कोख का मोल, ममता अनमोल

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कहते हैं ममता का कोई मोल नहीं होता है। इस प्रकृति ने जहाँ औरत को बहुत सारी नैमतों से नवाजा है, वहीं उसकी झोली में ममता डालकर उसे परिपूर्णता भी प्रदान की है।

जो औरत नौ माह तक दु:ख-तकलीफें सहकर किसी भ्रूण को अपने गर्भ में पालती है, उससे उसका आत्मीय लगाव होना सहज ही है। वहीं दूसरी ओर वे औरतें जिनकी गोद विवाह के सालों बाद तक सूनी ही रहती है, अपनी ममता को आँसुओं के माध्यम से अभिव्यक्त कर वे दिन-रात अपनी गोद में नन्हें शिशु की अठखेलियाँ देखने के सपने सँजोती रहती हैं।

  जहाँ एक ओर 'किराए की कोख' की तकनीक बाँझपन का अभिशाप झेल रही महिलाओं के लिए एक सुखद संदेश लाई है वहीं इसने सामाजिक रिश्तों के संबंध में भी कई सवाल खड़े कर दिए हैं, जो अब तक अनुत्तरित हैं।      
संतानहीनता की ‍‍विकट परिस्थिति में 'किराये की कोख' का कानून उन महिलाओं के लिए उम्मीद की किरण बनकर के आया है जिनकी गोद अब तक सूनी थी।

वहीं दूसरी ओर कानून ने महिला की कोख को 'किराए की कोख' और उसकी ममता को एक 'औपचारिकता' बनाकर रख दिया है जिसने अपने पीछे कई सवालों को जन्म दिया है।

आज भी इस देश के कई परिवारों में 'बाँझपन' की उलाहना सहते-सहते असंख्य महिलाएँ आत्महत्याएँ कर लेती हैं या फिर उनके पति अपने वंशज की प्राप्ति हेतु दूसरा विवाह कर लेते हैं।

इस कारण सामाजिक रिश्तों में दरार व असंतोष पनपता है, परंतु आज विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि अब कुछ भी असंभव नहीं रहा है। इनमें से विज्ञान का एक नया प्रयोग किराए की कोख का है, जिसके कारण आज अनेक बाँझ औरतों की सूनी गोद नन्हे-मु्न्नों से भर गई है।

'बाँझपन' का इलाज आज विज्ञान द्वारा चिकित्सा के क्षेत्र में की गई नई तकनीकों की खोज से सहज बन पाया है। तकनीकों के कंधों पर पैर रखकर अब हमने सामाजिक और नैतिक समस्याओं का हल खोज निकाला है।

कहने-सुनने में यह भले ही असहज लगे परंतु यह विज्ञान ही है जिसने किराए की कोख अथवा 'टेस्ट ट्यूब बेबी' के रूप में ‍निसंतान दंपतियों को एक नया विकल्प दिया है। हालाँकि ये दोनों ही इलाज बहुत महँगे हैं लेकिन संतान की चाह रखने वालों के लिए ये बेहतर विकल्प भी है। इससे कई परिवार बिखरने से बचे है।

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नि:संतान दंपतियों के लिए संतानप्राप्ति के दो तरीके हैं। इनमें से एक परखनली शिशु तो दूसरा किराये की कोख है। दूसरे तरीके में कोई अन्य महिला नि:संतान दंपत्ति का भ्रूण अपने गर्भ में रखकर उनके शिशु को जन्म देती है।

जहाँ एक ओर 'किराए की कोख' की तकनीक बाँझपन का अभिशाप झेल रही महिलाओं के लिए एक सुखद संदेश लाई है वहीं इसने सामाजिक रिश्तों के संबंध में भी कई सवाल खड़े कर दिए हैं, जो अब तक अनुत्तरित हैं।

* मनमाने रुपयों की वसूली :-
बाँझपन के अभिशाप से मु‍‍‍क्ति पाने के लिए 'किराए की कोख' तो मिल जाती है मगर उस कोख का किराया इतना अधिक व मनमाना रहता है कि इस सुविधा का लाभ केवल धनाढ्य वर्ग के लोग ही उठा पाते हैं।

  'किराए की कोख' से संबंधित विधेयक के पारित होने के पश्चात ही कई ऐसे मामले सामने आए जिसमें सरोगेट मदर (किराए की माँ) का अपने गर्भ में पल रहे बच्चे से भावनात्मक लगाव हो गया तथा वह उसे उसके वास्तविक माता-पिता को लौटाने को राजी नहीं हुई।      
आम नि:संतान दंपति तो इसके लाभ से वंचित रहकर अंततोगत्वा नि:संतान होने का सामाजिक दंश झेलते-झेलते इस कदर टूट जाते हैं कि उसकी परिणति परिवार के बिखराव या फिर अप्रत्याशित घटनाओं के रूप में सामने आती है।

भारत में आजकल 'किराए की कोख' भी व्यवसायीकरण की आँधी से अछूती नहीं रही है। यहाँ किराए की कोख का शुल्क 10 लाख रुपए तक हो सकता है।

*क्या कहता है कानून? :-
'किराये की कोख' को विधि द्वारा भी मान्यता प्रदान की गई है। इसके लिए बनाए गए विधेयक में कुछ प्रस्ताव भी पारित हुए हैं जो आज तक विवादास्पद हैं। इन प्रस्तावों के अनुसार-
* शुक्राणु केवल शुक्राणु बैंक से और अंडाणु केवल पत्नी के परिवार से लिए जा सकेंगे।
* समलैंगी, किन्नर तथा अकेली औरत भी किराए पर कोख ले सकती है।
* स्वयंसेवी संगठन इन पर निगरानी रखेंगे।
* किराए की कोख के लिए विज्ञापन भी दिया जा सकता है।

* भावनात्मक लगाव :-
माँ और बच्चे का रिश्ता आत्मीयता का रिश्ता होता है क्योंकि जो माँ नौ माह तक अपनी कोख में जिस शिशु को आश्रय देती है, उस शिशु से भावनात्मक रूप से जुड़ जाती है फिर चाहे वह सरोगेट मदर (किराए की माँ) ही क्यों न हो?

'किराए की कोख' से संबंधित विधेयक के पारित होने के पश्चात ही कई ऐसे मामले सामने आए जिसमें सरोगेट मदर (किराए की माँ) का अपने गर्भ में पल रहे बच्चे से भावनात्मक लगाव हो गया तथा वह उसे उसके वास्तविक माता-पिता को लौटाकर अपना वादा पूरा करने को राजी नहीं हुई।

ऐसी स्थिति में यह विधेयक, एक तरफ कानून और दूसरी तरफ आत्मीयता के रिश्ते के कारण सवालों के घेरे में आ खड़ा हुआ है।