Shri Krishna 18 July Episode 77 : भीष्म पूछते हैं विदुर से पांडवों का राज, भीम कर देता है राक्षस का वध

अनिरुद्ध जोशी
शनिवार, 18 जुलाई 2020 (22:10 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 18 जुलाई के 77वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 77 ) में शकुनि के षड्‍यंत्र के तहत लाक्षागृह में आग लगा दी जाती है परंतु विदुर की नीति के चलते कुंती सहित पांचों पांडवों को वज्रदत्त उस आग से बचाकर एक सुरंग द्वारा बाहर निकाल लाता है और उन्हें एक नाव में नदी के उसे पास भेज देता हैं। इधर शकुनि रोते हुए यह समाचार महाराज धृतराष्ट्र और गांधारी को सुनाता है कि कुंती सहित पांचों पांडव जलकर मारे गए। अब आगे...
 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
धृतराष्ट्र एवं गांधारी के साथ ही शकुनि झूठमूठ का रोकर विलाप करता है। शकुनि अग्निकांड की सारी घटना को विस्तार से सुनाता है और कहता है कि हमारे सैनिकों ने उन्हें बचाने की बहुत कोशिश की और नगरवासियों ने भी बहुत कोशिश की लेकिन आग इतनी प्रचंड थी कि कोई कुछ नहीं कर सका और केवल राख बची। बचे तो केवल कुंती और उसके पांच पुत्रों के कंकाल। गांधारी ये सुनकर बेहोश हो जाती है। 
 
उधर, बलराम के समक्ष श्रीकृष्ण ध्यान में बैठे यह सब घटनाक्रम देख रहे थे तभी वहां पर अक्रूरजी आकर रोते हुए कहते हैं कि एक बड़ा दुखद समाचार है प्रभु। बलराम कहते हैं क्या हुआ अक्रूरजी, कौनसा दुखद समाचार है? अब अक्रूजी कहते हैं कि वारणावत में एक भीषण आग में पांचों पांडव अपनी माता कुंती सहित जल गए। यह सुनकर बलराम घबरा जाते हैं और दुखी हो जाते हैं लेकिन श्रीकृष्‍ण मुस्कुराते रहते हैं। बलराम रोते हुए कहते हैं कन्हैया कुछ सुना तुमने। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां दाऊ भैया सुन लिया। यह समाचार यदि सत्य है तो अन्यंत दुखदायी है।
 
इस पर अक्रूरजी कहते हैं कि मेरे विश्वस्त गुप्तचर अभी-अभी हस्तिनापुर से आए हैं। महाराज धृतराष्ट्र और राजपरिवार के अन्य सदस्य उनका श्राद्ध करने के लिए यमुना तट पर जाने वाले हैं। इसलिए मैं आपको यह सूचना देने आया था कि आपको भी अपनी बुआ और उनके पुत्रों को जलांजलि देने उनके साथ जाना चाहिए।
 
कृष्‍ण कहते हैं- वहां जाने की क्या आवश्यता है? इस पर बलराम कहते हैं वहां जाने की आवश्यकता इसलिए है कन्हैया कि वहां जाकर शोकाकुल लोगों को कुछ सांत्वना दी जाए। ऐसे दुख के समय में किसी का दुख बांटने से उसे बहुत सहारा मिलता है। इस पर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- ये तो ठीक है दाऊ भैया परंतु दुख तो उसके साथ बांटा जाता है जो दुखी हो लेकिन वहां कौन दुखी है? राजपरिवार में कौन ऐसा होगा जो पांडवों के मरने कर शोकातुर होगा? यह सुनकर बलराम आश्चर्य से कहते हैं क्या?
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं- हां दाऊ भैया। उन सबका दुख केवल एक दिखावा है। यहां तक स्वयं महाराज धृतराष्ट्र के मन में भी एक छिपी हुई प्रफुल्लता सी होगी।...ऐसा कहकर श्रीकृष्ण हंसते हुए पलंग पर से उठकर खड़े हो जाते हैं और फिर कहते हैं। वास्तव में दाऊ भैया यही संसार की रीति है कि मरने वाले के लिए कोई भी नहीं रोता। पति-पत्नी, भाई-बहन, बेटा-बेटी सब अपने-अपने नुकसान के लिए रोते हैं और केवल उतना ही रोते हैं जितना उनको निजी तौर पर नुकसान होता है। बस, अन्यथा मरने वाले के लिए तो न किसी को चिंता होती है और ना ही कोई रोता है। कोई भी नहीं केवल एक को छोड़कर। 
 
तब बलरामजी पूछते हैं वो एक कौन? तब श्रीकृष्ण कहते हैं मां। मां का दुख नि:स्वार्थ होता है। केवल मां की पीड़ा निश्चल होती है और किसी की भी नहीं। सो जो सचमुच दुख करने वाली थी वो बैचारी तो अक्रूरजी की सूचना के अनुसार उनके साथ ही चली गई तो अब हम वहां किसका दुख बांटने जाएं?
 
तब बलराम कहते हैं- समझ में नहीं आता कन्हैया ये सब कैसे हुआ, क्यों हुआ? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं क्यों का तो केवल एक ही उत्तर है भैया कि जिसका जन्म हुआ है उसे एक-न-एक दिन मृत्यु भी अवश्य आएगी। सो इस मृत्युलोक में किसी का मरना कोई नई बात नहीं और न कोई विचित्र बात है। ऐसा कहकर श्रीकृष्ण मुस्कुराते हुए पुन: पलंग पर विश्राम मुद्रा में लेट जाते हैं। 
 
यह सुनकर बलराम कहते हैं कि वह बात विचित्र नहीं है लेकिन मैं जो अब देख रहा हूं वह अवश्य विचित्र बात है। इस पर श्रीकृष्‍ण कहते हैं ऐसी कौनसी विचित्र बात देख रहे हैं आप भैया? तब बलराम कहते हैं कि मैं देख रहा हूं कि बुआ कुंती और पांचों पांडवों के मरने का तुम्हें कोई दुख नहीं है। इस पर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- हां भैया ये समाचार सुनकर हमें कोई दुख नहीं हुआ।...तब बलराम कहते हैं लेकिन क्यूं?
 
क्योंकि शास्त्रों में भी ऐसा ही लिखा है कि प्रत्येक प्राणी की मृत्यु निश्चित होती है। सो ज्ञानी मनुष्य को किसी की मृत्यु पर शोक नहीं करना चाहिए। इस पर बलराम कहते हैं ज्ञानी मनुष्य? तुम भगवान से मनुष्य कब बन गए? यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- मुझे भगवान से मनुष्य तो आप ही ने बना दिया भैया।...बलराम कहते हैं मैंने, कब से? 
 
श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि जबसे आपने मुझसे ये आशा की कि सगे-संबंधियों की मृत्यु पर मुझे भी एक साधारण मनुष्य की तरह शोक करना चाहिए।..इस पर बलराम कहते हैं कि नहीं मैंने तो भगवान की तरह शोक करने की आशा की है क्योंकि भगवान भी अपने भक्त के दुख के कारण तड़प उठते हैं। अगर उनके किसी भी भक्त पर विपदा आन पड़े तो वो भी तड़फ उठते हैं और अर्जुन तो आपका परम भक्त है और सखा भी जिसकी रक्षा का वचन आप उसके पिता इंद्र को दे चुके हैं। आपके भक्त की मृत्यु हो जाए और आप न तड़पे, विव्हल ना हो ये संभव नहीं है। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- परंतु जिसकी रक्षा का वचन हमने दिया है उसकी मृत्यु कैसे हो सकती है, ये आपने नहीं सोचा भैया?..यह सुनकर बलराम और अक्रूरजी चौंककर प्रसन्न हो जाते हैं और श्रीकृष्ण के मुस्कुराते चेहरे को आश्चर्य से देखते रहते हैं। 
 
उधर, द्रोणाचार्य से भीष्म पितामह कहते हैं कि नहीं-नहीं, ये नहीं हो सकता। मुझे इस बात पर विश्वास नहीं होता कि पांचों पांडव अपनी माता के समेत उस मकान में जलकर मर गए हैं। आचार्य आप तो अपने शिष्यों को जानते हैं। अर्जुन और भीम क्या एक ऐसे जलते हुए मकान के अंदर जलकर मर सकते हैं? मैं यह मानने को तैयार नहीं। तब द्रोणाचार्य कहते हैं परंतु वो जो छह कंकाल मिले हैं उस प्रमाण को हम कैसे झुठला सकते हैं?...
 
भीष्म कहते हैं- यही एक प्रमाण है जिसका मैं खंडन नहीं कर सकता।..एक बार मेरे भ्रात पूज्य वेद व्यासजी ने मुझसे कहा था कि इंद्र पुत्र अर्जुन सारे संसार को विजयी करके अपने बड़े भाई युधिष्ठिर को चक्रवर्ती राजा बनाएगा और ज्योतिष विद्या के अनुसार अर्जुन की जन्मकुंडली भी यही कहती है। आचार्य! तो आचार्य वेद व्यास का वचन कैसे झूठा हो सकता है? ज्योतिष शास्त्र कैसे झूठा हो सकता है? इस पर द्रोणाचार्य कहते हैं कि कभी-कभी गणित में भी भूल हो सकती है।
 
दोनों में देर तक इस पर चर्चा होती है और बाद में भीष्म कहते हैं कि हां ये हो सकता है कि उन्हें भोजन में विष देकर पहले मार डाला गया हो और उसके बाद उस मकान को आग लगाकर जला दिया गया हो। द्रोणाचार्य कहते हैं- हां ये सत्य हो सकता है। तब भीष्म कहते हैं- कितना भयंकर षड्यंत्र रचा गया होगा। कितना भयंकर षड्यंत्र..परंतु विस्मय की बात तो यह है कि विदुर के गुप्तचर विभाग को भी इसका पता नहीं चला।... यह सुनकर द्रोणाचार्य कहते हैं जो कुछ भी हुआ उसका परिणाम यह होगा कि अब दुर्योधन को युवराज बनाया जाएगा। तब भीष्म कहते हैं- हां और अब हमें उसे स्वीकार करना होगा।
 
उधर, दुर्योधन और शकुनि इस घटना पर जमकर खुशी मनाते हैं।...बाद में भीष्म पितामह विदुर से कहते हैं कि मैं तुमसे एक ही सीधा-सा प्रश्न पूछना चाहता हूं विदुर कि क्या सचमुच वारणावत में आग लगने से पांडवों की मृत्यु हो गई है? या, क्या वारणावत के उस मकान में आग स्वयं अपने आप लग गई थी?
 
विदुर इस प्रश्न पर चुप रह जाते हैं तो भीष्म कहते हैं देखो यदि सत्य जानते हो तो साफ-साफ बताओ और सत्य नहीं जानते हो तो अपने अनुमान से बताओ। बस इतनी-सी बात का उत्तर दो।.. इस पर विदुर कहता है कि तातश्री मैं अच्छी तरह जानता हूं कि उस मकान में आग अपने आप नहीं लगी।...भीष्म कहता है अर्थात आग लगाई गई? विदुर कहते हैं जी।
 
भीष्म कहते हैं- अब दूसरा प्रश्न, जिस समय आग लगाई गई उस समय पांडव अंदर थे? तब विदुर कहते हैं जी।...और वे जीवित थे या उन्हें मारकर वहां फेंक दिया गया था? विदुर कहते हैं जीवित थे और अंदर थे।....जीवित थे तो होश में थे या बेहोश थे?...विदुर कहते हैं होश में थे।.. इस पर भीष्म कहते हैं- नहीं ये झूठ है। विदुर तुम अच्छी तरह जानते हो कि भीम के शरीर में दस हजार हाथियों का बल है। उसकी एक ही मुष्ठी के प्रहार से उस मकान की दीवारें टूट सकती थी। फिर वह उन दीवारों को तोड़कर बाहर क्यों नहीं निकल आए क्या वे दीवारें लोहे की बनी हुई थी? 
 
यह सुनकर विदुर कहता है जी नहीं तातश्री! वह दीवारें लोहे की नहीं, वह दीवारें लाख की बनी हुई थी। इसलिए उसमें आग लगते ही क्षणभर में सबकुछ जलकर नष्ट हो गया।... भीष्म कहते हैं- अर्थात एक लाक्षागृह बनाकर उनकी हत्या की गई।...यह सुनकर विदुर कहते हैं जी नहीं, हत्या नहीं की गई, केवल हत्या का प्रयास किया गया। यह सुनकर भीष्म कहते हैं कि तुम कहना क्या चाहते हो विदुर?
 
तब विदुर कहते हैं कि शत्रु ने हत्या करने की पूरी कोशिश की परंतु हमें ठीक समय पर पता चल गया इसलिए उनकी योजना सफल ना हो सकी। वे सभी जिंदा और सुरक्षित हैं तातश्री।...
 
यह सुनकर भीष्म अति प्रसन्न हो जाते हैं और विदुर से कहते हैं कि इस कार्य से मैं अति प्रसन्न हूं विदुर इसके लिए तुम जो चाहे मुझसे मांग लो।.. यह सुनकर विदुर कहते हैं कि मैं जानता हूं कि आपके वचनों में शक्ति है इसलिए ये वर दीजिये की भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में मेरी भक्ति सदैव स्थिर बनी रहे। यह सुनकर भीष्म कहते हैं वाह विदुर धन्य हो तुम और तुम्हारी भक्ति। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि प्रभु के चरणों में तुम्हारी भक्ति सदैव बनी रहे और मेरी भक्ति का कोई फल यदि है तो वह भी तुम्हें प्रदान करें। यह घटना श्रीकृष्ण अपनी माया से देख रहे होते हैं।

श्रीकृष्ण को देखकर बलरामजी कहते हैं- कन्हैया कहां खो गए थे? तब श्रीकृष्ण कहते हैं क्या बात है? तब बलराम जी कहते हैं कि उस दिन तुमने बताया था कि पांचों पांडव जीवित हैं परंतु यह नहीं बताया कि वे हैं कहां? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि वे जहां भी हैं सुरक्षित हैं। तब बलरामजी कहते हैं परंतु वे किस अवस्था में हैं? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं अवस्था, देखो ना भैया भाग्य की कैसी विडंबना है कि जिन्हें एक दिन इस पृथ्वी का चक्रवर्ती सम्राट बनना है वे आज भिखारियों की भांति गांव-गांव भिक्षा मांग रहे हैं। वे इस समय हस्तिनापुर की सीमा पार करके पांचाल की धरती पर ब्राह्मणों के एक नगर में पहुंच गए हैं।
 
उधर, युधिष्ठिर को भिक्षा मांगते हुए बताया जाता है। नकुल और सहदेव आकर कहते हैं बड़े भैया-बड़े भैया आज हमें भिक्षा में खीर मिली है, खाने में बड़ा आनंद आएगा। तब सहदेव कहता है खीर मुझे खाने को नहीं मिलेगी। तब युधिष्ठिर पूछते हैं क्यों? इस पर नकुल कहते हैं क्योंकि भीम भैया छोड़ेंगे तब ना, खीर उन्हें अतिप्रिय है। यह सुनकर युधिष्ठिर मुस्कुराते हुए कहते हैं चिंता मत करो मैं तुम दोनों के लिए भीम से थोड़ीसी खीर ले लूंगा, ठीक है अब चलें?
 
पांचों पांडव भिक्षा लेकर एक कुटिया के पास पहुंचकर कहते हैं- मां हम भिक्षा ले आएं हैं। कुटिया के भीतर बैठी माता कुंती यह सुनकर कहती है कि पांचों बांटकर खा लो। इस पर युधिष्ठिर कहते हैं- पर बांटना तो आपको ही पड़ेगा ना। यह सुनकर कुंती कहती है अच्छी बात है तुम लोग स्नान कर लो मैं आती हूं। युधिष्ठिर कहते हैं- अच्छा माताश्री।
 
फिर माता कुंती सभी को बांटकर भोजन खिलाती हैं। कुंती कहती है- इस लड्डू को न देखो अर्जुन, इस लड्डू को मैं नकुल और सहदेव को दूंगी। तब अर्जुन कहता है और भीम भैया को पूरा लड्डू दे दिया। तब कुंती कहती है- हां जो भी भोजन होता है उसके आधे हिस्से पर भीम का ही अधिकार होता है। यह सुनकर भीम कहता है- हां मेरे हिस्से पर नजर मत डालो वर्ना तुम्हारा हिस्सा भी खा जाऊंगा। यह सुनकर सहदेव कहता है कि अर्जुन भैया आप मेरे हिस्से का लड्डू ले लो। तब अर्जुन कहता है कि रहने दो बचुआ हम छोटे भाईयों का हिस्सा नहीं लेते। यह सुनकर भीम कहता है और बड़े भाइयों से कुछ मिलने वाला नहीं। तब अर्जुन कहता है कि बस यही कष्ट है मंझले होने का। छोटे से अन्याय नहीं कर सकते और बड़े का अत्याचार सहना पड़ता है। यह सुनकर सभी हंसने लगते हैं।
 
तभी सभी सुनते हैं कि पास वाली कुटिया से एक महिला का रुदन सुनाई दे रहा है जो यह कहती है कि नहीं-नहीं भगवान के लिए आप हम पर दया कीजिये, मैं विधवा हो जाऊंगी, मेरे बच्चे अनाथ हो जाएंगे।...यह सुनकर पांचों भाई माता कुंती के साथ उस कुटिया के द्वार जाकर खड़े होकर सुनने लगते हैं- एक महिला तीन लोगों से कह रही है कि आप इन्हें ले जाओगे तो मेरे बच्चों का जीवन तबाह हो जाएगा। अभी मेरी पुत्री का विवाह भी नहीं हुआ और मेरा पुत्र भी अभी बहुत छोटा है। आपको हम पर दया नहीं आती?
 
तब एक आदमी कहता है कि हमें तुम पर बहुत दया आती है लेकिन हम विवश है। यह दुख तो सारे नगर का एक जैसा ही है। जिस दिन जिसकी बारी आती है उस दिन उसके घर में ऐसा ही कोहराम मच जाता है। यह सुनकर उस महिला का पति कहता है कि परंतु क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मेरी बारी एक वर्ष के लिए टाल दी जाए? ताकि मैं अपनी जवान लड़की का विवाह कर सकूं। इसलिए मुझे एक साल की मौहलत दे दो, ये मेरी पुत्री की रक्षा का प्रश्न है। 
 
तब एक दूसरा वृद्ध आदमी रोते हुए कहता है गंगाधरजी ये केवल आपकी एक पुत्री का प्रश्न नहीं है बल्कि इस नगर की हजारों ऐसी पुत्रियों का प्रश्न हैं। आज हर एक घर की यही परिस्थिति है तो फिर कौन जाएगा उस राक्षस का भोजन बनने के लिए? फिर वह पहला वाला कहता है कि गंगाधरजी आप भी तो थे उस सभा में जिसमें उस नरभक्षी राक्षस के साथ ये समझौता किया गया था जिसमें उसने कहा था कि यदि नगर वाले मुझे एक छकड़ा अनाज, दस मटके दूध के और एक आदमी हर रोज खाने के लिए यदि स्वयं मेरे पास आकर दे जाएंगे तो मैं ओर किसी नगर वासी को और कुछ नहीं कहूंगा। परंतु जिस दिन मुझे यह खुराक नहीं मिली। उस दिन सारे नगर में लहू की नदियां बहा दूंगा। तब हम सबने मिलकर यह तय किया था कि बारी-बारी से एक आदमी हर घर से जाएगा। 
 
तब एक ब्रह्मण महात्मा जो तीसरा व्यक्ति रहता है कहता है- महोदय अब प्रस्थान करने की तैयारी करें। इस पर गंगाधर की पत्नी उससे प्रार्थना करती हैं कि आप तो हमारे समाज के अगुआ हैं। इसलिए मेरी विनती है कि इनके स्थान पर मुझे भेजा जाए। इसमें आपको कोई आपत्ति नहीं है। यह सुनकर उसका पति कहता है परंतु मुझे आपत्ति है क्योंकि मैंने वेद मंत्रों के साथ इसके पिता को कन्या दान के समय वचन दिया था कि यह मेरी गृहिणी हैं। मैं इसे अपना सबकुछ दे दूंगा और सर्वादा मैं इसकी रक्षा करूंगा। अत: मैं अपने लिए इसका बलिदान नहीं कर सकता, यह धर्मविरुद्ध है। इस पर उसकी पत्नी कहती है कि धर्मानुसार आवश्कता पड़ने पर अपने पति की रक्षा के लिए पत्नी का भी धर्म होता कि वह अपने प्राणा न्योछावर कर दें। यह सुनकर उनकी बेटी जिद करती है कि मेरे माता पिता के स्थान पर उस राक्षस के लिए मुझे भेजा जाए। तीनों एक दूसरे को भेजकर दूसरे की जान बचाने की बात करते हैं तो सभी असमंजस में हो जाते हैं कि अब क्या करें? तब उनमें से एक कहता है परंतु फिर भी कोई तो निर्णय लेना पड़ेगा।
 
यह सारा वार्तालाप कुंती सहित पांचों पांडव उनके द्वार पर खड़े सुन रहे होते हैं। तब कुंती कहती है तनिक रुकिये महात्मा। ऐसा कहते हुए वह अंदर आकर कहती है- अंतिम निर्णय करने से पहले आपको मेरी भी एक प्रार्थना स्वीकार करनी होगी। यह सुनकर तीन में से एक नागरिक कहता है किंतु आप कौन हैं? तब कुंती कहती है- मैं इस नगर में एक अतिथि हूं। इस ब्राह्मण दंपत्ति का बड़ा उपकार है हम पर। इन्होंने हमें अपने घर में शरण दी है। इसके अतिरिक्त आपके सारे नगर का भी हम पर उपकार है। इस विधवा के बच्चे प्रतिदिन आपके नगर से भिक्षा लेकर आते हैं जिससे अब तक हमारा जीवन निर्वाह हुआ है। जिस नगर ने हमें आपातकाल में आश्रय दिया हो, हमें हर रोज भिक्षा दी हो। उसके प्रति हमारा भी एक उत्तर दायित्व है। इसलिए हे महात्मा! मैं आपसे प्रार्थना करती हूं कि आज इन तीनों की जगह मेरे एक पुत्र को जाने की आज्ञा दी जाए।
 
यह सुनकर गंगाधर कहता है नहीं-नहीं ऐसा नहीं हो सकता। शरण में आए शरणर्थी को अपनी रक्षा के लिए संकट में डालना ऐसा क्रूर पाप है जो परम निंदनीय है। मैं अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए अपने अतिथि के प्राणों का नाश कराऊं ऐसा कदापि संभव नहीं।...यह सुनकर महात्मा ब्राह्मण कहता है- देवी गंगाधरजी ठीक कहते हैं। अपने स्वार्थ के लिए अतिथि के साथ विश्वासघात करना जघन्य पाप होता है। हमारे नगर के किसी बच्चे ने भी यह नहीं सीखा है।
 
यह सुनकर कुंती कहती है- और हमने भी यह नहीं सीखा कि किसी के उपकार के बदले किसी की सेवा किए बिना उस स्थान को ही छोड़ दिया जाए। इसलिए मैंने आपसे प्रार्थना की है कि आज मेरे एक पुत्र को उस राक्षस के पास जाने की आज्ञा दी जाए।... तब एक वृद्ध बोलता है कि आप कैसी माता है जो अपने ही पुत्र की बलि की बात ऐसे कर रही हैं जैसे....कुंती बीच में ही रोककर कहती है जैसे कि मुझे मेरे पुत्र की कुछ चिंता ही नहीं है। परंतु हे विप्रवर जब आप ये जान जाएंगे कि मेरे पुत्र में क्या गुण है तो तब आप ऐसा नहीं सोचेंगे।..
 
इस पर एक व्यक्ति कहता है अर्थात उसके पास ऐसा क्या है? तब कुंती कहती हैं एक मंत्र है। हां उसके पास गुरु का दिया हुआ एक मंत्र है जिसके द्वारा वह किसी भी राक्षस को हरा सकता है अथवा मार सकता है। इसलिए मैं आपसे कहती हूं कि मेरे पुत्र के जाने से इस नगरी का संकट ही सदा के लिए हट जाएगा।...सभी सहमत हो जाते हैं और भीम को भेज दिया जाता है।
 
राक्षस भीम को देखकर हंसते हुए कहता है- आ गया...आ गया। ऐसा कहकर वह अपनी गुफा से बाहर निकलता है तो देखता है कि भीम एक छकड़े में दूध के मटके और अनाज लेकर खड़ा है। भीम एक मटके हो उठाकर देखता है और कहता है खीर...आह खीर। वाह आज तो आनंद, परम आनंद आ गया। ऐसा कहकर वह राक्षस के सामने ही खीर पी जाता है। यह देखकर राक्षस बहुत क्रोधित होता है। भीम खीर पीकर उसके मुख पर मटका फेंक देता है और वह जोर-जोर से हंसने लगता है। फिर भीम दूसरा मटका उठाकर खीर पीने लगता है तो राक्षस अपनी गदा से भीम की पीठ पर वार करता है लेकिन भीम को कोई असर नहीं होता है। वह दूसरा मटका भी उसके मुंह पर फेंक देता है। फिर अपना शरीर भी उस राक्षस की तरह विशालकाय बना लेता है। फिर दोनों में भयंकर युद्ध होता है और भीम उसके दोनों सिंग दोड़ देता है। फिर भीम उसे उठाकर आसमान में उछाल देता है। बहुत ऊपर जाकर वह राक्षस भूमि पर गिरकर मर जाता है।

 
 
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