शोर प्रदूषण, कहर बरपाता है

- डॉ. एम.सी. नाहटा

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ध्वनि प्रदूषण ने गंभीर समस्या का रूप धारण कर लिया है। यह एक ऐसी समस्या है जो छोटे-बड़े, गरीब-अमीर, शिक्षित-अनपढ़, महिला-पुरुष सभी को समान रूप से प्रभावित करती है। 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों पर इसका प्रभाव अधिक होता है जिसके गंभीर तथा दूरगामी परिणाम होते हैं।

मुख्य रूप से ध्वनि प्रदूषण का कुप्रभाव श्रवण शक्ति पर होता है। इससे श्रवण शक्ति कम होती है, समाप्त भी हो सकती है। इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार की शारीरिक व्याधियों को भी ध्वनि प्रदूषण उत्पन्ना करता है। गहन विचार-विमर्श तथा चिंतन के अभाव में रोकथाम के पर्याप्त उपायआज तक नहीं हो पाए हैं।

एक सर्वेक्षण के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र के रहवासी बच्चों में 33 प्रतिशत तथा शहरी क्षेत्र के 6 प्रतिशत बच्चे श्रवणबाधित हैं। एक अन्य स्वयंसेवी संगठन 'श्रवण अंतरराष्ट्रीय' के अनुसार 10 वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों में कान की बीमारी 'ओटाइटिस मीडीया' 10 प्रतिशत बच्चों में पाई जाती है और प्रति 1000 जीवित जन्मे बच्चों में 4 में श्रवण शक्ति अत्यधिक कम मिलती है।

श्रवण शक्ति कम होने के अनेक कारण हैं। ध्वनि प्रदूषण इनमें पहले स्थान पर है। बढ़ती आयु, कान रोग, ओटाइटिस मीडीया तथा ओटोटॉक्सिक श्रेणी की औषधियाँ भी श्रवण शक्ति को कम करती हैं।

बार-बार लगातार उच्च स्तरीय ध्वनि से प्रभावित व्यक्तियों में श्रवण शक्ति कम होने का खतरा अधिक होता है। इस प्रकार के ध्वनि प्रदूषण के स्थानों में कतिपय उद्योग, सार्वजनिक तथा निजी आमोद-प्रमोद के स्थान, ऐसे स्थान जहाँ विस्फोट तथा गोलाबारी प्रायः होते रहते हैं, सम्मिलित हैं। शोर श्रवण यंत्र के संवेदी कोषाणु को यांत्रिक क्रियाओं द्वारा खून कम मात्रा में प्राप्त होने के कारण एवं संवेदी कोषाणु की प्रवेश क्षमता कम हो जाने के परिणामस्वरूप श्रवण क्षमता को कम करते हैं। चूँकि ध्वनि प्रदूषण द्वारा कम की गई श्रवण शक्ति को वापस नहीं लायाजा सकता है, इसलिए रोकथाम के प्रयास ही सार्थक हैं।

श्रवण क्षमता मनुष्य को प्राप्त प्राकृतिक देन है। यह भी एक स्थापित तथ्य है कि श्रवण विकलांगता दिखती नहीं है, जो कि व्यक्ति विशेष को अधिक विकलांग बनाती है। यह जानना सामयिक होगा कि मनुष्य की श्रवण क्षमता 20 हर्स्ट से 2000 हर्स्ट तक की आवाज सुनने में सहायता करती है।

अब प्रश्न उभरता है कि क्या शोर को नापा जा सकता है! सतही तौर पर इसका उत्तर नकारात्मक दिखता है लेकिन ऐसा है नहीं। शोर की तीव्रता को नापना संभव है और इसकी इकाई को डेसीबल कहते हैं। अब प्रश्न उठता है कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होने के लिए ध्वनिको कितनी ऊँची/ कोलाहापूर्ण होना चाहिए! शोर श्रवण शक्ति को कम करता है। यहाँ तक कि उसे समाप्त भी कर देता है। यह विषमता एक दिन में उत्पन्ना नहीं होती। लंबे समय तक शोरगुल से प्रभावित व्यक्ति श्रवण बाधित विकलांग होता है। यह बताना संभव नहीं है कि इसके लिए कितनी तीव्रता आवश्यक है, फिर भी उपलब्ध जानकारी के अनुसार 45 डेसीबल शोर के वातावरण में नींद नहीं आ सकती, 120 डेसीबल शोर कान में दर्द पैदा करता है और 85 डेसीबल से श्रावण शक्ति कम होना प्रारंभ हो जाती है। श्रवण शक्ति की क्षति का शोर से सीधा संबंध है, जो किशनैः-शनैः बढ़ती जाती है।

श्रवण बाधित विकलांगता के अलावा शोर की वजह से नींद में कमी, डर, चिड़चिड़ापन, अपच/ अजीर्ण, फोड़ा, उच्च रक्तचाप, हृदयरोग आदि भी हो सकते हैं। कुछ व्यक्तियों में अंतःस्राव तंत्रिका विज्ञानी तथा कार्डियोवेसकुलर क्रिया में भी परिवर्तन हो जाता है। तनाव, गंभीर व्यग्रतातथा मानसिक बीमारी भी शोरगुल से हो सकती है। यहाँ तक कि कभी-कभी संबंधित व्यक्ति आत्महत्या भी कर लेते हैं।

स्पष्ट है कि ध्वनि प्रदूषण को प्राथमिकता के आधार पर नियंत्रित किया जाना चाहिए। दो स्तरीय प्रयास से इस मानवीय समस्या का निराकरण हो सकता है।

(1) श्रवण संधारण कार्यक्रम : इस योजना के अंतर्गत शोरगुल सर्वेक्षण के माध्यम से शोरगुल के स्थानों का पता लगाना, शोरगुल में घटाव लाना, श्रवण रक्षा तथा श्रवण रक्षक उपायों एवं साधनों का उपयोग तथा ध्वनि नियंत्रण संबंधी कानून का दृढ़ता से पालन करना/ कराना शामिल है।

(2) श्रवणबाधित विकलांगता की रोकथाम : यह कार्य तीन स्तरीय होना चाहिए। प्राथमिक तौर पर इस प्रयास के अंतर्गत चलित इकाइयों के माध्यम से परीक्षण कर संक्रमण तथा उपलब्ध श्रवण शक्ति के बारे में जानकारी प्राप्त की जाए तथा कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित किया जाए। द्वितीय स्तर पर विशेषज्ञों द्वारा परीक्षण तथा सामान्य बीमारियों के उपचार के माध्यम से श्रवण शक्ति को कम होने से रोका जाए।

तृतीय स्तर पर गंभीर विषमताओं का उपचार तथा स्थायी रूप से समाप्त हुई श्रवण शक्ति वाले व्यक्तियों का पुनर्वसन तथा रोजगारोन्मुखी व्यवसायों में प्रशिक्षण सुनिश्चित किया जाए।