Shri Krishna 9 August Episode 99 : सुदामा के एक चावल के दाने से संपूर्ण जगत का पेट भर गया

अनिरुद्ध जोशी
रविवार, 9 अगस्त 2020 (22:05 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 9 अगस्त के 99वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 99 ) में श्रीकृष्ण को सत्यभामा सोने में तोलने चली थी लेकिन जब खजाना खाली हो गया तब रुक्मिणी ने बताया कि प्रभु को भक्ति और प्रेम के वश में ही होते हैं तब सत्यभामा का अहंकार जाता रहा और मात्र एक तुलसी के पत्ते ने प्रभु को तोल दिया। फिर श्रीकृष्ण और बलराम को इंद्रप्रस्थ से सुभद्रा की गोद भराई का समाचार मिलता है। फिर इंद्रप्रस्थ में सुभद्रा की गोद भराई की रस्म बताई जाती है।
 
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फिर रामानंद सागरजी श्रीकृष्ण सुदामा मिलन के बारे में बताते हैं और कहते हैं कि किन-किन लेखकों ने श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता के बारे में लिखा है जिनमें से हिन्दी के कवि नरोत्तमदास ने सुदामा चरित नाम से जो काव्य लिखा है उससे अधिक रसमय काव्य किसी भी भाषा में किसी भी कवि ने नहीं लिखा। 
 
अवंतिका अर्थात उज्जैन के सांदिपनी ऋषि के आश्रम में श्रीकृष्ण की मित्रता सुदामा से हुई थी। फिर दोनों बड़े हो गया। श्रीकृष्ण द्वारिकाधीश बन गए परंतु सुदामा की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया बल्कि सुदामा की शादी हो जाने के बाद परिवार बढ़ जाने से सुदामा गरीब से भी अधिक गरीब हो गए। सुदामा श्रीकृष्ण से इसलिए मदद नहीं मांगते थे कि वे श्रीकृष्ण के मित्र और भक्त भी थे। भक्त वाले रिश्ते में तो कोई लाज नहीं थी परंतु मित्र वाले रिश्ते में संकोच था। वह सोचता था कि मित्र के आगे हाथ फैलाने से स्वाभिवान को चोट पहुंचेगी। 
 
श्रीकृष्ण बांसुरी बजा रहे होते हैं तब रुक्मिणी कहती है- आज आपके मुखमंडल पर भावुकता की एक ऐसी झलकर देख रही हूं जो मैंने पहले कभी नहीं देखी। आपकी मुरली में भी आज एक गहरी वेदना के स्वर थे। ऐसी क्या बात हो गई है प्रभु? कहीं कोई परम भक्त अत्यंत दुखी तो नहीं? 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम्हारा अनुमान सही है देवी। इस संसार की माया ने मेरे एक भक्त को दुख की जंजीरों में इस प्रकार जकड़ लिया है कि जैसे कोई विशाल नाग एक कमजोर मनुष्य को अपनी पकड़ में जकड़ लेता है। वही हाल हो रहा है मेरे भक्त का और मेरी विवशता है कि मैं उस भक्त का दु:ख दूर नहीं कर सकता। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- कौन है वह? 
 
तब श्रीकृष्ण बताते हैं कि सुदामा जो कई जन्म से मेरा भक्त है और इस जन्म में तो मेरे बचपन का सखा भी है। फिर रुक्मिणी पूछती है- कहां रहता है वह? तब श्रीकृष्ण कहते हैं- वो देखो अपनी झोपड़ी के कोने मैं बैठा मेरा नाम स्मरण कर रहा है। फिर सुदामा को बताया जाता है जो श्रीकृष्ण का नाम जपता रहता है। उसकी पत्नी उसे पीने का पानी देती है वह पानी पीकर लेट जाता है, क्योंकि खाने को कुछ नहीं रहता है। 
 
इधर, श्रीकृष्ण रुक्मिणी को बताते हैं कि संसार का सबसे बड़ा दुख है गरीबी। गरीबी वो दु:ख है जिसकी चोट से बड़े से बड़े वीर को घुटने टेकने पर विवश कर देती है। गरीबी बड़े से बड़े ज्ञान का और बड़े से बड़े धर्मात्मा का धीरज और धर्म चकनाचूर कर देती है और उन्हें धर्म के मार्ग से हटाकर अधर्म के मार्ग पर चलने पर विवश कर देती है। मेरा ये भक्त गरीबी की उसी चरम सीमा तक पहुंच गया है।
 
उधर, पुन: सुदामा को बताया जाता है जो अपनी फटी धोती सिल रहा होता है। फिर वह नींद में सोई अपनी पत्नी की साड़ी सिलता है। उसकी पत्नी जाग जाती है तो वह खुद ही सिलने लगती है। 
 
इधर, रुक्मिणी कहती है- हे! त्रिलोकीनाथ इसमें इतनी चिंता क्यों? आपके आधीन तो तीनों लोक हैं। आपकी भ्रकूटी के संकेत मात्र से ही उसकी दरिद्रता दूर हो सकती है। फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं तो उसकी दरिद्रता दूर करना चाहता हूं परंतु वो नहीं चाहता। इस पर रुक्मिणी पूछती हैं- इसका अर्थ? 
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह सांसारिकता से मुक्त स्थि‍तप्रज्ञ है। वो जानता है कि ये गरीबी उसके पिछले कर्मों का फल है। इस मृत्युलोक अथवा कर्मलोक का विधान यही है। जब तक उसके कर्मफल का हिसाब चुकता नहीं हो जाता उसे मोक्ष की प्राप्त नहीं हो सकती। फिर वह कर्म फल चाहे दु:ख हो या सुख हो। उसने सपने मैं भी प्रार्थना नहीं की कि प्रभु मेरा दु:ख मिटा दो। उधर उसका संतोष तो देखो। दो दिनों से उसे पर्याप्त भिक्षा नहीं मिली है। बच्चों को आधा पेट भोजन कराके सुला दिया है। पति-पत्नी ने दो दिनों से कुछ नहीं खाया है।  
 
उधर, सुदामा को रात में हांडी में भोजन ढूंढते हुए बताया जाता है तभी उसे एक हांडी में चावल का एक दाना दिखाई देता है तो वह प्रसन्न हो जाता है।...श्रीकृष्ण और रुक्मिणी ये देख रहे होते हैं। वह उस दाने को एक पत्ते पर रखकर उसके दो टूकड़े करता है और फिर पत्ते के भी दो टूकड़े करके दोनों दाने को अलग-अलग रखकर अपनी सोई हुई पत्नी के पास ले जाकर उसके हिस्से का चावल उसके सिरहाने के पास रख देता है और स्वयं आधा चावल ले जाकर श्रीकृष्ण की मूर्ति के समक्ष अर्पित करने लगता है..तभी श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं- अरे ये क्या ये तो आधा दाना मुझे अर्पित कर रहा है।...पीछे से सुदामा की पत्नी उठकर यह सब देख रही होती है तो वह कहती है- जिनको बाकी चावल का ये दाना अर्पण करने जा रहे हो भला उनको इसकी क्या कद्र होगी।...यह सुनकर श्रीकृष्ण चौंक जाते हैं और रुक्मिणी मुस्कुराती हैं।...
 
फिर उसकी पत्नी कहती है- उन्हें तो बड़े-बड़े सोने के बर्तनों में सेठ लोग उत्तम से उत्तम छप्पन भोग खिलाते हैं। उन्हें एक निर्धन, दरिद्र ब्राह्मण का भेंट किया हुआ आधा दाना कहां दिखाई देगा?... यह सुनकर श्रीकृष्ण द्रवित हो जाते हैं तब सुदामा कहता है- वसुंधरे प्रभु के समक्ष बड़ी-बड़ी वस्तु का अथवा सोने-चांदी का कोई मोल नहीं है। वहां केवल श्रद्धा का मोल है, भक्ति का मोल है। उस श्रद्धा और भक्ति को मत खोओ।... यह सुनकर श्रीकृष्ण और रुक्मिणी प्रसन्न हो जाते हैं।... फिर सुदामा कहता है- देखो गरीबी के दु:ख से पीड़ीत होकर तुम मुझ पर क्रोध करती हो तो मुझे अच्छा लगता है। मुझ पर क्रोध करने का तुम्हारा अधिकार है। सो तुम कितना भी क्रोध कर लो परंतु अपने भीतर से भक्ति का दिया मत बुझने दो। 
 
यह सुनकर उसकी पत्नी अपने हिस्से का चावल का दाना उठाकर सुदामा के पास आकर कहती है। अच्छा भक्तराज आपकी आज्ञा शिरोधार्य करती हूं परंतु इतनी बात समझा दीजिये मुझे कि आपने आधा चावल मेरे पास रख दिया और बाकी का आधा आपने स्वयं क्यों नहीं खाया..अपने उस भगवान को खिलाने क्यों चले गए..वो तो भूखा नहीं था? यह सुनकर सुदामा कहता है कि गृहस्थ आश्रम का धर्म है कि अपने खाने के पहले एक हिस्सा अपने पशु को खिलाएं और एक हिस्सा अतिथि के लिए रखा जाए फिर भोजन करें। सो मैंने सोचा कि इस आधे चावल में इतने सारे काम तो हो ही नहीं सकते तो इसलिए उन्हें अर्पण कर दूं जो विश्‍वात्मा है। यदि वे संतुष्ट हो जाएं तो संसार की भूख मिट जाएगी।
 
यह सुनकर सुदामा की पत्नी कहती है कि यदि ऐसा ही है तो ये लो मेरे चावल का आधा दाना भी साथ ही चढ़ा दो। यह सुनकर सुदामा पूछता है- क्यों तुम नहीं खाओगी। तब उसकी पत्नी कहती है- नहीं। तब सुदामा कहता है कि भूख लगी होगी? इस पर वह कहती है- जिसके पति को भूख नहीं लगती हो तो उसकी पत्नी को कैसे लग सकती है? यह चावल भी अपने उस भगवान को खिला दो..अपने उस मित्र को, उसी का पेट भरने दो। यह सुनकर सुदामा कहता है कि प्रभु को भेंट करना हो तो अपने हाथों से करो परंतु श्रद्धा और भक्ति के साथ। यह सुनकर उनकी पत्नी कहती है- आपकी निश्चल भक्ति में जाने क्या जादू है कि आप पर क्रोध नहीं, दया आने लगती है। फिर दोनों मिलकर वह दाना अर्पण करते हैं तब सुदामा कहता है कि हे विश्‍वात्मा। शास्त्र कहता है कि श्रद्धा और भक्ति से अर्पण किया हुआ एक फूल हो, एक पत्ता हो या चाहे पानी की एक बूंद हो, आप उसीसे संतुष्‍ट हो जाते हैं। आपके संतुष्ट होने से संसार के समस्त प्राणी भी संतुष्ट हो जाते हैं। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण भावविभोर हो जाते हैं और रुक्मिणी की आंखों में आंसू आ जाते हैं।..फिर सुदामा और उनकी पत्नी भगवान को चावल के वह दोनों टूकड़े अर्पित कर देते हैं।... वह दोनों टूकड़े श्रीकृष्ण के हाथों में आ जाते हैं तब श्रीकृष्ण रुक्मिणी से कहते हैं- लीजिये देवी आपके हिस्से का भी आ गया। रुक्मिणी वह दाना उठा लेती है तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि आगे चलकर आपको इसका दाम चुकाना पड़ेगा। फिर श्रीकृष्ण वह दाना खाते हुए कहते हैं- इसमें विश्‍व की समस्त आत्माएं संतुष्‍ट हो। रुक्मिणी भी खा लेती हैं। 
 
श्रीकृष्‍ण दाना खाकर डकार लेते हैं तभी रुक्मिणी को भी डकार आ जाती है। आसमाना में देवता लोग भी अपना पेट पकड़कर डकार लेते हैं। उधर, सुदामा और उनकी पत्नी को भी डकार आ जाती है। यह देखकर श्रीकृष्ण हंसने लगते हैं और रुक्मिणी आश्चर्य करने लगती है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- वाह आज पहली बार भक्त की थोड़ी सी सेवा करने का अवसर मिला। तब रुक्मिणी कहती है- प्रभु ऐसे अवसर तो रोज तो नहीं मिलते तो कैसे निर्वाह होगा इन दोनों का? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि भिक्षा मांगने से। रुक्मिणी कहती है- भिक्षा मांगने से?...फिर श्रीकृष्‍ण ब्राह्मण का धर्म बताते हैं और कहते हैं कि उसे सिर्फ पांच घरों से ही भिक्षा मांगनी चाहिये और देख लो सुदामा उसी धर्म को निभा रहा है। 
 
फिर सुदामा एक घर से भिक्षा मांगता है। वहां से भिक्षा मिलने के बाद वह दूसरे घर पर जाता है। वहां एक महिला सूपड़े में चावल बिन रही होती है तो वह सुदामा को देखकर क्रोधित होकर मुंह बनाकर ‍भीतर चली जाती है और दरवाजा बंद कर लेती है। फिर वह तीसरे घर जाता है वहां पर उसे देखकर दरवाजा लगा लिया जाता है, चौथे घर पर भी ऐसा ही होता है। अंत में पांचवें घर से उसे थोड़े बहुत चावल मिलते हैं तो वह कहता है प्रभु आज के लिए इतना दे दिया आपकी कृपा है, आपका धन्यवाद प्रभु। 
 
उधर, श्रीकृष्ण कहते हैं- देखो रुक्मिणी इतने में ही मेरा धन्यवाद कर रहा है जैसे मैंने कोई असीम कृपा कर दी उस पर। हालांकि ये उसका अपने कर्मों से कमाया हुआ प्रारब्ध है। मैंने अपनी तरफ से उसमें एक दाना भी नहीं डाला। ये विनम्रता एक भक्त में ही हो सकती है। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- वो तो देख रही हूं परंतु ये बात मुझे समझ में नहीं आती भगवन की आप सर्वशक्तिमान होते हुए भी अपने भक्त की कुछ भी सहायता नहीं कर रहे हैं। जय श्रीकृष्णा। 
 
 
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