कोरा सम्मान, कैसे बने काम

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चंबल में ठेठ देहाती अंदाज वाली एक कहावत "पाँव पूजे हैं मूड़ नहीं" खूब प्रचलित है। पर इस कहावत पर जितना अमल इस तथाकथित कुख्यात धरती पर नहीं होता, उससे कहीं अधिक शिक्षकों के मामले में प्रदेश सरकारें अमल करती रही हैं। पाँच सितंबर को पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस 'शिक्षक दिवस' पर तमाम सरकारी, गैरसरकारी आयोजनों में शिक्षक पूजे जाएँगे।

ऐसा भी कतई नहीं है कि पूरी की पूरी शिक्षक बिरादरी दूध की धुली हो। इस बिरादरी में भी वे सारी बुराइयाँ कमोबेश आई हैं, जो समाज के अन्य वर्गों में आई हैं।

लेकिन कहीं न कहीं उनकी बुराइयों की जड़ में राजनीति और अफसरशाही का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यहाँ यह सवाल लाजमी है कि यदि शिक्षक बिरादरी में भी कमोबेश वे बुराइयाँ आई हैं, जो समाज के अन्य तबकों में आई हैं तो फिर किस कारण शिक्षक दिवस पर शिक्षक पूजे जाएँ? इस सवाल का जवाब भी एक न एक दिन शिक्षकों को बताना पड़ सकता है। फिलहाल भारतीय प्राचीन परंपरा में गुरु का स्थान पारब्रह्म से भी ऊँचा है और कहीं न कहीं इसी परंपरा का आधुनिक परिवेश में निर्वहन शिक्षक दिवस के रूप में किया जा रहा है।

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दिन-दिवस की इसी परंपरा के क्रम में तमाम सरकारी-गैर सरकारी आयोजनों में जगह-जगह शिक्षक पूजे जाएँगे। उन्हें राष्ट्र निर्माता का दर्जा देकर उनकी शान में तमाम कसीदे पढ़ दिए जाएँगे, पर कहीं न कहीं उनका यह सम्मान 'औपचारिकता' वाला होगा। शिक्षक भी जानते हैं कि आज जो लोग उन्हें राष्ट्र निर्माता बता रहे हैं, वे सालभर उनके पीछे लट्ठ लेकर दौड़ेंगे।

शिक्षक दिवस को छोड़कर वर्षभर शिक्षकों की पीड़ा को कोई याद तक नहीं करेगा। यदि यह 'तथ्य' झूठ होता तो सरकारें व्यावसायिक अंदाज में शिक्षकों की तैनाती शिक्षाकर्मी, गुरुजी, संविदा और अध्यापक जैसे खोखले सम्मान वाले पद पर नहीं करतीं।

शिक्षकों को स्कूल भेजने से पहले सरकारें यह जानतीं कि राष्ट्र का भविष्य और 'राष्ट्र निर्माता' को बैठने लायक सुविधाजनक स्थिति भी है या नहीं। शायद ही कुछ विरले प्राइमरी विद्यालयों में विद्युत की व्यवस्था हो, पर शासन के अधिकारियों ने कभी यह नहीं सोचा कि आखिर बिना हवा, पानी शिक्षक कैसे पूर्ण मनोदशा में राष्ट्र का भविष्य गढ़ सकता है।

मध्यप्रदेश में शिक्षकों को शिक्षाकर्मी बनाने का जो गैर दूरदर्शी कदम उठाया गया, उस पर राजनीति तो खूब हुई, पर शिक्षकों को उनका वाजिब हक किसी ने नहीं दिलाया। आज भी इस श्रेणी में शामिल शिक्षकों को उतना वेतन नहीं मिल रहा, जितना कि शिक्षा विभाग के नियमित भृत्यों, लिपिकों को मिल रहा है।

सवाल यह उठता है कि क्या कोरे सम्मान से शिक्षकों, उनके परिजनों का पेट भर जाएगा। क्या एक ही काम पर तैनात शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, गुरुजी और अब अध्यापक संवर्ग अपने वेतन की तुलना विभाग के नियमित शिक्षकों से नहीं करेंगे? क्या वे पढ़ाने की जगह अपने हक के लिए कलप-कलपकर लड़ते, झगड़ते संघर्षरत नहीं रहेंगे?

सवाल केवल समान वेतन प्रणाली का ही नहीं, सवाल उस बेगारी का भी है, जिस बेगारी से जनशिक्षा अधिनियम में शिक्षकों को मुक्ति दी गई थी। यह अधिनियम भी कागजों में धरा रह गया है। किसी न किसी बहाने या नियम की आड़ में शिक्षक बिरादरी से जमकर बेगारी कराई जाती रही है।

जहाँ तक सम्मान की बात है तो जितने निलंबन, कार्रवाइयाँ, दंड और फटकार इस बिरादरी के हिस्से में आती हैं, उतनी अन्य किसी में नहीं। इस सब में वही चंबल की कहावत "पाँव पूजे हैं मूड़ नहीं" पर अमल होता है। हर अधिकारी शिक्षकों पर ऐसे बिगड़ जाता है, जैसे 'शिक्षक' शिक्षक न होकर उनका व्यक्तिगत गुलाम हो।

आज जरूरत इस बात की है कि शिक्षक अपनी गरिमा को बनाएँ इस पेशे में केवल टाइम पास के लिए आए लोगों को गुरु पद की जिम्मेदारी का अहसास कराएँ। वहीं शासन शिक्षक और कर्मचारी में भेद को जाने और उनकी जरूरतें भी समझे।

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