हर समाज और संस्कृति में ये शब्द विलेन माने जाते हैं। हम सबको बचपन से ही विनम्र होने की सीख दी जाती है। अंग्रेज़ लेखिका जेन ऑस्टेन ने तो इस पर बाक़ायदा उपन्यास लिखा था- प्राइड ऐंड प्रेजुडिस। इसके ज़मींदार किरदार मिस्टर डार्सी को अपनी प्रेमिका एलिज़ाबेथ बेनेट का प्यार हासिल करने के लिए अपने ग़ुरूर की क़ुर्बानी देनी पड़ी थी।
मगर, वक़्त बदल रहा है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि अभिमान करना उतनी भी बुरी बात नहीं जितनी सदियों से बताई जाती रही है। पिछले कुछ बरसों में हुए रिसर्च बताते हैं कि इंसान के विकास में अभिमान का अहम रोल रहा है। ये ख़ूबी इंसान में यूं ही नहीं आ गई। इसका मक़सद है।
तभी तो, आप पूरब से पश्चिम हो या बच्चों से बुज़ुर्ग तक- अभिमान की झलक देख पाते हैं। गुरूर के संकेत तो आप को पता ही हैं। सीधे अकड़ कर खड़े होना, बांहें फैला कर बातें करना, हमेशा सिर ऊंचा रखना।
ब्रिटिश कोलंबिया यूनिवर्सिटी की मनोवैज्ञानिक जेसिका ट्रेसी ने इस बारे में किताब लिखी है- 'प्राइड:द सीक्रेट ऑफ़ सक्सेस'। वो कहती हैं कि "अकड़ वाली इस भाव-भंगिमा को इंसान ने सदियों की विकास यात्रा से गुज़र कर हासिल किया है। ये यूं ही नहीं आई है।"... जब हम अपनी किसी उपलब्धि पर गर्व करते हैं, तो इसके सामाजिक फ़ायदे भी होते हैं।
गर्व करने का भी मक़सद होता है
कैलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी की लेडा कॉस्माइड्स कहती हैं "जब इंसान शिकार कर के बसर करता था, तो गर्व करने का मक़सद ये संकेत देना होता था कि आप की बेहतरी सब के हित में है।"
लेडा की रिसर्च में पता चला है कि हम तब ग़ुरूर महसूस करते हैं, जब हम कोई मुश्किल काम निपटाते हैं या फिर हमारे पास कोई एकदम अलहदा सी ख़ूबी होती है। यानी अगर आप किसी ख़ास हुनर को हासिल करने के लिए मशक़्क़त करते हैं, तो आपको अभिमान कर के ये संकेत देना होता है कि आप ने इसके लिए उनसे ज़्यादा मेहनत की है। इसका उन्हें सम्मान करना चाहिए।
कनाडा की मॉन्ट्रियल यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक डेनियल स्नाइसर कहते हैं कि, "ग़ुरूर के ज़रिए आप अपनी कामयाबी की नुमाइश करते हैं। वरना किसी को कैसे पता चलेगा कि आप की कामयाबी है क्या। मुझे आपकी अहमियत का एहसास इसी तरह से होता है।"
2017 में इस पर एक बड़ी रिसर्च छपी थी। इसे लेडा कॉस्माइड्स और डेनियल स्नाइसर ने दूसरे मनोवैज्ञानिकों के साथ मिलकर किया था। इसमें अमेरिका से लेकर जापान तक 16 देशों के लोगों पर तजुर्बे किए गए थे। लोगों से पूछा गया था कि वो दूसरों की कौन-सी ख़ूबियां पसंद करते हैं और किन गुणों को वो अपने अंदर देखना चाहेंगे। रिसर्च में पता चला कि जो लोग ग़ुरूर को अच्छा मानते थे, वो ये भी मानते थे कि इससे उन्हें दूसरों की तारीफ़ हासिल होगी।
अक्सर हम जिस बात पर अभिमान करते हैं, वो इस उम्मीद में करते हैं कि वो दूसरों की नज़र में अच्छा होगा। फिर वो कोई काम हो या हुनर हो। अभिमान को अगर पैमानों पर कसें, तो हर काम से पहले हमारा ज़हन ये अटकल लगाता है कि उसकी दूसरे कितनी तारीफ़ करेंगे।
ग़ुरूर को समान में सम्मान
इस रिसर्च पर ये कह कर सवाल उठाए गए कि ये तो औद्योगिक और विकसित देशों का हिसाब-किताब है। जहां पर लोगों की मीडिया और संवाद के दूसरे संसाधनों तक ज़्यादा पहुंच होती है। इसके बाद रिसर्चरों ने दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के 567 लोगों से यही सवाल पूछा कि वो दूसरों के किस गुण को पसंद करते हैं और कौन-सी ख़ूबियां वो अपने अंदर लाना चाहेंगे।
लोगों के जो जवाब मिले उसके संकेत साफ़ थे। वो चाहते थे कि वो देखने में मज़बूत हों, अच्छे क़िस्सागो हों, अपनी हिफ़ाज़त कर सकें। ऐसे गुणों की मांग भी ख़ूब दिखी और इनकी तारीफ़ भी हुई। डेनियल स्नाइसर मानते हैं कि संकेत साफ़ हैं। अभिमान की हमारे समाज में ख़ास अहमियत है।
अमेरिका की इलिनॉय यूनिवर्सिटी के जोई चेंग कहते हैं कि हमें ये तो हमेशा पता था कि ग़ुरूर से हमें कामयाबी के शिखर पर पहुंचने में मदद मिलती है। मगर ये मदद कितनी होती है, इसका पता नहीं था। बड़ा सवाल ये है कि अगर हमारी तरक़्क़ी में अभिमान का इतना अहम रोल है तो इसके प्रति सोच इतनी नकारात्मक क्यों है?
लेडा कॉस्माइड और डेनियल स्नाइसर इसका जवाब देते हैं। वो कहते हैं कि "अपनी कामयाबी पर अभिमान करना तो ठीक, लेकिन कुछ लोग अहंकारी हो जाते हैं। ये ठीक नहीं है। जब आप अपनी कामयाबी को ज़्यादा समझते हैं। मगर दूसरों की नज़र में वो सफलता उतनी अहम नहीं होती। टकराव तभी शुरू होता है।"
"आप कहते हैं कि मैंने फलां कामयाबी हासिल की। मेरा एहतराम करो। सामने वाला कहता है कि ठीक है कि तुमने वो काम किया। अच्छी बात है। मगर इस बात के लिए तुम्हें सलाम ठोकने का मेरा जी नहीं करता।"
जेसिका ट्रेसी कहती हैं कि हमें ख़ुद पर गर्व करने और अहंकार करने में फ़र्क़ करना आना चाहिए। अपनी कामयाबी पर आप ख़ुश तो हों, मगर, दूसरे अगर उस सफ़लता को उस नज़रिए से नहीं देखते, तो आप उन पर दबाव न बनाएं। क्योंकि दिक़्क़त यहीं से शुरू होती है।
आत्मविश्वास तो ठीक, पर अहंकार नहीं
आत्ममुग्ध लोग अक्सर इन बारीक़ फ़र्क़ की सीमा पार कर जाते हैं। जो लोग अभिमान और अहंकार के इस फ़ासले को समझते हैं। वो बेहतर इंसान बन पाते हैं। उनके संबंध भी दूसरे लोगों से बेहतर होते हैं। जोई चेंग और जेसिका ट्रेसी ने इस बारे में खिलाड़ियों पर रिसर्च की तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आए।
पता चला कि जो खिलाड़ी आत्मविश्वास से भरपूर होते हैं, अपने हुनर पर अभिमान करते हैं, वो ज़्यादा कामयाब होते हैं। उनका सम्मान भी ज़्यादा होता है। यानी अभिमान करने में कोई हर्ज़ नहीं। शर्त सिर्फ़ एक है। अपनी सफलता और अपने हुनर को ख़ुद से बढ़-चढ़कर न आंकें, न हांकें।