विवेचना: बांग्लादेश के इतिहास का सबसे जघन्य हत्याकांड

Webdunia
सोमवार, 6 नवंबर 2017 (11:12 IST)
- रेहान फ़ज़ल
3 नवंबर की सुबह 3 बजे ढाका की सेंट्रल जेल के डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल मोहम्मद नूरुज़्ज़माँ के पास बंग भवन से मेजर रशीद का फ़ोन आया। ये वही जेल थी जहाँ शेख़ मुजीब और उनके पूरे परिवार की हत्या के बाद, उनके सबसे निकटतम सहयोगियों ताजुद्दीन अहमद, सैयद नज़रुल इस्लाम, कैप्टेन मंसूर अली और कमरुज़्ज़माँ को रखा गया था।
 
मेजर रशीद ने नूरुज़्ज़माँ से पूछा कि जेल के अंदर सब ठीक ठाक है न? नूरुज़्ज़माँ ने कहा कि सब कुछ सामान्य है। रशीद ने कहा कि थोड़ी देर में कुछ लोग वहाँ सैनिक वर्दी में पहुंचेंगे। वो लोग इन चार लोगों का नाम लेंगे। उनको इनके हवाले कर दिया जाए। उन्होंने नूरुज़्ज़माँ से ये भी कहा कि वो इसकी व्यवस्था कराने के लिए ख़ुद जेल पहुंचे। नूरुज़्ज़माँ ने ढाका जेल के जेलर को फ़ोन कर कहा कि वो भी तुरंत जेल पहुंच जांए। दोनों लगभग साथ साथ ही जेल पहुंचे।
 
शेख़ मुजीब की हत्या के एक सप्ताह के भीतर गिरफ़्तारी
बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान भारत में बनी बांग्लादेश की पहली सरकार के प्रधानमंत्री और बाद में शेख़ मुजीब के कैबिनेट में वित्त मंत्री बने ताजुद्दीन अहमद की बेटी शर्मीन अहमद आजकल अमेरिका में रहती हैं। उनको अभी तक याद है जब शेख़ मुजीब की हत्या के कुछ दिनों के भीतर उनके पिता को भी गिरफ़्तार कर लिया गया था।
शर्मीन बताती हैं, ''शेख़ मुजीब की हत्या के तीन चार घंटों के भीतर ही सेना के जवानों ने आकर हमें हमारे घर पर ही नज़रबंद कर दिया था। 22 अगस्त को उन्होंने मेरे पिता ताजुद्दीन अहमद से कहा कि वो उन्हें बातचीत के लिए राष्ट्रपति खोंडकार मुश्ताक अहमद और उन लोगों के पास ले जाना चाहते हैं, जिन्होंने शेख़ मुजीब की हत्या की साज़िश रची थी।''
 
शर्मीन बताती हैं, ''जाते समय मेरी माँ ने उनसे पूछा था कि आप कब वापस आएंगे, क्योंकि वो उन्हें बातचीत के लिए तो ले जा रहे थे, लेकिन उन्होंने उनसे अपने कपड़े भी साथ ले जाने के लिए कहा था। जब मेरे पिता घर से बाहर निकले तो उन्होंने मेरी माँ से हाथ हिला कर कहा था कि ये मान कर चलो कि मैं अब कभी वापस नहीं आऊंगा।''
 
पत्नी से आख़िरी मुलाकात
जैसा कि ताजुद्दीन अहमद को आशंका थी, बातचीत के बहाने उन्हें ले जाकर ढाका की सेंट्रल जेल में डाल दिया गया। उनके साथ शेख़ मुजीब के दूसरे नज़दीकी सहयोगियों सैयद नज़रुल इस्लाम, कैप्टेन मंसूर अहमद और कमरुज़्ज़माँ को भी गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया।
 
शर्मीन अहमद बताती हैं, "उनके जेल जाने के एक महीने बाद तक हमें घर में ही नज़रबंद रखा गया। मेरे चाचा ने बहुत सी याचिकाएं दायर कीं, जिसके बाद हमें नज़रबंदी से छुटकारा मिला और हमें अपने पिता से मिलने का मौका मिल पाया। हम उनसे सितंबर, 1975 के अंत में मिले। मेरे पिता ने मेरी माँ से कहा कि अवामी लीग के जो लोग अभी जेल से बाहर हैं, उनसे कहो कि वो मुश्ताक से कोई समझौता न करें और उनका विरोध करना जारी रखें।"
उन्होंने आगे बताया, "पहली नवंबर को आख़िरी बार मेरी माँ मेरे पिता से मिलने जेल गईं। मेरी माँ ने अदालत में याचिका दायर की कि मेरे पिता के ख़िलाफ़ कोई आरोप नहीं था, तब भी उन्हें जेल में कैद क्यों रखा जा रहा है? उस पर 5 नवंबर को सुनवाई होनी थी। लेकिन मेरे पिता ने मेरी माँ से साफ़ कह दिया था कि 'लिली मैं नहीं समझता कि मैं इस जेल से जीवित निकल पाऊंगा। वो लोग मुझे ज़िंदा नहीं रहने देंगे।' मेरी माँ ने आकर मुझे बताया था कि उस दिन उन्हें मेरे पिता के भीतर बहुत बड़ा खालीपन दिखाई दिया था। ऐसा लग रहा था जैसे कुछ बहुत बुरा होने वाला हो।"
 
खोंडकार मुश्ताक की ताजुद्दीन अहमद से दुश्मनी
इस बीच 2 नवंबर, 1975 को शेख़ मुजीब के हत्यारों के ख़िलाफ़ ब्रिगेडियर ख़ालिद मुशर्रफ़ के नेतृत्व में एक और सैनिक विद्रोह हुआ। उन लोगों में समझौता हुआ कि खोंडकार मुश्ताक अहमद अपने पद से इस्तीफ़ा दे देंगे और मुजीब के हत्यारे अपने परिवार समेत बांग्लादेश छोड़ देंगे। लेकिन जाने से पहले उन्होंने तय किया कि वो थाईलैंड के लिए उड़ान भरने से पहले मुजीब के उन चार निकटतम सहयोगियों की हत्या कर देंगे।
 
शेख़ मुजीब की जीवनी लिखने वाले और बांग्लादेश के मशहूर पत्रकार सैयद बदरुल अहसन बताते हैं, "खोंडकार मुश्ताक अहमद की छवि एक दक्षिणपंथी नेता की थी। उनके बारे में आरोप भी थे कि बांग्लादेश के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत में जो बांग्लादेश की निर्वासित सरकार बनी थी, उसमें उन्हें विदेश मंत्री बनाया गया था।"
 
अहसन कहते हैं, "वो बांग्लादेश का पक्ष रखने न्यूयॉर्क जाने वाले थे। लेकिन तभी प्रधानमंत्री ताजुद्दीन अहमद को ख़ुफ़िया ख़बर मिल गई कि खोंडकार मुश्ताक अहमद की सीआईए से साँठगाँठ हो गई है और वो न्यूयॉर्क जाकर पाकिस्तान और बांग्लादेश के कॉनफ़ेडेरेशन का प्रस्ताव रखेंगे। ताजुद्दीन ने उनका न्यूयॉर्क जाना रोक दिया था और उनके स्थान पर किसी और को न्यूयॉर्क भेजा गया था।"
 
वो बताते हैं, "तभी से खोंडकार मुश्ताक अहमद ने मन ही मन ताजुद्दीन अहमद के खिलाफ़ दुश्मनी पाल ली थी। इसलिए जब आईजी नूरुज़्ज़माँ ने खोंडकार मुश्ताक अहमद को फ़ोन कर बताया कि रिसालदार मुसलिमुद्दीन इन चारों नेताओं को जान से मारने आए हैं तो खोंडकार मुश्ताक अहमद का जवाब था, ऐसा ही होने दीजिए।"
 
मुश्ताक ने ही मरवाने का हुक्म दिया
इस घटना का और विस्तृत ब्योरा एंथनी मैसक्रनहैस ने अपनी किताब 'बांग्लादेश-अ लेगेसी ऑफ़ ब्लड' में दिया है। मैसक्रेनहैस लिखते हैं, 'मेजर रशीद ने मुझे एक टेपरिकार्डेड इंटरव्यू में बताया, 'सुबह ही चार बजे के आसपास टेलिफ़ोन की घंटी बजी। मैंने फ़ोन उठाया। दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई मैं डीआईजी, प्रिज़न बोल रहा हूँ। क्या मैं राष्ट्रपति महोदय से बात कर सकता हूँ?'
 
रशीद ने फ़ोन खोंडकार मुश्ताक अहमद की तरफ़ बढ़ा दिया। राष्ट्रपति ने कुछ समय तक सुना कि वो शख़्स क्या कह रहा था। फिर उन्होंने धीमे से कुछ कहा। फिर मैंने उन्हें ज़ोर से कहते सुना, 'हाँ! हाँ! हाँ!' मैं तुरंत समझ नहीं पाया कि वो क्या कह रहे थे, लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे वो किसी चीज़ की अनुमति दे रहे हों।'
चारों को ताजुद्दीन के जेल के कमरे में जमा किया
ताजुद्दीन अहमद की बेटी शर्मीन अहमद ने उन सब लोगों से बात की है जो उस रात ढाका की सेंट्रल जेल में घटनास्थल के आसपास मौजूद थे।
 
शर्मीन बताती हैं, "सुबह तीन बजकर चालीस मिनट पर अब्दुस्समद आज़ाद अपनी सुबह की नमाज़ और कुरान पढ़ने उठे। उन्हें जेल के बाहर कुछ शोर सुनाई दिया। फिर उन्होंने देखा कि कुछ लोग अंदर आए हैं। उनके साथ जेलर भी थे। उन्होंने पहले मंसूर अली को उनकी कोठरी से निकाला। वो बहुत उत्तेजित दिखाई दे रहे थे, क्योंकि वो समझ नहीं पा रहे थे कि उन्हें इतनी सुबह क्यों जगाया गया है?"
 
उन्होंने आगे कहा, "दूसरे कमरे में कमरुज़्ज़माँ थे। उनके साथ अवामी लीग का एक कार्यकर्ता भी कैद था। उसने मुझे बताया कि कमरुज़्ज़माँ साहब सिर्फ़ पायजामा पहने हुए थे, क्योंकि वो सो रहे थे। जाने से पहले जब उन्होंने कमीज़ पहनने की कोशिश की, तो मैंने देखा कि उनके हाथ कांप रहे थे। वो उन दोनों को अलग कर मेरे पिता के कमरे में ले आए जिसमें वो सैयद नज़रुल इस्लाम के साथ रह रहे थे। उन्होंने उस कमरे में रह रहे दूसरे लोगों को निकाल कर दूसरे कमरे में भेज दिया। उन लोगों में से एक मोहसिन बुलबुल ने मुझे बताया कि वो हत्यारों का चिल्लाना साफ़ सुन पा रहे थे। वो पूछ रहे थे कि इतना समय क्यों लग रहा है? हमारे पास इतना समय नहीं है। जेल के एक सिपाही ने करीब करीब धक्का देते हुए कमरुज़्ज़मां को मेरे पिता के कमरे में पहुंचाया था।"
 
साठ राउंड गोलियों से भूना
जैसे ही ताजुद्दीन अहमद ने उन सब को अपने कमरे में लाए जाते देखा, वो समझ गए कि कुछ बुरा होने वाला है। शर्मीन अहमद आगे बताती हैं, 'जब उन्होंने सब को मेरे पिता के कमरे में इकट्ठा किया तो उन्होंने फ़ौरन कहा, 'नज़रुल साहब हमारे पास बहुत अधिक समय नहीं बचा है। आइए हम लोग वज़ू कर लें।'
 
जैसे ही उन्होंने वज़ू पूरा किया, जेलर चारों हत्यारों के साथ उनकी कोठरी के सामने पहुंच गया। बाद में जेलर ने मेरी छोटी बहन रिमी को बताया कि उसे ये पता नहीं था कि ये लोग उन्हें मारने आए हैं। वो मंसूर अहमद का हत्यारों से परिचय करा ही रहे थे वो इतना ही कह पाए थे... ये मं... वो अपना शब्द पूरा भी नहीं कर पाए थे कि हत्यारों ने ऑटोमेटिक हथियारों से गोलियाँ चलानी शुरू कर दी। उन्होंने कुल साठ राउंड गोलियाँ चलाईं। वो चारों ज़मीन पर गिर गए।'
 
ताजुद्दीन अहमद ने कराहते हुए पानी मांगा
साठ राउंड गोलियाँ चलने के बाद भी ताजुद्दीन अहमद और कैप्टेन मंसूर अली की तुरंत मौत नहीं हुई। शर्मीन अहमद याद करती हैं, "मेरे पिता तुरंत नहीं मरे। वो बाद में अधिक खून बह जाने की वजह से मरे। एक गोली उनकी पिछली कमर से घुस कर दूसरी तरफ़ से निकल गई थी। एक गोली उनके पैर के निचले हिस्से में लगी थी। एक और गोली उनकी बांह और सीने के बीच से निकल गई थी। लेकिन उनके महत्वपूर्ण अंगों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा था।"
 
फिर लोगों ने सुना कि मेरे पिता कराहते हुए पानी मांग रहे हैं। लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि जेल प्रशासन का कर्तव्य बोध कहाँ चला गया था? उन्होंने बाहरी लोगों को कैसे जेल में घुसने दिया? गोली चलाए जाने के बाद वो उन लोगों को अस्पताल ले कर क्यों नहीं गए?"
 
संगीन भोंक कर मारा
बर्बरता का यहीं अंत नहीं हुआ। कराह रहे कैप्टेन मंसूर अली को फिर संगीन भोंककर मार डाला गया। सैयद बदरुल अहसन बताते हैं, "जब ये लोग इन चार नेताओं को मारकर जेल के गेट तक ही पहुंचे थे कि एक पुलिस वाला भागता हुआ आया और उसने उन्हें बताया कि कुछ लोग अभी पूरी तरह से मरे नहीं है और कराह रहे हैं। हत्यारे दोबारा उसी कमरे में लौटे और इस बार उनके पेट में संगीनें भोंककर ये सुनिश्चित किया कि अब उनमें कोई जान नहीं बची है।"
 
मैंने शर्मीन से पूछा कि इसमें कितनी सच्चाई है कि मारे गए नेताओं को संगीन भोंककर मारा गया था?
 
शर्मीन का जवाब था, "ये बिल्कुल सच है। मेरी बहन रिमी इसकी गवाह है। मंसूर अली के शव को उनके एक रिश्तेदार के घर लाया गया था। वहाँ लोगों ने देखा कि उनकी आँख और पेट में संगीन भोंकी गई थी। जैसे ही हत्यारों का पहला गुट वहाँ से गया, एक दूसरा गुट ये जानने के लिए वहाँ पहुंच गया कि ये लोग ज़िंदा तो नहीं बचे हैं। जब ये लोग वहाँ पहुंचे तो मंसूर अली अपनी अंतिम सांसें गिन रहे थे। वो कराह रहे थे। उन्होंने उनकी आवाज़ बंद करने के लिए संगीन भोंक दी।"
 
खोंडकार मुश्ताक अहमद का ढ़ोंग
उधर जब ये ख़बर बंग भवन पहुंची तो बांग्लादेश मंत्रिमंडल की बैठक चल रही थी। तब तक हत्यारे थाईलैंड के लिए रवाना हो चुके थे।

खोंडकार मुश्ताक अहमद ने इस तरह ढ़ोंग किया जैसे उन्हें इसके बारे में पता ही नहीं हो। मैसक्रेनहैस अपनी किताब 'बांग्लादेश-अ लेगेसी ऑफ़ ब्लड' में लिखते हैं, 'मंत्रिमंडल की बैठक ख़त्म होने वाली थी कि डायरेक्टर ऑफ़ फ़ोरसेज़ इंटेलिजेंस एयर कोमॉडोर इस्लाम बदहवास हालत में चिल्लाते हुए जेल में हुई हत्याओं की ख़बर ले कर आए।
 
'सुनते ही खोंडकार मुश्ताक अहमद, वहाँ मौजूद दूसरे लोगों की तरह अपने रंज का इज़हार करने लगे, जैसे उन्हें इसके बारे में कुछ पता ही न हो। वास्तव में मुश्ताक अव्वल दर्जे का ढ़ोंग कर रहे थे।'
 
परिवार को शव देने में देरी
मारे गए नेताओं के परिवारों को पूरे 48 घंटों के बाद उनके शव सौंपे गए। शर्मीन अहमद बताती हैं, "अगली सुबह 4 नवंबर को सुबह साढ़े आठ-नौ बजे मेरे पिता की कॉलेज की दोस्त डॉक्टर करीम मेरी माँ से मिलने आईं। मैं अपनी माँ के बगल में ही खड़ी हुई थी। उन्होंने ये ख़बर दी कि ढाका सेंट्रल जेल के अंदर फ़ायरिंग हुई है।"
 
उन्होंने आगे कहा, "जेल के डॉक्टर ने उन्हें बताया है कि मेरे पिता और उनके तीन साथियों की हत्या कर दी गई है। मुझे याद है कि मैं और मेरी माँ घर के बाहर खड़े थे। जैसे ही उन्होंने ये सुना, वो बिल्कुल 'जम' सी गईं। मैं बहुत ज़ोर से चिल्लाई और बोली, मैं इसे नहीं मानती। उसी शाम इस बात की पुष्टि हो गई कि उन्हें वास्तव में मार डाला गया था। जेल के प्रशासन ने शव को हमें सौंपने में बहुत समय लगा दिया। मेरे पिता का पार्थिव शरीर 5 नवंबर की आधी रात को हमारे घर पहुंचा, यानी उनकी मौत के 48 घंटों से भी अधिक समय के बाद।"
 
कुछ हत्यारे अभी भी कानून की पकड़ से दूर
सिर्फ़ 3 दिन के भीतर ही ब्रिगेडियर ख़ालिद मुशर्रफ़ के सैनिक विद्रोह के ख़िलाफ़ एक दूसरा सैनिक विद्रोह हो गया। इसके बाद जनरल ज़ियाउर रहमान सत्ता में आए। 21 साल तक इस बर्बर हत्याकांड की कोई जाँच नहीं हुई। साल 1996 में शेख़ हसीना की सत्ता में इस पूरे मामले की जाँच नए सिरे से शुरू हुई। कुछ दोषी लोगों को फांसी पर भी चढ़ाया गया।
 
सैयद बदरुल अहसन बताते हैं, "ये हत्यारे वही थे जिन्होंने शेख़ मुजीब की भी हत्या की थी। जब उन पर मुकदमा चला तो छह लोगों को फ़ांसी पर चढ़ाया गया। कुछ लोग आज भी विदेशों में छिपे हुए हैं और कुछ लोगों की स्वाभाविक मौत हो चुकी है। खोंडकार मुश्ताक अहमद शेख हसीना के सत्ता में आने से तीन महीने पहले ही स्वर्ग सिधार चुके हैं। लेकिन अभी भी इस बात से रहस्य का पर्दा उठना बाकी है कि इस जघन्य हत्याकांड में किन राजनीतिक लोगों का हाथ था।"
 
गुमनाम ज़िंदगी भी एक सज़ा
इन चारों नेताओं के कुछ हत्यारे अभी भी कानून की पकड़ से बाहर हैं और बांग्लादेश के बाहर गुमनाम ज़िदगी जी रहे हैं। मैंने शर्मीन अहमद से पूछा, क्या आप समझती हैं, आप को न्याय मिल पाया?
 
शर्मीन का जवाब था, 'मैं समझती हूँ जो लोग अभी भी भागे हुए हैं, उनको भी एक तरह की सज़ा मिल रही है। उनको हमेशा के लिए पूरी दुनिया से छिप कर रहना होगा। ये भी एक तरह की सज़ा है। मेरा उन लोगों के लिए संदेश है कि आप किसी को मार कर ग़लत को सही नहीं कर सकते। उनके भी बच्चे हैं। उनका भी परिवार है। उनको अपने आप से पूछना चाहिए कि अगर उनके साथ भी यही होता तो उनके बच्चों और परिवार पर क्या गुज़रती?"
 
शर्मीन ने अंत में कहा, "ये लोग राष्ट्रीय नेता थे, जो देश को अभी भी बहुत कुछ दे सकते थे। इन हत्याओं के पीछे बहुत से राजनीतिक षडयंत्रकारी भी थे। उनको सज़ा दिलाने के लिए अभी तक कुछ नहीं किया गया है। इस मामले की फिर से जाँच होनी चाहिए। मैं ऐसा बदले की भावना से नहीं कह रही हूँ, बल्कि जो ग़लत हुआ, उसे सही करने के लिए कह रही हूँ।'

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