विविधताओं से भरे इस देश में हिन्दी को आज भी वह दर्जा नहीं मिल पाया है जो उसे मिलना चाहिए था। अपने ही देश में उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा पाने के लिए इंतजार करना पड़ रहा है,लड़ना पड़ रहा है,खुद को साबित करना पड़ रहा है।
फिर भी संघर्ष के पथ पर चलते हुए दिन ब दिन हिन्दी और तेजस्वी हो रही है। देश की क्या कहें,हिन्दी ने तो अब सरहद के पार जाकर अपनी धाक जमा ली है। आज पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लेकर दक्षिण तक,सारी दुनिया हिन्दी का लोहा मान रही है। लेकिन हम हैं कि अब भी इसकी अहमियत को पहचान नहीं पाए हैं या हकीकत से मुंह चुरा रहा हैं। जिस हिन्दी की महत्ता को हम इतने दिनों बाद भी नहीं पहचान पाए हैं उसकी खासियत को हमारे महापुरुषों ने बहुत पहले ही जान लिया था। आइए जानते हैं कि हिन्दी के बारे में क्या थे उनके विचार-
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'प्रान्तीय ईर्ष्या-द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिन्दी प्रचार से मिलेगी,उतनी दूसरी किसी चीज से नहीं मिल सकती। अपनी प्रान्तीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए,उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं। पर सारे प्रान्तों की सार्वजनिक भाषा का पद हिन्दी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है।'
-सुभाषचन्द्र बोस
- हिन्दी के विरोध का कोई भी आन्दोलन राष्ट्र की प्रगति में बाधक है।
-सुभाष चन्द्र बोस
-'मैं उन लोगों में से हूं,जो चाहते हैं और जिनका विचार है कि हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है।'
-बाल गंगाधर तिलक
- हिन्दी किसी के मिटाने से मिट नहीं सकती।
-चन्द्रबली पाण्डेय
- है भव्य भारत, हमारी मातृभूमि हरी भरी,हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी
-मैथिलीशरण गुप्त
- हिन्दी भारतवर्ष के हृदय-देश स्थित करोड़ों नर-नारियों के हृदय और मस्तिष्क को खुराक देने वाली भाषा है -
हजारीप्रसाद द्विवेदी
- हिन्दी को गंगा नहीं बल्कि समुद्र बनना होगा
-विनोबा भावे
- हिन्दी को संस्कृत से विच्छिन्न करके देखने वाले उसकी अधिकांश महिमा से अपरिचित हैं
-हजारीप्रसाद द्विवेदी
- हिन्दी एक जानदार भाषा है। वह जितनी बढ़ेगी देश का उतना ही नाम होगा।