृष्ण के पास पहुंच जाते हैं तो श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब युद्ध अंतिम चरण में पहुंच जाता है तो योद्धा को विश्राम नहीं करना चाहिये। योद्धा को सतर्क हो जाना चाहिए। और शत्रु का बल स्थान जानकर वह बल स्थान नष्ट कर देना चाहिये। परंतु यहां तो हमारा सेनापति सबकुछ भूलकर दूरस्थ विश्राम कर रहा है।
यह सुनकर देवर्षि कहते हैं- अब आप ही बताइये भगवन! रति और कामदेव का मिलन कैसे समाप्त किया जाए? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि देवर्षि संभरासुर से युद्ध करने के पहले प्रद्युम्न को भानामति से मायावी विद्या भी ग्रहण करनी है। आप तो देख ही रहे हैं कि संभरासुर के मायावी असुर प्रद्युम्न को किस तरह ढूंढ रहे हैं। समय की मांग को आप प्रद्युम्न को समझाइये। उसका पृथ्वीलोक पर जन्म किसलिए हुआ है और शिवजी ने उसे द्वापर युग में शरीर धारण करने का वरदान क्यों दिया है ये भी उसे बताइये। संभरासुर उसे हर तरह से नष्ट करने का प्रयास करेगा देवर्षि। इसलिए आप प्रद्युम्न और रति को उपदेश दीजिये। यह सुनकर देवर्षि नारदमुनि कहते हैं- जैसी आपकी आज्ञा प्रभु। जय श्रीकृष्णा।
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