दोपहर बारह से एक का समय उनका अपना होता है। सुबह के सारे काम निपटा, नहा-धोकर निवृत्त हो पूजा करती हैं, फिर खाना बनाती हैं। खाना क्या, थोड़ी-सी दाल और सब्जी बघार लेना। आजकल रोटी तो गिनती की चार या छः लगती हैं, वे भी महाराज बना जाता है। शेखर को बरसों से दस बजे खाना खाने की आदत है। अतः इधर खाना बना, उधर खाने बैठे। फिर अपने काम से निकल जाते हैं। दिनभर की व्यस्तता वैसी ही है, जैसी विवाह होते ही थी।
शेखर के बाहर जाते ही वे आराम से पेपर पढ़ती हैं। इतने में आसपास के घरों से कोई बाहर दिख गया तो ठीक, बतिया लिया वरना थोड़ी देर धूप सेंकते हुए, स्वेटर बुनते बैठी रहती हैं। धूप में बैठे हुए, सधे हाथ फंदे पर फंदे उतरते जाते हैं व उनकी स्मृतियों के पटल पर कई दृश्य बदलते रहते हैं।
एक समय से वे इस फुरसत को तरसती आई हैं। तीस वर्ष पूर्व उनका ब्याह हुआ था। पाँच भाई-बहनों में शेखर सबसे बड़े थे। फिर दो ननदें, दो देवर। अपने घर में वे दो बड़े भाइयों से छोटी थीं व लाड़-प्यार में पली-बढ़ीं। दादी की कुछ ज्यादा ही लाड़ली। घर के काम-काज आते सब थे, पर मर्जी हुई तो किए, वरना भाग गए, सहेलियों के साथ। उस पर पापा का दुलार। माँ कुछ अनुशासन में रखना भी चाहती तो बचाव करते, कहते "तुम हो, अम्मा है, नौकर-चाकर हैं, फिर क्यों उसके पीछे पड़ी रहती हो?" लेकिन माँ को तो "भविष्य में ससुराल में क्या होगा", की चिंता ग्रसित किए रहती।
विवाह के पाँच-छः माह तो अम्मा-बाबूजी की ममता भरी छाँव में गुजरे। वे घर की जिम्मेदारी कुछ समझ सकतीं, इसके पूर्व ही बाबूजी को रक्त कैंसर जैसी भयानक बीमारी ने घेर लिया। अम्मा मन ही मन इतनी कमजोर हो गईं कि घर संसार ही भुला बैठीं। उनके विवाह की प्रथम वर्षगाँठ के पहले ही बाबूजी का साया परिवार से उठ गया। बाबूजी की तेरहवीं होते ही अम्मा ने चाबियों के गुच्छे के साथ ही, अपने बच्चों की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी व सदा के लिए ठाकुरजी की सेवा में स्वयं को समर्पित कर दिया। जमीन-जायदाद, पैसे-लत्ते की कोई कमी नहीं थी।
परंतु नई-नवेली दुल्हन का अल्हड़पन वे कभी भोग ही नहीं पाईं। पितृविहीन ननदों व देवरों को समेटे, वे उनकी भाभी से माँ कब बन बैठीं, उन्हें पता ही नहीं चला। कर्तव्यपूर्ति ने उन्हें आदर-सम्मान तो बहुत दिया, परंतु बचपन व अल्हड़पन तो मायके में जो छूटा, फिर लौट ही नहीं सका। एक तरफ मासूम ननदों व देवरों के चेहरे, दूसरी तरफ अम्मा के चेहरे की खामोश उदासी। धीरे-धीरे समय ने, परिस्थितियों ने, उन्हें अपने अनुसार ढाल ही लिया। कई बार उनका मन करता पास-पड़ोस की बहुओं के समान वे भी अम्मा के इशारों पर काम करें। हर तीज-त्योहार पर क्या करना है, कैसा करना है इसकी जानकारी उन्हें सास से मिले। घर के रीति-रिवाजों की विरासत उन्हें वैसी ही मिले, जैसी उनकी दादी उनकी माँ को सौंपा करती थी।
कभी वे भी पति के साथ गरमियों में पहाड़ों पर, तो सर्दियों में बर्फीली वादियों में घूमने जाएँ। कहीं नहीं तो मायके जाकर ही कुछ दिन अपना बचपन फिर दोहराएँ। उन्हें कभी किसी ने रोका नहीं, जिसकी वे शिकायत कर सकें। लेकिन कभी किसी देवर का इम्तहान तो कभी किसी ननद का स्वास्थ्य खराब। कभी अम्मा की रातभर चलने वाली खाँसी की फिक्र, तो कभी उनके घुटनों का न ठीक होने वाला दर्द। वे अपनी गृहस्थी से कभी स्वयं के लिए समय निकाल ही नहीं पाईं।
तभी फोन की ट्रिन-ट्रिन ने उन्हें वर्तमान में लौटाया। घड़ी देखी- डेढ़ बज रहा था। खाना गर्म कर प्लेट में लिया व खाने लगीं। सबको निपटाकर ऐसे ही अकेले बरसों से सुबह का खाना खाती आई हैं। क्षितिज व सागर के जन्म के बाद तो इस घर-परिवार ने उन्हें और भी मजबूती से बाँध लिया था। फिर ननदें व देवर भी तो उनके बच्चे ही थे। किसी का भी खाना रहा हो, तो खाना उनके गले नहीं उतरा। रविवार हो या छुट्टी का कोई दिन, सुबह से खटकर एक से एक चीजें बनातीं, लेकिन लाख प्रयासों के बाद भी सारे इकट्ठा हो ही नहीं पाते। किसी की ट्यूशन, किसी की एनसीसी तो किसी की ड्राइंग कॉम्पिटिशन या बैडमिंटन मैच। हर कोई लौटकर कहता- "ओ भाभी, आप क्यों रुकती हैं, खा लिया करो।"
लेकिन परोसते ही कहता- "भाभी, आप रुकी रहती हैं ना, इसीलिए बाहर खाने की इच्छा नहीं होती। हम घर भागे चले आते हैं।"
घर में नौकर-चाकरों की कमी नहीं थी, लेकिन सबकी पसंद-नापसंद का ख्याल, सबकी पढ़ाई, करियर, समय पर चाय-नाश्ता, घर की साफ-सफाई, सबकी जरूरतें। वे सारे दिन थिरकती ही रहतीं। उनकी अपनी कोई इच्छा, चाह बची ही नहीं। सारा दिन खटने के बाद, रात को शेखर की बाँहों में, जब अपनी सराहना पातीं, तो दूने उत्साह से हर सुबह कर्तव्यपूर्ति में लग जातीं। शेखर कहते, "तुम्हारे जैसी पत्नी पाकर मैं धन्य हो गया। मेरे भाई-बहनों को अपने बच्चों की तरह, जिस खूबी से संभाल रही हो, उसका जवाब नहीं। अम्मा से ज्यादा तुम्हीं उनकी सगी माँ लगती हो।"
सब कुछ करते हुए उन्होंने एक बात का ध्यान जरूर रखा था। तमाम व्यस्तताओं व जिम्मेदारी के बावजूद, शेखर की पसंद व खुशी को उन्होंने कभी हाशिए पर नहीं रखा था। इसीलिए शेखर सभी ओर से तृप्त व खुश थे। यही उनकी सफल गृहस्थी का राज था। क्षितिज पाँच वर्ष का हुआ, तब हेमंत के लिए रिश्ते आने लगे। उन्हें लगा, अब उनकी जिम्मेदारी कुछ हल्की होगी। एक दिन हेमंत ने कहा, "भाभी, मैं ऑफिस में साथ काम करने वाली लता से शादी करना चाहता हूँ। आप शेखर दादा से बात कीजिए ना।"
उन्होंने शेखर को मना लिया। उनका निर्णय वैसे भी कैसे अमान्य होता। बड़ी धूमधाम से लता को देवरानी बनाकर लाई। हनीमून से लौटते ही लता ने कहा, "भाभी, हेमंत ने मुझे आपके बारे में सब बताया है। आप उनके लिए माँ से बढ़कर हैं अतः आप जैसा कहेंगी, मैं वैसा ही करूँगी। बताइए मैं आपकी क्या मदद करूँ?"
उन्हें फिर बड़प्पन ओढ़ना पड़ा। लता भी ननदों की तरह उनकी बेटी ही बनकर रह गई। जिम्मेदारी का बोझ किंचित भी हल्का न हुआ। फिर छोटे गिरीश की शादी हो या कविता व सरिता की, हर बार रिश्ता तय करने से लेकर बिदाई तक और पहली मंगलागौर हो या संक्रांत, पूरण बनाना हो या तिल के गहने सब कुछ उन्हें ही आगे रहकर करना पड़ता। सच पूछो तो वे इस बड़प्पन की आदी हो गई थीं। फिर भी मन के एक कोने में चाह थी, 'सबसे मुक्त हो कुछ दिन गुजारूं। सुबह-शाम क्या बनाना है, यह प्रश्न न सताए।' 'घर में सब ठीक-ठीक हो रहा है' का अव्यक्त बोझ उन पर न रहे।
प्लेट का खाना खत्म हो गया था। भूख शांत हुई या नहीं कौन जाने। उन्होंने बर्तन मांजने के लिए निकाले, तभी महरी भी आ गई। दरवाजा खोल वे सोफे पर ही पसर गईं। सभी ननदों की शादियां हो गई हैं, सब अपने परिवारों में खुश हैं, सुखी हैं। सुविधानुसार साल में आठ-दस दिन रहकर चली जाती हैं। हेमंत व लता मुंबई शिफ्ट हो गए हैं व छोटा गिरीश, गरिमा के साथ अमेरिका में बस गया है।
उम्र की चालीसवीं पायदान चढ़कर वे थोड़ी थकान महसूस करतीं। सुबह क्षितिज को पढ़ने उठाना, उसके स्वास्थ्य का ध्यान रखना, उसके समयानुसार नाश्ता-खाना बनाना। सागर भी पीछे-पीछे था ही। वे फिर स्वयं को भुला बैठीं। शेखर की नौकरी की बढ़ती जिम्मेदारियों के कारण, शुरू से घर के हर फ्रंट पर उन्हें ही लड़ना होता था। क्षितिज ने एमबीबीएस में प्रवेश लिया फिर एमएमएस होगया। वे लगातार आठ-नौ वर्ष गृहस्थी में डूबी रहीं। साथ-साथ सागर की इंजीनियरिंग की पढ़ाई।
कई बार उन्हें लगता कि काश! एक बेटी होती। जो कभी तो उनके कामों में हाथ बंटाती। फिर सोचतीं - 'ननदों व देवरानियों को तो बेटियों की तरह रखा, उन्होंने मदद भी की, लेकिन जिम्मेदारी तो हमेशा के लिए उन्हीं की होकर रह गई है। जब शेखर या बेटों से इस बारे में कहतीं, तो क्षितिज तो नहीं कहता, लेकिन शरारती सागर बोल पड़ता, बोल मम्मा, क्या करना है? अभी फटाफट करता हूं। तू आराम से बैठ।' तो शेखर कहते 'खाना महाराज बनाते हैं, झाड़-पोंछा-बर्तन सब नौकर करते हैं, रामदीन बगीचे की देखभाल के साथ घर की साफ-सफाई भी कर लेता है, अब तुम घर से बंधी ही रहना चाहो तो कोई क्या करे.' लेकिन कोई उनका दर्द नहीं समझ पाता। वे काम से नहीं, जिम्मेदारी के बोझ से मुक्ति चाहती थीं।
जबसे क्षितिज एमएस हुआ था कई रिश्ते आने लगे थे। वे मन ही मन स्वप्न देखने लगती थीं कि उम्र के इस मोड़ पर तो उन्हें मुक्ति के अहसास का सुख अवश्य मिलेगा। क्षितिज ने उस दिन बताया था - मम्मा, मैं अपने से जूनियर, क्षमता को पसंद करता हूं। वह गाइनी में एमएस कर रही है। हम दोनों मिलकर नर्सिंग होम खोलना चाहते हैं।' धूमधाम से वे क्षमता को ब्याह कर ले आईं। दोनों हनीमून पर गए हैं और सागर एमटेक करने बेंगलुरू।
क्षमता एमएस कर रही है। वह हनीमीन से लौटते ही ड्यूटी संभालेगी। फिर ड्यूटी भी कैसी? दिन-रात की। और सारा जीवन ही मरीजों की सेवा। एमएस करते समय क्षितिज को सिर-आंखों पर लिया था। अब क्षमता एमएस करेगी तो क्या होगा?
फिर नर्सिंग होम का स्वप्न पूर्ण करने की चाहत में और भी व्यस्त हो जाएंगे। नर्सिंग होम खुलने पर तो जिम्मेदारियां और भी बढ़ जाएंगी। कल को बच्चे होंगे, वे भी उन्हें ही संभालने होंगे। उन्होंने सोचा, वे क्षितिज को कह देंगी - 'अब इस उम्र में मुझसे यह बोझ नहीं सहा जाएगा' पहले सास की गृहस्थी संभाली, अब बहू को संभालूं।
फिर सोचतीं - छि: छि:, कैसे कुविचार मन में ला रही हैं। सास के राज में तो परिस्थितियों ने उन्हें बना दिया था पर बहू से बड़ी तो वे हैं ही। सत्ता उन्होंने संभाली है, तो जिम्मेदारियां भी तो उठानी पड़ेंगी।
फोन की घंटी की घनघनाहट ने उन्हें वर्तमान में लौटने पर मजबूर किया। फोन क्षितिज का था - 'हेलो मम्मा, मैं क्षितिज। हम परसों सुबह की फ्लाइट से इंदौर आ रहे हैं।' उन्होंने फोन रखा व बुनाई बंद की।
क्षितिज व क्षमता के लौटने पर शाम को ढेर-सी बातें हुईं। रात को खाने में उन्होंने क्षमता से पूछकर, उसकी पसंद का सबकुछ बनवाया। रात को गप्पे लगाते साढ़े ग्यारह बज गए। सोते समय सुबह क्या-क्या करना है का पाठ दोहरातीं, नींद के आगोश में समा गईं।
रोज सुबह पांच बजते ही उठ जाती थीं। घड़ी देखी, साढ़े छह बज रहे थे। पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ था। शेखर भी बिस्तर पर नहीं थे। झटपट उठीं। भगवान को नमन कर किचन की ओर झांका। देखा, क्षमता गुलाबी नाइट में चाय बना रही थी। डाइनिंग टेबल पर शेखर व क्षितिज अखबार पढ़ रहे थे। क्षमता ने मुस्कुराकर उनका स्वागत किया व चाय का प्याला थमाया।
चाय समाप्त कर जब वे नाश्ते का इंतजाम करने किचन की ओर मुड़ने लगीं, तो क्षमता ने उनका कंधा पकड़कर कुर्सी पर बिठाते हुए कहा, 'मम्मा अब आप निश्चिंत हो जाइए। घर-गृहस्थी की चिंता अपनी इस बेटी पर छोड़ दीजिए। आप और डैडी के लिए हमने महाबलेश्वर में बुकिंग की है। सागर परसों बेंगलुरू से आने वाला है न उसका पूरा ख्याल मैं रखूंगी।
बरसों से इस वाक्य के लिए तरसता मन, तृप्त हो गया। लेकिन आंखों को नम किए बिना नहीं माना। आंखों से उमड़ते तूफान को छुपाने, वे पहली बार दिन में ही शयनकक्ष की ओर मुड़ गईं। तीस वर्ष बाद, पुन: नवविवाहिता-सी, पुन: कुछ संकोच से भरीं और अत्यधिक प्रफुल्लित।