8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस न जाने कितने मंचों पर आयोजित होगा, परिसंवाद, गोष्ठियाँ, चिंतन और विमर्श होंगे। नारी-स्वतंत्रता जैसे शब्दों को भाषणों में इतना घीसा जाएगा कि अंतत: ब्लेकबोर्ड पर चलते-चलते खत्म हो जाने वाले चॉक की तरह वे शब्द अपना अर्थ-गौरव ही खो बैठेंगे।
किंतु नारी से जुड़ा सच इतना तीखा और मर्मांतक है कि संवेदना की कोमल त्वचा पर सूई की नोंक सा चुभता है। वैसे नारी से जुड़े प्रश्नों को उठाने की कोशिश करनी ही नहीं चाहिए, क्योंकि उससे संबंधित प्रश्न तो ऐसे हैं जो स्वत: ही सतह पर आ जाते हैं, लेकिन हमारी मानसिक सुन्नता और वैचारिक सुप्तता इस हद तक बढ़ चुकी है कि बलात्कार जैसी भयावक घटना भी हम उससे नहीं बल्कि धर्म से जोड़कर देखते हैं।
बलात्कार एक हृदय विदारक मुद्दा है, जिसे लेकर चिंतित सभी हैं - सरकार, समाज, संस्थाएँ और संगठन, लेकिन परिणाम, स्थिति और वास्तविकता आज भी वही है, जैसे पहले थे बल्कि पहले से और बढ़े हैं और ज्यादा विकृत हुए हैं।
जहाँ एक ओर ग्रामीण क्षेत्रों में पीड़ित महिलाएँ कुएँ में छलाँग लगा देती हैं, वहीं शहरी क्षेत्रों में घुट-घुटकर जीने को विवश कर दी जाती हैं। यदि ग्रामीण क्षेत्र में पीड़िता मुँह खोलती है तो डायन करार देकर पत्थरों से पीट-पीटकर मार डाली जाती है और शहरी क्षेत्रों में मुँह खोलती है तो तंदूर, मगरमच्छ, आग, पानी, तेजाब जैसे अनेक उपाय हैं उसका मुँह बंद करने के लिए।
बलात्कार ऐसी वीभत्स घटना है जिसमें पीड़ित महिला की मानसिक, हार्दिक, आत्मिक और शारीरिक क्षति का अनुमान लगाना भी दुष्कर है, लेकिन इस घृणित कृत्य के अतिरिक्त भी प्रतिदिन महिला अनेक घिनौने अनुभवों से गुजरती है। कभी बस में उसे घूरते, उस पर झुकते, उसके मुँह पर सिगरेट फूँकते बेशर्म आदमी मिलते हैं, जो पलटकर टोकने पर उसी की पीठ पर जलती सिगरेट चिपकाकर चलती बस से कूद जाते हैं तो कभी गंतव्य पर जाकर लड़की को पता चलता है कि विरोध का जवाब उसके कपड़ों पर छेदकर दिया गया है। कभी दुपहिया पर सवार लड़की के बाजू से मोटरसाइकिल पर सवार लड़के निकलते हैं और 'साइड' देने के बहाने उस पर हाथ फेरते हुए आगे बढ़ जाते हैं।
पिछले दिनों एक विकृत घटना की मैं प्रत्यक्षदर्शी रही, जिसे देखकर मेरा मानस काफी देर तक उद्वेलित-उत्तेजित रहा लेकिन मैं बस लज्जा से सिर झुकाकर रह गई। राजधानी के व्यस्ततम चौराहे पर एक विक्षिप्त महिला कुछ पुरुषों के घेरे में खड़ी होकर अपने शरीर से कपड़े उतार रही थी। चारों ओर एक घिनौना और शर्मनाक अट्टाहस गूँज रहा था। बुद्धिजीवी बेबस थे और पुलिस आनंद (?) में निमग्न थी। पास से गुजरती लड़कियाँ-महिलाएँ शर्म से दोहरी हो रही थीं। सरे बाजार स्त्रीत्व अपमानित हो रहा था और तमाम औरतें मानसिक रूप से बलत्कृत हो रही थीं लेकिन उन (ना)मर्दों की कुत्सित और निकृष्टतम मानसिकता 'असीम संतोष' को अनुभूत कर रही थी।
बहुत देर तक सुन्नावस्था में रही मैं। कुछ सोच-समझ नहीं सकी। विक्षिप्त कौन था? उस औरत के लिए तो समझ के सारे दरवाजे बंद थे। विक्षिप्त तो उन बेशर्म पुरुषों का घेरा था, जो संवेदनाओं को मुँह में चबाकर पान के पीक की तरह चौराहे पर थूक देते हैं। विक्षिप्त, वहाँ मौजूद पुलिस के वे जवान थे, जिन्होंने अपनी ही वर्दी की लाज नहीं रखी थी।
कहाँ, किस अदालत में सुनवाई होती है ऐसे बेशर्म, नीच और घृणित अपराधों की? महिला विकास, महिला उत्थान, महिला प्रगति, नारी उद्वार जैसे शब्द जब परिवेश की हवा में बहते हैं तो स्वाभाविक प्रश्न उठता है, विकास? कैसा विकास? किसका विकास? विकास का तो सिर्फ नाम उभरा है, बाकी तो इस नाम की 'जुगाली' हुई है। वरन इस देश में सिर्फ भ्रष्टाचार विकसित हुआ है, नारी के प्रति अपराधों में विकास हुआ है, अपराधियों का विकास हुआ है और बेशर्मी, बदनीयती और मनमानी का विकास हुआ है। नारी तो वहीं है, उसी स्थान पर, बलात्कार, अपहरण, छेड़छाड़, शोषण, अत्याचार, अपमान, दहेज, प्रताड़ना के बढ़ते आँकड़े उसी नारी से जुड़े हैं।
अंशत: नारी स्वतंत्र हुई है लेकिन दासता से पूर्णत: मुक्त नहीं हुई है। महिलाओं को सक्षमता, समर्थता जरूरी है लेकिन समाज में फैलते-पनपते एक बेशर्म-बेहूदा वर्ग को रोकना और उससे निपटने के उपाय करना उससे भी ज्यादा जरूरी है। परिवर्तन की जरूरत इस संकीर्ण समाज में है, व्यवस्थागत दुर्बलताओं में है, प्रशासनिक व्यवहार में है, तब नारी में परिवर्तन की जरूरत ही नहीं रहेगी।
आज हर कदम पर असुरक्षा का स्याह अँधेरा गहराया हुआ है। अनैतिकता का मकड़जाल फैलता जा रहा है और नारी सम्मान का प्रश्न उत्तरों के अभाव में विकराल ही हुआ है तो फिर हम किस उत्थान और उपलब्धि की बात करते हैं? न समाज बदला है, न नारी से जुड़े प्रश्न बदले हैं, न अत्याचार बदले हैं, न मानसिकता बदली है, फिर हम कैसे मान लें कि नारी तरक्की की राहों से बदलाव की दिशा में चल पड़ी है?
आखिर कब तक समाधानों को तलाशती नारी समस्याओं के अँधेरे में भटकती रहेगी? उसके सम्मान की ज्योति कब तक असभ्यता और अमर्यादा के भीषण झंझावात में काँपती-डगमगाती रहेगी? इस ज्योति को सहेजने-सँजोने के लिए कब तक संगठनों-संस्थाओं की कमजोर हथेलियों का सहारा लेना पड़ेगा? अपने सम्मान और सुरक्षा के प्रश्न पर क्यों वह आज भी शासन की मुखापेक्षी है?
प्रश्नों की भीड़ में समस्याओं के असंख्य चेहरे हैं। परित्यक्तता, विधवा, तलाकशुदा, विवाहिता, गृहिणी, कामकाजी और कुँवारी जैसे वर्गों में विभक्त हर औरत अपने-अपने दर्दों का पीड़ाजनक बोझ ढो रही है। आखिर किसने अधिकार दिया इन पुरुषों को अपनी पत्नी को अपमानित कर छोड़ देने का, जैसे खाना खाकर झूठी थाली छोड़ दी जाती है? इस समाज में पुरुषों की क्या कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं होती? मानवीयता, संवेदना, त्याग, संस्कार, परस्पर सम्मान जैसे भावों की अपेक्षा पुरुषों से क्यों नहीं की जाती? क्यों नहीं विवाहित पुरुषों के बदन पर ऐसे चिन्ह उकेरे जाते हैं, जिनके मौजूद रहते वे किसी और का ख्याल भी दिल में न लाने पाएँ?
क्यों उनके लिए विवाह इतना कच्चा बंधन है कि जब चाहे झटके से तोड़कर किसी और के पास चल दे और औरतों के लिए इतना अटूट कि मृत्युपर्यन्त उस की पूजा करे? हमारे शास्त्री, रिवाजों और परंपराओं में पुरुषों को ऐसे प्रतीक पहनाए जाने का उल्लेख क्यों नहीं है, जिनसे वे भी वैवाहिक संस्था की महत्ता और पवित्रता को उतनी ही गहराई से आत्मसात करें जितना एक स्त्री करती है? क्यों काठ की हंडी जैसी कहावतें स्त्रियों के लिए ही बनी हैं, किसी जलने वाले लट्ठ की तरह पुरुषों पर कहावतें क्यों नहीं बनतीं कि जिस चूल्हे में रख दिया, अब जीवन भर वही जलेगा? पर-पुरुष के पास जाने पर स्त्री को भद्दे संबोधनों से पुकारा जाता है तब पुरुषों के अन्य स्त्री के पास जाने पर वही संबोधन उनके लिए प्रयुक्त क्यों नहीं होते?
जब समानता, स्वतंत्रता जैसे मुद्दे उछले ही हैं तो पहले व्यवहार में ही समानता को प्राथमिकता देनी होगी। एक परित्यक्तता, तलाकशुदा और विधवा को समाज उपेक्षित, अपमानित और प्रताड़ित करता है, वहीं दूसरी ओर छोड़ने वाले पति को, विधुर को, पत्नी पर अत्याचार करने वाले व्यक्ति को समाज ससम्मान सार्वजनिक कार्यक्रमों और व्यक्तिगत स्तर पर बुलाता-बैठाता है। समाज को अपनी इस दोहरे स्तर की सोच में परिवर्तन करना होगा।
मैं यह नहीं कहती कि नारी उपलब्धियाँ नगण्य हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि इनके समक्ष नारी अत्याचार की रेखा समाज ने इतनी लंबी खींच दी है कि उपलब्धि रेखा छोटी प्रतीत होती है। समय अब भी ठहर कर सोचने का, समझने और महसूसने का है। क्योंकि सामाजिक व्यवस्था की बुनियाद उसी नारी पर आधारित है और जब कोई व्यवस्था अपनी चरम दुरावस्था में पहुँचती है तो उसके विनाश की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
बेहतर होगा कि महाविनाश की पृष्ठभूमि तैयार करने के बजाय सुगठित-समन्वित और सुस्थिर समाज के नवनिर्माण का सम्मिलित संकल्प करें? प्रश्न और प्रश्नों की भयावहता में उलझी नारी ने यदि विषमताओं से निकलकर उत्तर खोजना छोड़ दिया तो हालात फिर कभी सुधारे नहीं जा सकेंगे।