चुनाव के शोर में पतित पावनी गंगा की बात रह गई अनकही

लखनऊ। उत्तरप्रदेश में विकास की गंगा बहाने के विभिन्न दलों के दावों के बीच राज्य विधानसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश समेत देश के 4 राज्यों की जीवनरेखा मानी जाने वाली पतित पावनी गंगा के शुद्धिकरण का मुद्दा छूमंतर हो गया है।

विधानसभा चुनाव के 2 चरणों की समाप्ति के बाद नेताओं का काफिला अब ठेठ गंगा पट्टी वाले जिलों से होकर गुजर रहा है। गंगा को सबसे ज्यादा प्रदूषित करने के लिए कुख्यात कानपुर और उन्नाव में तीसरे चरण में 19 फरवरी को वोट डाले जाएंगे जबकि चौथे चरण में संगम नगरी इलाहाबाद में मतदान होगा। 8 मार्च को आखिरी चरण में गाजीपुर और वाराणसी में वोटिंग होगी।
 
चुनाव में विकास और जात-पात को लेकर एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की झड़ी लगी है। मतदाताओं के दिलोदिमाग में छाकर प्रदेश की सत्ता हासिल करने के लिए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) समेत कई छोटे-बड़े दलों के दिग्गज जोर आजमाइश में जुटे है। बिजली, पानी, सड़क, रोजगार मुहैया कराने के साथ सुशासन देने के बड़े-बड़े वादे किए जा रहे है। इन सबके बीच सूबे की बड़ी आबादी को जीने के साजोसामान उपलब्ध कराने वाली गंगा मैली-कुचैली होकर नाले की शक्ल में बहते देखी जा सकती है।
माघ के पवित्र महीने में इस दौरान वसंत पंचमी, माघी पूर्णिमा समेत कई धार्मिक अवसरों पर श्रद्धालुओं ने गंगा में डुबकी भी लगाई और घाटों पर हजारों टन गंदगी छोड़कर चलते बने। दूसरी ओर, चर्मशोधन इकाइयों और औद्योगिक कचरे के अलावा घरों से निकलने वाला अपशिष्ट भी गंगा में समाता रहा और जिम्मेदार अधिकारी इस ओर आंख मूंदकर चुनाव में अपने कर्तव्य को पूरी शिद्दत से निभाते रहे।
 
गंगा तीरे बसे शहरों के विकास में गंगा की विशेष भूमिका है। दशकों तक एशिया के मैनचेस्टर कहे जाने वाले कानपुर में उद्योगों की फसल को लहलहाने में गंगा का महती योगदान है जबकि धार्मिक नगरी इलाहाबाद और वाराणसी में गंगा लाखों लोगों को पर्यटन समेत अन्य रोजगार मुहैया कराती है। 
 
गंगा की उपजाऊ मिट्टी और पानी से सूबे में लहलहाती फसल लाखों किसान परिवारों के जीवन में उजाला बनाए हुए है। गंगा की गोद में दुर्लभ प्रजाति के जीव-जंतु अठखेलियां करते हैं और पर्यावरण संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके बावजूद दशकों से गंगा का दिनोदिन मैला होता जल पर्यावरणविदों, गैरसरकारी संगठनों और सरकारों के लिए चिंता का सबब बना हुआ है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार उत्तरप्रदेश की 12 प्रतिशत बीमारियों की वजह गंगा का दिनोदिन प्रदूषित होता जल है। 
 
गंगा के जल में आर्सेनिक, फ्लोराइड एवं क्रोमियम जैसे जहरीले तत्व बड़ी मात्रा में मिलने लगे हैं। कानपुर शहर में कुकरमुत्ते की तरह फैली अनगिनत चर्मशोधन इकाइयों, रसायन संयंत्रों, कपड़ा मिलों, डिस्टिलरी, बूचड़खानों और अस्पतालों का अपशिष्ट गंगा के प्रदूषण के स्तर को और बढ़ा रहा है।
 
केंद्रीय जल आयोग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार गंगा का पानी तो प्रदूषित हो ही रहा है, साथ ही बहाव भी कम होता जा रहा है। यदि यही स्थिति रही तो गंगा में पानी की मात्रा बहुत कम व प्रदूषित हो जाएगी। देश के प्रमुख धार्मिक शहर वाराणसी की पहचान गंगा के निर्मल जल पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
 
रिपोर्ट के अनुसार गंगा नदी में ऑक्सीजन की मात्रा भी सामान्य से कम हो गई है। वैज्ञानिक मानते हैं कि गंगा के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्म जीवों को समाप्त कर देते हैं, मगर प्रदूषण के चलते इन लाभदायक विषाणुओं की संख्या में भी काफी कमी आई है। इसके अतिरिक्त गंगा को निर्मल व स्वच्छ बनाने में सक्रिय भूमिका अदा कर रहे कछुए, मछलियां एवं अन्य जल-जीव समाप्ति की कगार पर हैं।
 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 में सत्तासीन होते ही 'नमामि गंगे' कार्यक्रम शुरू किया। 'नमामि गंगे' मिशन के लिए तकरीब 50,000 करोड़ के खर्च का अनुमान है। पहले 5 साल के लिए 20,000 करोड़ का प्रावधान है। यह राशि बीते 25-30 सालों में गंगा सफाई पर खर्च की गई राशि से 4 गुणा ज्यादा है।
 
विशेषज्ञों के अनुसार गंगा के घाटों के सौन्दर्यीकरण और इससे संबंधित समूची योजना के क्रियान्वयन में तकरीबन 20 साल का समय लग सकता है। गंगा में प्रदूषण की निगरानी कर रही राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने कानपुर में गंगा जल के प्रदूषण पर चिंता जताई। टेनरीज से निकले अपशिष्ट में क्रोमियम 70 मिलीग्राम प्रतिलीटर और टोटल सॉलिड सस्पेंडेड 4,000 मिलीग्राम प्रतिलीटर निकल रहा था।
 
गौरतलब है कि कानपुर शहर में शोधन क्षमता 9 एमएलडी की है लेकिन शहर की 402 टेनरीज से रोजाना 50 एमएलडी पानी निकल रहा है। राष्ट्रीय चर्म अनुसंधान संस्थान के अधिकारियों के अनुसार असलियत में 41 एमएलडी पानी बिना सफाई के सीधे गंगा में गिर रहा है।
 
गंगा की शुद्धि के लिए पहला गंगा एक्शन प्लान 1985 में अस्तित्त्व में आया, जो तकरीबन 15 साल तक चला और इसे मार्च 2000 में बंद कर दिया गया, क्योंकि कामयाबी आशा के अनुरूप नहीं मिली। इसमें कुल मिलाकर 901 करोड़ रुपए खर्च हुए। इसी दौरान 1993 में यमुना, गोमती और दामोदर नदियों को मिलाकर गंगा एक्शन प्लान 2 बनाया गया, जो असल में सन् 1995 में प्रभावी हो सका। इसे सन् 1996 में एनआरसीपी में विलय कर दिया गया।
 
गंगा को तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार द्वारा राष्ट्रीय नदी घोषित किए जाने के बाद फरवरी 2009 में राष्ट्रीय नदी गंगा बेसिन अथॉरिटी का गठन किया गया जिसमें गंगा के साथ-साथ यमुना, गोमती, दामोदर व महानंदा को भी शामिल किया गया। वर्ष 2011 में इस अथॉरिटी को एक अलग सोसाइटी के रूप में पंजीकृत किया गया।
 
यहां यह गौरतलब है कि 2014 तक गंगा की सफाई पर कुल मिलाकर 4,168 करोड़ रूपए स्वाहा हो चुके थे जबकि कामयाबी केवल 2,618 एमएलडी क्षमता के अलावा नगण्य रही। बहुतेरे एसटीपी देखरेख के अभाव में, बहुतेरे यांत्रिक खराबी की वजह से और बहुतेरे समय पर बिजली आपूर्ति न हो पाने के कारण बंद हो गए।
 
गंगा के किनारे मेले और कुंभ-महाकुंभ जैसे आयोजन होते हैं। इन अवसरों पर करोड़ों-करोड़ श्रद्धालु-धर्मभीरू भक्त गंगा में डुबकी लगाकर अपना जीवन धन्य मानते हैं। रोजाना की बात तो दीगर है, इन अवसरों पर हजारों टन पूजन सामग्री गंगा में प्रवाहित होती है।
 
गंगा किनारे शवदाह और उसके बाद उसकी अस्थियों का विर्सजन सनातन धर्म में पुण्य-कर्म माना जाता है। इससे होने वाली गंदगी से गंगा के घाट पटे रहते हैं। मानसून में गंगा का रौद्र रूप बाढ़ के रूप में दिखाई देता है।
 
यही वजह है कि सरकार ने 'नमामि गंगे' मिशन की कामयाबी की जिम्मेदारी सबसे ज्यादा गंगा किनारे रहने बसने वाले लोगों और आस्थावान धर्मभीरू लोगों पर डाली है। उसने इसे योजना कहें या मिशन की कामयाबी के लिए सामाजिक भागीदारी को अहमियत दी है।
 
पर्यावरणविद डॉ. बीडी त्रिपाठी का कहना है कि मोदी सरकार भी पुरानी योजनाओं को ही आगे बढ़ा रही है। गंगा की सबसे गंभीर समस्या पानी की कमी है। कई जगह गंगा नदी तालाब के रूप में परिवर्तित हो गई है। गंगा की निर्मलता पूरी तरह से उसकी अविरलता पर निर्भर है। (वार्ता)

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