वर्ष 2018 में दिखाई दिया 'मोदी मैजिक' का उतार

वृजेन्द्रसिंह झाला
विदा हुआ वर्ष 2018 नए वर्ष 2019 के लिए कई राजनीतिक संकेत भी छोड़ गया है। गुजरते साल की राजनीतिक घटनाओं पर नजर डालें तो भाजपा के स्टार प्रचारक और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जादू फीका पड़ता नजर आया। इस साल भाजपा ने लोकसभा उपचुनावों में 10 सीटें गंवाई वहीं मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे 'गढ़' उसके हाथ से निकल गए। कर्नाटक में काफी जोर लगाने के बाद भी भाजपा सत्ता से दूर रह गई।


पूर्वोत्तर में जरूर भाजपा के लिए राहत रही, जहां त्रिपुरा में वर्षों पुरानी वामपंथी सरकार को उखाड़कर भगवा पार्टी सत्ता पर काबिज हुई। नगालैंड और मेघालय में भी भाजपा के सहयोग सरकार बनी। कांग्रेस के लिए यह साल उपलब्धियों से भरा रहा। मिजोरम जरूर उसके हाथ से निकल गया, लेकिन उसने मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपनी सत्ता कायम की, साथ ही कर्नाटक में जदएस के सहयोग से सरकार बनाई।

कांग्रेस को मिली संजीवनी : एक तरफ जहां भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत बनाने की बात में मशगूल थीं, वहीं कांग्रेस ने भाजपा से तीन महत्वपूर्ण राज्य- मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ छीन लिए। हालांकि भाजपा ने वर्ष 2017 में कांग्रेस का आत्मविश्वास तो गुजरात विधानसभा चुनाव में ही बढ़ा दिया था। गुजरात में कांग्रेस के अच्छे प्रदर्शन ने उसके कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा भर दी। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि कांग्रेस यहां हारकर भी जीत गई थी।

भाजपा के लिए तीन राज्यों की हार इसलिए भी बड़ा झटका है, क्योंकि इसे 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए 'सत्ता के सेमीफाइनल' के रूप में प्रचारित किया जा रहा था। राजस्थान में ऐसा अनुमान था कि भाजपा के हाथ से यह राज्य निकल सकता है, लेकिन छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में हार की उम्मीद तो भाजपा को कतई नहीं थी।

छत्तीसगढ़ की बुरी हार से तो भाजपा के नीचे से जमीन खिसक गई। इन तीनों राज्यों से लोकसभा की 65 सीटें आती हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने राजस्थान से 25 में से पूरी 25 सीटें जीती थीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि तीन हिन्दी भाषी राज्यों में सत्ता परिवर्तन का असर 2019 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिलेगा।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा लाख कोशिशों के बाद भी सरकार नहीं बना पाई। चुनाव के बाद जोड़तोड़ कर भाजपा के येदियुरप्पा मुख्‍यमंत्री तो बन गए, लेकिन उन्हें जल्द ही 'बेआबरू' होकर मुख्‍यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। त्रिपुरा में जरूर भाजपा ने वर्षों पुरानी वामपंथी सरकार को हटाकर सत्ता हासिल की।

उपचुनावों में हार : उपचुनाव के लिहाज से भी भाजपा के लिए यह साल काफी खराब रहा। 2018 में भाजपा को उपचुनाव में लोकसभा की 7 सीटें गंवानी पड़ी। उत्तर प्रदेश में गोरखपुर, फूलपुर, कैराना सीटें भाजपा से छिन गईं। इनमें से गोरखपुर सीट मुख्‍यमंत्री योगीनाथ की थी, जबकि फूलपुर उपमुख्‍यमंत्री केशव मौर्य की। इनके अलावा भाजपा से कर्नाटक की बेल्लारी, महाराष्ट्र की गोंदिया-भंडारा, राजस्थान की अलवर और अजमेर सीटें भी छिन गईं। 2014 के बाद से अब तक भाजपा 10 लोकसभा सीटें उपचुनाव में हार चुकी है। लोकसभा की 282 सीटों से उसका आंकड़ा 272 पर आ गया है।

ढीली हुई गठबंधन की गांठ : केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए आम चुनाव से पहले एक और बड़ा झटका यह है कि गठबंधन के साथी या तो भाजपा से नाराज हैं, या फिर चुनाव से पहले दूरी बनाने की कोशिश में हैं। रालोसपा के उपेन्द्र कुशवाहा एनडीए से नाता तोड़कर कांग्रेस और राजद के महागठबंधन से जुड़े गए हैं। रामविलास पासवान फिलहाल मान तो गए हैं, लेकिन उनका कोई भरोसा नहीं कि कब पलटी खा जाएं। उत्तर प्रदेश में सुहेलदेव पार्टी के ओमप्रकाश राजभर और अपना दल की नाराजी भी किसी से छिपी नहीं है।

भाजपा को सबसे ज्यादा नाराजगी यदि किसी की झेलना पड़ रही है तो वह है उसकी सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी शिवसेना। उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना सबसे ज्यादा हमलावर की भूमिका में हैं। हालांकि उसने गठबंधन छोड़ा नहीं है, लेकिन वह साथ रहकर भी परोक्ष रूप से भाजपा को नुकसान ही पहुंचा रही है। चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी ने भी आंध्रप्रदेश को विशेष राज्य के दर्जे के मुद्दे पर एनडीए से अलग होकर कांग्रेस का हाथ थाम लिया है। नायडू को दक्षिण में एनडीए का सबसे विश्वसनीय सहयोगी माना जाता था।

राहुल की बढ़ती स्वीकारोक्ति : कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को अब तक पप्पू के रूप में प्रचारित किया जा रहा था, लेकिन पिछले कुछ समय में उनमें गजब का आत्मविश्वास दिखाई दे रहा है। उन्हें गंभीरता से नहीं लेने वाले लोग भी अब उन्हें ध्यान से सुन रहे हैं। नरेन्द्र मोदी पर राहुल के हमले पहले से ज्यादा धारदार होते हैं। कुछ सर्वेक्षणों में भी राहुल प्रधानमंत्री मोदी को कड़ी टक्कर देते दिखाई दे रहे हैं।

कुला मिलाकर कहें तो 2018 किसी भी रूप में नरेन्द्र मोदी और भाजपा के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता। इसको देखकर तो यही लगता है कि 2018 की राजनीतिक घटनाएं भाजपा और मोदी के लिए 2019 में खतरे की घंटी साबित हो सकती हैं। एक अहम बात यह है कि टीवी चैनलों पर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की टीआरपी घटी है, पहले की तुलना में उनके भाषण बहुत कम टीवी चैनलों पर दिखाई देते हैं।

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