तू मेरा दुल्हा, मैं तेरी दुल्हन

NDND
विवाह को जहाँ जन्म-जन्मांतर का रिश्ता कहा जाता है वहीं कुछ लोग इसे औपचारिक रिश्ता समझकर इन संबंधों की अहमियत को नहीं समझ पाते हैं।

यही वजह है कि कई बार इस अटूट रिश्ते की डोर एक के साथ टूटकर दूसरे के साथ जुड़ जाती है और विवाह जैसा पवित्र बंधन उपहास बन गुड्डे-गुडियों का खेल बन जाता है।

भारत में कई जातियाँ व जनजातियाँ ऐसी हैं, जो आज भी पिछड़ेपन की गिरफ्त में है। आज भी कई रूढि़वादी रीति-रिवाज इन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने में अवरोध बन रहे हैं।

ऐसे ही रूढि़वादी रीति-रिवाजों का शिकार है- राजस्थान के कुछ निम्न तबके के लोग, जो चंद रुपयों के खातिर अपनी बीवियों और बेटियों की खरीद-फरोख्त से भी गुरेज नहीं करते। शायद इसीलिए यहाँ एक साल में महिलाओं के कई पति और कई पते बदल जाते हैं।

  रिश्तों की अहमियत को ताक में रखकर जिंदगियों का सौदा करने की रूढि़वादिता इन लोगों को आज तक पिछड़ेपन के अंधकार से उबार नहीं पाई है। आज भी ग्रामीण राजस्थान में बाल विवाह, बहू विवाह आदि सामाजिक कुरीतियाँ प्रचलित है।      
26 वर्षीय कमला गुर्जर की अब तक चार बार बाबुल के घर से बिदाई हो चुकी है। पहली शादी कमला ने घर से भागकर की थी, जिसे भी वह निभा नहीं पाई।

अभी वह अपने तीसरे पति श्यौजी गुर्जर के साथ रह रही है लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं कि कमला का यह दांपत्य बंधन और कितने दिनों तक निभ पाएगा। कमला के पिछले नाते की रकम करीब एक लाख रुपए थी।

इसी प्रकार अपने जीवन के 40 बंसत देख चुकी संतोष की भी यही कहानी है। संतोष की अब तक तीन शा‍दियाँ हो चुकी हैं। इनके पिछले नाते की रकम 19 हजार रुपए थी।

चौंकाने वाली बात तो यह है कि एक दिन के लिए इनका सौदा इनकी दुगुनी उम्र के आदमी के साथ कर दिया गया। अब यह जगदीश नामक आदमी के साथ जीवनयापन कर रही है।

राजस्थान की कल्पना मीणा, संजय बैरवा, माया गुर्जर, कालीबाई आदि अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं जो समाज में फैली सामाजिक कुरीति बहुविवाह की प्रथा व नाते की प्रथा को जाहिर कर रहे हैं।

  भारत में कई जातियाँ व जनजातियाँ ऐसी हैं, जो आज भी पिछड़ेपन की गिरफ्त में है। आज भी कई रूढि़वादी रीति-रिवाज इन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ने में अवरोध बन रहे हैं।      
चौंकाने वाली बात तो यह है कि सरकार इस प्रथा की लगातार अनदेखी कर रही है।

इससे पवित्र रिश्तों की मिठास मुनाफे के कारोबार की भेंट चढ़ गई है। नाते के रूप में मोटी रकम वसूलना तथा रूढि़गत रीति-रिवाजों के नाम पर औरतों की खरीद-फरोख्त करना अब इनके लिए एक खेल सा बन गया है।

रिश्तों की अहमियत को ताक में रखकर जिंदगियों का सौदा करने की रूढि़वादिता इन लोगों को आज तक पिछड़ेपन के अंधकार से उबार नहीं पाई है।

आज भी ग्रामीण राजस्थान में बाल विवाह, बहू विवाह आदि सामाजिक कुरीतियाँ प्रचलित है। जो इन लोगों को अब तक प्रगति से अछूता बना रही हैं।

विकास की राह में रोड़ा बनते इन लोगों की सोच आखिरकार कब बदलेगी और कब ये समाज की प्रगतिशील पीढ़ी के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकेंगे?

सरकार की जनकल्याणकारी नीतियाँ कब कागजों से निकलकर हकीकत का चोला पहनेगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।

वेबदुनिया पर पढ़ें