निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 23 जुलाई के 82वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 82 ) में द्रौपदी के स्वयंवर में बड़े-बड़े महारथी पहुंचते हैं। श्रीकृष्ण और बलराम को विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित किया जाता है। राजा द्रुपद प्रतियोगिता प्रारंभ करने की आज्ञा देते हैं तो शकुनि के कहने पर सबसे पहले दुर्योधन उठ खड़ा होता है।
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
तब अर्जुन द्रौपदी की ओर देखता है और फिर वह वहां उपस्थित ब्राह्मणों को देखता है तो एक ब्राह्मण कहता है देख क्या रहे हो कुमार आगे बढ़ो और महाराज द्रुपद की चिंता को दूर कर दो। द्रुपद ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन को देखते हैं। फिर अर्जुन धनुष को प्रमाण करके उसकी परिक्रमा लगाते हैं। सभी देखते हैं कि ये क्या कर रहा है। तभी एक दासी द्रौपदी से कहती हैं- देखो तो उस ब्राह्मण कुमार में कितना तेजे है। द्रौपदी यह सुनकर प्रसन्न हो जाती है और अर्जुन को देखने लगती है।
अर्जुन परिक्रमा करने के बाद ऊपर आसमान में देखकर प्रणाम करता है और फिर धनुष को प्रणाम कहता है। यह देखकर बलराम व्यंग से कहते हैं कन्हैया सब क्षत्रिय राजा हार गए और अब ये ब्राह्मण धनुष उठाएगा? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- यही अर्जुन है दाऊ भैया। यह सुनकर बलराम चौंक जाते हैं- अर्जुन? उधर द्रौपदी यह सुन लेती हैं और वह भी चौंक जाती हैं। फिर श्रीकृष्ण द्रौपदी को इशारे से बताते हैं ये ही है। द्रौपदी समझकर प्रसन्न हो जाती है।
फिर अर्जुन अंत में श्रीकृष्ण की ओर देखकर हाथ जोड़कर उनसे अनुमति मांगता है तो श्रीकृष्ण आशीर्वाद देकर गर्दन हिला देते हैं। अब अर्जुन धनुष को पकड़कर एक ही झटके में उठाकर भूमि पर खड़ा रख प्रत्यंचा चढ़ा देता है। कई राजा उसकी जय-जयकार करने लगते हैं। जय हो ब्राह्मण कुमार की जय हो। फिर अर्जुन द्रौपदी की ओर देखते हैं तो वह प्रसन्न हो जाती है। राजा द्रुपद भी राहत की सांस लेते हैं।
फिर अर्जुन धनुष को लेकर तेल से भरे कढ़ावे के पास जाकर धनुष रखकर द्रौपदी को देखता है तो द्रौपदी उसे वरमाला दिखाकर नजरें झुका लेती हैं। फिर वह श्रीकृष्ण की ओर देखता है और फिर वह उल्टे घुम रहे चक्र के भीतर घुमती हुई मछली की आंख को देखता है। फिर वह कढ़ावे में भरे तेल में मछली का प्रतिबिंब देखता है। तब वह अंत में एक बाण उठा लेता है और कढ़ावे में मछली को देखकर बाण का धनुष से संधान कर देता है। तीर सीधा मछली की आंख में जाकर लगता है। ऊपर चक्र के भीतर मछली की आंख में लगे तीर को देखकर शिशुपाल, दुर्योधन, जरासंध आदि सभी अचंभित रह जाते हैं।
सभा में उपस्थित सभी लोग खड़े हो जाते हैं और अर्जुन की जय-जयकार होने लगती है। ढोल-नगाढ़े बजने लगते हैं। द्रौपदी यह देखकर अतिप्रसन्न होकर खड़ी हो जाती है। फिर अर्जुन धनुष को पुन: उसके स्थान पर रख देता है। तब द्रौपदी वरमाला लेकर अर्जुन की ओर बढ़ती है और फिर अर्जुन के गले में वरमाला डाल देती हैं। सभी ब्राह्मण कुमार की जय-जयकार करने लगते हैं।
यह सुनकर शिशुपाल तलवार निकाल लेता है और चीखकर कहता है- नहीं ये हमारा अपमान है। उसे देखकर जरासंध, दुर्योधन आदि भी तलवार निकाल लेते हैं। शिशुपाल कहता है- इस ब्राह्मण ने हमारा अपमान किया है, हमारा तिरस्कार किया है, ये मक्कार है..इसे मारो। यह सुनकर वहां उपस्थित सभी ब्राह्मण और ऋषि अर्जुन के पसा खड़े हो जाता है। द्रुपद कहता है आप सभी लोग शांत हो जाइये, शांत हो जाइये।
यह देखकर युधिष्ठिर कहते हैं- नकुल और सहदेव अब हमारा यहां रुकने का कोई काम नहीं चलो। फिर युधिष्ठिर कहते हैं भीम से कि भीम तुम अर्जुन की रक्षा के लिए यहां रुकोगे। भीम कहता है जी भैया। युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव चले जाते हैं। फिर शिशुपाल सहित कुछ राजा तलवार लेकर अर्जुन की ओर बढ़ते हैं तो भीम एक खंभे को उखाड़ लेता है।..शल्य कहता है कि सुनो! यदि ये कन्या किसी छत्रिय पुरुष को नहीं चुन सकती तो इसे ही जला दो। सभी कहते हैं- हां इसे ही जला दो।
द्रुपद कहता है आप सभी लोग शांत हो जाइये, शांत हो जाइये। एक ब्राह्मण को मारना अनुचित है। यह सुनकर शिशुपाल कहता है क्या उचित है और क्या अनुचित है यह हम भलिभांति जानते हैं। पहले हम तुझसे ही निपटते हैं...मारो इसे। यह देखकर भीम खंभा उठाकर सभी के सामने खड़ा हो जाता है।
श्रीकृष्ण और बलराम भी वहां पहुंच जाते हैं। बलराम जोर से चीखते हैं रुक जाओ! तभी श्रीकृष्ण कहते हैं बहुत हो चुका..अब समस्त राजा और सम्राट सुनें, इस तेजस्वी कुमार ने अपनी वीरता का परिचय देकर द्रौपदी को अपने बाहुबल से जीता है इसलिए इससे युद्ध करना अनुचित है। तब बलराम कहते हैं- हां ऐसा नहीं है कि आप लोगों को अवसर नहीं दिया गया। जब कोई भी क्षत्रिय राजा सफल नहीं हुआ तब इस ब्राह्मण कुमार ने बाजी जीती है। अब आप लोगों को किस बात का मलाल है? वैसे भी धर्म इस संदर्भ में युद्ध की आज्ञा नहीं देता।
यह सुनकर शिशुपाल हंसते हुए कहता है धर्म। तुम लोग धर्म की बातें कर रहे हो। अरे जाओ मैं तुम्हें और तुम्हारे धर्म को भलिभांति जानता हूं। यदुवंशियों तुम लोग बीच में ना अटको अन्यथा।...यह सुनकर बलराम आगे बढ़कर कहते हैं अन्यथा क्या? तभी श्रीकृष्ण बलराम का हाथ पकड़कर उन्हें रोककर शिशुपाल से कहते हैं वर्ना क्या? वर्ना क्या कर लोगे तुम इस कुमार का। अब कोई भी एक कदम आगे बढ़ा तो उसे पहले हमसे युद्ध करना पड़ेगा। फिर श्रीकृष्ण आसमान में अंगुली उठाकर कहते हैं- समझ गए ना। तभी उनकी अंगुली पर सुदर्शन चक्र घुमने लगता है और बलराम के हाथों में हल आ जाता है।
यह देखकर शिशुपाल और दुर्योधन सहित सभी भयभित होकर उन्हें देखने लगते हैं। फिर सभी झल्लाकर वहां से चले जाते हैं। इस पर श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र और बलराम का हल गायब हो जाता है और तब श्रीकृष्ण अर्जुन की ओर देखकर मुस्कुराते हैं और उसके पास आकर कहते हैं वीर धनुर्धर तुम निर्भय होकर द्रौपदी को लेकर यहां से जाओ। ये आज से तुम्हारी हुई। हम देखते हैं कौन तुम्हारा पीछा करता है।
यह सुनकर द्रौपदी हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण से कहती हैं- आज आपने हमारे प्राणों की रक्षा की है इसके लिए मैं आपको प्रणाम करती हूं और जीवनभर आपकी आभारी रहूंगी केशव। यह कहकर द्रौपदी श्रीकृष्ण के चरण छू लेती हैं। तब श्रीकृष्ण उसे उठाकर कहते हैं- और हम जीवनभर तुम्हारी रक्षा करते रहेंगे देवी द्रौपदी। यह सुनकर द्रौपदी कहती हैं- वचन दे रहे हो द्वारिकापति इसे निभाओगे भी? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- अवश्य निभाऊंगा पांचाली। आज से मैं तुम्हें अपनी छोटी बहन मानता हूं और वचन देता हूं कि किसी भी सहायता के लिए जब भी मुझे याद करोगी तो हमें उसी क्षण अपने पास पाओगी। यह सुनकर द्रौपदी पुन: प्रणाम करती है तो श्रीकृष्ण कहते हैं सौभाग्यवति भव:।
फिर श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, सखा कौंतेय हमने तो तुम्हें यहां आते ही पहचना लिया था। पहले तो तुम हमारे भाई थे परंतु आज से तुम हमारे जीजा भी हो गए हो। यह कहते हुए श्रीकृष्ण हंसने लगते हैं। तब अर्जुन कहते हैं कि ये तो आपकी उदारता है। वर्ना हमारी माताश्री ने तो हमें सदा आपको प्रणाम करना ही सिखाया है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं अर्जुन तुम नहीं जानते। तुम्हारा और हमारा पुरातन नाता है। तुम हमारे पुरातन सखा हो।
यह सुनकर द्रौपदी और अर्जुन आश्चर्य करते हैं। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- इससे पहले कि ये राजा लोग कोई नया उपद्रव करें तुम लोग यहां से शीघ्र निकल जाओ और कुंती बुआ से कहना कि रात को हम उनसे मिलने आएंगे...बस जाओ। फिर द्रौपदी और अर्जुन सभी को प्रणाम करके वहां से चले जाते हैं। उनके पीछे भीम भी होते हैं।
यह देखकर राजा द्रुपद अपने पुत्र धृष्टदुम्न से कहते हैं- पुत्र तुम इनका पीछा करो। जाकर देखो कि हमारी पुत्री को पाने वाले कौन हैं, किस जगह ठहरे हैं, किसी गौत्र के हैं, किस कुल के हैं? एक भाई होने के नाते तुम्हारा ये कर्तव्य है जाकर देखो, उनका पता करो। धृष्टदुम्न कहता है जो आज्ञा पिताश्री।
धृष्टदुम्न जाने लगता है तो श्रीकृष्ण रोक लेते हैं और कहते हैं क्यों इतने अधीर हो रहे हैं महराज? एक शूरवीर की कोई जाती नहीं होती, उसका कोई कुल नहीं होता। आपने देखा नहीं उगते हुए सूर्य के समान उसका चमकता हुआ चेहरा स्वयं उसका परिचय दे रहा था। वह निश्चिय ही किसी बड़े कुल का वंशधर है, आप चिंता ना करें।
यह सुनकर द्रुपद रोते हुए कहते हैं कि निश्चित ही आपका कथन सत्य है परंतु इस समय मैं केवल एक पिता हूं। इसलिए मन अधीर है। इसलिए जानता चाहता हूं कि ब्राह्मण कुमार कौन है जो मेरी राजकुमारी को जीत कर ले गया है। उसके घर मेरी बेटी किस हाल में रहेगी। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- तो आप सच जानना चाहते हैं कि वह तेजस्वी वीर कौन है? तब द्रुपद कहते हैं- हां दिनानाथ। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं तो सुनिये! वो जो इस भरी सभा में आपकी पुत्री को जीतकर ले गया वह मेरी बुआ का पुत्र पांडु पुत्र अर्जुन है।
यह सुनकर द्रुपद, उसकी पत्नी और उसका पुत्र चौंक जाते हैं। द्रुपद यह सुनकर अति प्रसन्न हो जाता है और कहता है अर्जुन? श्रीकृष्ण कहते हैं- हां वही अर्जुन था। यह सुनकर द्रुपद हाथ जोड़कर कहता है आप सर्वात्मा है दीनानाथ, आप सर्वात्मा हैं।
यह समाचार नगर में भी फैल जाता है कि जो द्रौपदी को जीतकर ले गया वह और कोई नहीं पांडु पुत्र अर्जुन है। एक कहता है तो क्या पांडव जीवित है? तब दूसरा नागरिक कहता हैं- हां इसी नगर के ब्राह्मण कुंभसार के यहां वे रह रहे हैं। पूरे नगर में यह खबर आग की तरह फैल जाती है कि पांडव जीवित हैं। वे लाक्षागृह ही आग से बच गए थे। यह खबर हस्तिनापुर पहुंच जाती है कि पांडव जीवित है। विदुर से धृतराष्ट्र पूछते हैं क्या पांडव जीवित हैं? तो क्या वारणावत की घटना सत्य नहीं थी विदुर। इस पर विदुर कहते हैं कि वारणावत की घटना सत्य थी और यह भी सत्य है कि पांडव जीवित है। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं कैसी सूचना देते हो विदुर दोनों बाते एक साथ सत्य कैसे हो सकती है? वहां जो कंकाल मिले थे क्या वह उनके नहीं थे? तब विदुर कहते हैं यही हो सकता है महाराज। तब धृतराष्ट्र कहते हैं यह तो शुभ सूचना है। गांधारी पूछती है विदुर कुंती बहन कैसी है कहां है वो? विदुर कहता है कि महारानी कुंती सकुशल है और वे अपने पुत्रों के ही साथ है।
धृतराष्ट्र कहते हैं यह सुनकर हम अति प्रसन्न हैं लेकिन वे इस समय कहां है? तब विदुर कहते हैं कि वे इस समय राजा द्रुपद के मेहमान हैं और कुंती के कहने पर पांचों पांडवों का विवाह द्रौपदी के साथ हो चुका है। श्रीकृष्ण और बलराम भी वहीं हैं। वे इस प्रतीक्षा में हैं कि जैसे ही आपको उसके जीवित होने की सूचना मिलेगी आप तुरंती ही उनको हस्तिनापुर आने का न्योता भेजेंगे। यह सुनकर गांधारी कहती है न्योता क्यों भेजेंगे। यह तो उनका घर है वो अपने अधिकार से यहां आएंगे। महाराज हमें बहुत को वहां से लाने के लिए हाथ, घोड़े और सेना की एक टुकड़ी भेजना चाहिए जो हमारी पुत्रवधु को आदर सहित हस्तिनापुर लेकर आए। धृतराष्ट्र कहते हैं अवश्य। विदुर जैसे महारानी ने कहा है तुम वैसे ही प्रबंध करो। विदुर कहते हैं जो आज्ञा महाराज।
उधर, दुर्योधन को जब यह पता चलता है तो वह शकुनि की क्रोधित होता है और कहता है मामाश्री सुना आपने पांडव जीवित हैं। शकुनि कहता है ऐसा कैसे हो सकता है? तब दुर्योधन कहता है हो सकता नहीं हुआ है। उस दिन पांचाल कुमारी को वरण करने वाला ब्राह्मणवेश में अर्जुन ही था और कोई नहीं। तब शकुनि कहता है मगर भांजे वह पहचान में तो नहीं आ रहा था। इस पर दुर्योधन कहता है यही तो आश्चर्य है कि आपकी हर चाल उल्टी पड़ जाती है। पहचान में भी भूल कर जाते हैं आप मामाश्री। दोनों में वाद विवाद होता है तो शकुनि कहता है इसमें जरूर विदुर की चाल होगा। फिर दुर्योधन कहता है कि अपनी भूल को दूसरों पर मत डालो। पांडवों के हस्तिनापुर बुलाया जा रहा है मामाश्री। तब शकुनि कहता है कि बुलाने जा रहा दूत वहां तक पहुंचेगा तब ना?
उधर, द्रुपद कहता है बड़े आश्चर्य की बात है कि हस्तिनापुर की ओर से हमारे पास अभी तक कोई संदेश नहीं आया। यह तो निश्चित ही है कि हस्तिनापुर के महाराज को पांडवों द्वारा हमारी पुत्री के पाणिग्रहण की सूचना मिल गई होगी। यह सुनकर पांडवों के साथ बैठे श्रीकृष्ण कहते हैं हां महाराज महामंत्री विदुर के गुप्तचर ये सुचना उन्हें दे चुके हैं। यह सुनकर द्रुपद कहते हैं परंतु समधी होने के नाते उन्होंने अभी तक कोई संदेश हमारे पास नहीं भेजा यह तो आश्चर्य की बात है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि इसमें आश्चर्य की कौनसी बात है हस्तिनापुर में जहां एक ओर महात्मा भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और विदुर जैसे पराक्रमी है तो दूसरी ओर दुर्योधन और शकुनि जैसे लोग भी तो हैं। फिर देरी के लिए आश्चर्य कैसे।
यह सुनकर धृष्टदुम्न कहता है कि आपने ठीक ही कहा यदुकुल शिरोमणी वे लोग कब चाहेंगे कि पांडवों की शक्ति में वृद्धि हो या उन्हें किसी की सहायता मिले। तब श्रीकृष्ण कहते हैं या बात सच है महाराज परंतु पांडवों के जीवित होने के समाचार कोई साधारण बात नहीं है। ये सूचना ठहरे हुए समुद्र में ज्वारभाटे जैसे आने की सूचना है।
श्रीकृष्ण की बातें सुनने के बाद द्रुपद कहते हैं कि मैं चाहता हूं कि पांडवों के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए। इन्हें इनका अधिकार पुरे सम्मान के साथ मिलना ही चाहिए। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप निश्चिंत रहिये महाराज मेरे रहते कहीं कोई भी अन्याय नहीं हो सकता। फिर श्रीकृष्ण बलराम की ओर देखकर कहते हैं क्यों दाऊ भैया।
तब युधिष्ठिर खड़े होकर हाथजोड़कर कहते हैं मुझे और मेरी माताश्री को आप लोगों को पूर्ण विश्वास है मधुसुदन। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं तो फिर विश्वाकम फलदायम भैया। यह सुनकर सभी हंसते हैं।
तभी वहां एक सेवक प्रतिहारी आकर कहता है महाराज की जय हो। हस्तिनापुर का एक राजदूत आपसे मिलने की अनुमति चाहता है। राजा द्रुपद कहते हैं अनुमति हैं। राजदूत आकर सभी को नमस्कार करके महाराज धृतराष्ट्र का संदेश सुनाता है कि उन्होंने आप आपको बधाई दी है और अपने भाई पांडु के पुत्रों को आशीर्वाद कहा है और उन्होंने ये भी सूचना भेजी है कि वे अपनी पुत्रवधू के स्वागत के लिए अत्यंत उत्सुक है। इसलिए उन्होंने महाराज द्रुपद से प्रार्थना की है कि वह अपनी पुत्री द्रौपदी विदा करने उसे अपने ससुराल जाने की आज्ञा दें महाराज।
राज द्रुपद कहते हैं राजदूत हमें महाराज धृतराष्ट्र का प्रस्ताव स्वीकार है। फिर द्रुपद श्रीकृष्ण से विनती करते हैं कि आप भी धृष्टदुम्न के साथ हस्तिनापुर जाएं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं जो आज्ञा।
फिर श्रीकृष्ण पांचों पांडवों, कुंती और द्रौपदी को लेकर हस्तिनापुर पहुंच जाते हैं जहां सभी का जोरदार स्वागत होता है। फिर धृतराष्ट्र की सभा में इसको लेकर हर्ष चर्चा होती है तब विदुर कहते हैं कि अब हमें राजनीतिक दृष्टि से भी पांचाल जैसे शक्तिशाली देश का साथ मिल गया है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि आज्ञा हो तो आनंद के इस अवसर पर एक बात कहूं महाराज। धृतराष्ट्र कहते हैं अवश्य कहो।
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अब तो पांडवों का घर भी बस गया। अब धीरे धीरे उनके कुल में वृद्धि भी होगी इसलिए हस्तिनापुर के राज्य में उन्हें भी भागीदार बनाना उचित होगा। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं भागीदार, भागीदार क्यों, वे हमारे पुत्र है और पिता एवं पुत्र में भागीदारी कैसी?
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि भागीदारी का अर्थ है उनकी स्वतंत्र सत्ता। स्वतंत्रा सत्ता का अर्थ है उनके व्यक्ति को निखरने का अवसर देना और परंपरा भी यही रही है महाराज। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं कि इसमें शंका किस बात की। पांडव हमारे कुल के राजपुत्र हैं। इस नाते समस्त राज्य पर उनका अधिकार है। जैसे हमारे कुल के सौ पुत्रों को है। तब विदुर कहते हैं यदुनंदन का संकेत भी तो इसी ओर है महाराज। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं कि विदुर तुम साफ साफ क्यों नहीं कहते कि तुम हमसे क्या कराना चाहते हो। तब विदुर कहते हैं न्याय। इसके अतिरिक्त और क्या महाराज।
धृतराष्ट्र कहते हैं इस बात का क्या अर्थ है क्या मैंने अभी तक न्याय नहीं किया। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि आपने तो सदैव पांडवों के हित का ध्यान रखा है महाराज। इसके बाद धृष्टदुम्न कहता है कि तो फिर हस्तिनापुर राज्य को दो बराबर राज्य में बांटने में कौन सी असुविधा है। नगर को भी तो बांटा जा सकता है। यह सुनककर धृतराष्ट्र अपने क्रोध को रोककर हंसते हुए कहते हैं तो पांचाल के युवराज हमारे राज्य का बंटवारा कराने आए हैं।
जय श्रीकृष्ण।
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