दंगल की तिथि की घोषणा के साथ ही अटकलों, आकलनों व सर्वेज का बाजार गर्म हो चुका है। लेकिन अगर जमीनी हकीकत को केंद्र में रखकर आज की तारीख में ही मुद्दे की बात की जाए तो उत्तरप्रदेश के आसन्न चुनाव में जाति और धर्म पर आधारित मतों के ध्रुवीकरण के मामले में भाजपा और उसके रणनीतिकार अपने विरोधियों से पिछड़ते दिख रहे हैं।
भाजपा धर्म के नाम पर गोलबंदी के अपने प्रयासों के लिए ब्लॉक व प्रखंड स्तर पर जी-तोड़ प्रयास करती तो दिख रही है लेकिन 2014 के आम चुनावों-सी सफलता अभी उसे हासिल होते नहीं दिख रही है। 2014 के आम चुनाव के समय केंद्र की यूपीए सरकार की नीतियों, तुष्टिकरण की राजनीति, भ्रष्टाचार, महंगाई इत्यादि के खिलाफ जनाक्रोश अपने चरम पर था जिसका फायदा उठाते हुए नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने जनता के साथ एक संवाद कायम करने में सफलता हासिल की थी और उस जनाक्रोश को अपने पक्ष के मतों में तब्दील किया था।
लेकिन इस बार ऐसी परिस्थितियां नहीं हैं उल्टे मोदी सरकार के निर्णयों, विशेषकर नोटबंदी व कॉर्पोरेट फ्रेंडली नीतियों को लेकर जनता के बीच विक्षोभ का माहौल जरूर दिखता है। 'मोदी-मैजिक' के कद्रदान अब काफी कम ही दिखाई देते है, यहां तक कि मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में ही 'मोदी-मैजिक शो' को ड्रामा व छलावा मानने बताने वालों की तादाद दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है।
अखिलेश सरकार के खिलाफ भाजपा के हाथों ऐसा कुछ विशेष नहीं है जिसे भुनाया जा सके, उल्टे समाजवादी कुनबे की उठापटक से अखिलेश के प्रति जनता के बीच एक सहानभूति का माहौल कायम होते दिखता है। समाजवादी बिखराव से अखिलेश को कोई बड़ा नुकसान होते नहीं दिखता, यादव मतदाताओं में कोई बड़ा बिखराव होगा इसकी संभावना भी काफी कम है। अगर कांग्रेस और अखिलेश के बीच कोई ऐलानिया या गुप्त गठजोड़ होता है (मौजूदा परिस्थितियों में इसकी संभावना प्रबल है) तो ये भाजपा के लिए एक बड़ा झटका होगा।
पश्चिमी उत्तरप्रदेश में धर्म की राजनीति को आधार बनाकर अपने पक्ष में मतों की गोलबंदी करा पाने में भाजपा को अभी तक सफलता मिलती नहीं दिखती है, वहीं पूर्वी उत्तरप्रदेश में जातिगत समीकरणों को भुनाने के मामले में बसपा और सपा भाजपा से आगे निकलते दिख रही हैं।
हिन्दू मतों की गोलबंदी की कोई संभावना दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती, वहीं प्रदेश का मुसलमान मतदाता अभी 'वेट एंड वॉच' की स्थिति में रहते हुए भाजपा के खिलाफ एकमुश्त वोट करने का मन बना चुका है। भाजपा के पास मुख्यमंत्री के रूप में किसी चेहरे का नहीं होना भी उसके समर्थक जातिगत गुटों में भ्रम की स्थिति कायम कर रहा है।
विरोधियों के एडवांटेज को अपने एडवांटेज के रूप में तब्दील कर लेना ही चुनावी राजनीति में सफलता की गारंटी है और इस बार उत्तरप्रदेश में इस फ्रंट पर मोदी और उनकी टीम पिछड़ती दिख रही है। यही 2015 में बिहार में भी हुआ था और अगर बिहार की कहानी की पुनरावृत्ति यूपी में भी हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं...! वैसे एक बार फिर दुहराऊंगा कि चुनावी गंगा में अभी काफी पानी बहना शेष है।