उत्तराखंड के उत्तरकाशी में सिल्क्यारा सुरंग से 41 मजदूरों को निकालने का प्रयास जारी है। चूंकि ये मजदूर बीते 12 दिनों से सुरंग में फ़ंसे हैं तो उनके स्वास्थ्य को लेकर चिंताएं भी ज़ाहिर की जा रही है।
इन मजदूरों को बाहर निकालने जाने के बाद इनके स्वास्थ्य को लेकर क्या किया जाना चाहिए और इन्हें क्या समस्याएं हो सकती हैं इसे समझने के लिए बीबीसी हिंदी ने रांची स्थित सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइकेट्री के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉक्टर संजय कुमार मुंडा और रांची की सरकारी कंपनी के खदान विभाग में चिकित्सक डॉक्टर मनोज कुमार से विस्तृत बात की।
डॉक्टर संजय कुमार मुंडा कहते हैं कि सुरंग में फ़ंसे लोगों के बीच हताशा से लेकर भ्रांति की स्थिति पैदा हो सकती है इसलिए उन्हें बाहर निकालने के बाद उनका व्यापक मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन किया जाना चाहिए ताकि आगे उन्हें दिक्क़तों का सामना न करना पड़े।
उनका कहना था कि “ऐसी हालत में लोग कई तरह की संवेदनाओं से वंचित होने लगते हैं जैसे सुनने की, या सूंघने की या देख पाने की। इसका सबसे पहला नतीजा होता है गहरी चिंता। बेचैनी धीरे-धीरे बढ़ती जाती है। अच्छी चीज़ ये है कि उन लोगों से लगातार बातचीत की जा रही है। उन्हें कैमरे के माध्यम से देखा गया है।”
वे कहते हैं, "संवेदना से वंचित होने और गहरी चिंता के बीच फ़ंसे लोगों को बीच हताशा की भावना भी पैदा होने की संभावना है। उन लोगों को सुरंग से बाहर निकालने की जो कोशिशें चल रही हैं वो पूरी तरह कामयाब नहीं हो पा रही, इसका अंदाज़ा भी अंदर फ़ंसे लोगों को हो रहा होगा। इससे कितनी गहरी हताशा उनके भीतर पैदा हो रही होगी इसका अंदाज़ा करना मुश्किल है।"
डॉ. संजय कहते हैं, 'मुझे उम्मीद है कि बचाव दल की ओर से फ़ंसे लोगों में उम्मीद बनाए रखने की कोशिशें भी हो रही होगीं। लेकिन चिंता और हताशा से जो बदतर स्थिति है वो है मानसिक भ्रांति की, जो ऐसी स्थिति में लोगों के भीतर पैदा हो सकती है। भ्रांति का अर्थ है उनको चीज़ों का नज़र आना या वैसी आवाज़ों को सुनना जो हैं ही नहीं। इसे बदहवास होने वाली स्थिति भी कह सकते हैं।
उन्होंने कहा कि ऐसे में किसी को घर के किसी व्यक्ति या दोस्त के पुकराने की आवाज़ सुनाई दे सकती है। डरावनी शक्लें या आवाज़ मस्तिष्क में गूंज सकती है। ऐसा हर किसी के साथ होगा ये ज़रूरी नहीं है लेकिन कुछ के साथ हो सकता है।
डॉक्टर संजय बताते हैं कि ऐसे हालात कब पैदा होते हैं। वे कहते हैं, 'जब शरीर में पानी की कमी होने लगती है तब ऐसा होता है। जब उस शख़्स को लगता है कि उसके पास बचाव के साधन पूरी तरह ख़त्म हो चुके हैं। ऐसे में सोच पूरी तरह से बेलगाम हो सकती है। व्यक्ति को लगेगा कि वो अपनी सोच पर किसी तरह का कोई कंट्रोल नहीं रख पा रहा है।'
पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर
क्या बाहर निकाले जाने के बाद भी ये लक्षण मौजूद रहेंगे? इस सवाल पर प्रोफ़ेसर मुंडा का कहना था कि जो हमने आपको अब तक बताया वो शॉर्ट टर्म प्रतिक्रिया है। लेकिन एक बार जब भीतर फ़ंसे रहने का सदमा ख़त्म होगा दो दूरगामी लक्षण दिखाई देने लगेंगे जिसे मनोवैज्ञानिकों की भाषा में पोस्ट ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर कहते हैं।
वे कहते हैं, 'इसमें व्यक्ति फ़्लैशबैक में चला जाता है। उसे वही सुरंग में फ़ंसे होने की स्थिति जैसा लगेगा, हालांकि तब वो यहां लोगों के बीच में हो सकता है। और जब वो उस स्थिति को फिर से महसूस करने लगता है तो बहुत अधिक चिंता वाली स्थिति पैदा होती है।'
तो क्या किसी मजदूर को बाहर लाने पर मानसिक इलाज की ज़रूरत भी पड़ सकती है। इस पर वे बोले, 'फ़िलहाल तो ये इमरजेंसी के हालात हैं। इसमें किसी रिलैक्सेशन या तनाव मुक्ति वाली दवाओं की ज़रूरत पड़े। उस तरह की दवा की जिससे चिंता कम हो और नींद आ सके।'
वे कहते हैं, 'पीटीएसडी न हो इसके लिए व्यापक मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन होना चाहिए। किसी व्यक्ति का मस्तिष्क इस घटना या किसी घटना से किस तरह से प्रभावित हुआ है ये उसका मूल्यांकन होता है।' इस तरह के हालात का असर अलग-अलग लोगों पर अलग अलग पड़ सकता है। इसलिए इसके मूल्यांकन के बाद ये तय हो पाएगा कि इलाज के लिए किसके साथ किस प्रक्रिया को अपनाया जाए।
शरीर पर क्या असर पड़ सकता है?
एक सरकारी कंपनी के खदान विभाग में चिकित्सक डॉक्टर मनोज कुमार बताते हैं कि बाहर आने पर सबसे पहले इनके पेशाब से लेकर ब्लड, बीपी और दूसरी चीज़ों की जांच होगी।
वहीं जब बीबीसी हिंदी ने पूछा कि बाहर निकलने पर मजदूरों को किन समस्याओं से दो चार होना पड़ सकता है? तो उन्होंने कहा, 'हो सकता है कि भीतर फ़ंसने वाला व्यक्ति पहले से ही किसी बीमारी से ग्रसित हो जैसे शूगर या ब्लड प्रेशर। तो ऐसी स्थिति में उसकी बीमारी बढ़ सकती है क्योंकि कई बार बराबर लेने वाली दवाइयों का प्रतिकूल प्रभाव इन बीमारियों पर पड़ सकता है। इससे पाचन शक्ति प्रभावित हो सकती है।'
वे कहते हैं, अगर अंदर फ़ंसे लोगों को खाना-पानी ठीक तरीक़े से नहीं मिल पा रहा है तो इनका असर भी होगा। पानी की कमी से चक्कर आ सकता है, पेशाब होना कम हो सकता है। ये किडनी को भी प्रभावित कर सकता है। खाने की कमी से शरीर कमज़ोर पड़ सकता है जिसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।
प्रोफ़ेसर मुंडा कहते हैं कैसे मरीज़ को तनाव मुक्त किया जाए ये अहम होता है। वे कहते हैं, 'योग भी इसके लिए एक साधन हो सकता है। सिस्टम में या जो कमी रह गई है, उसे लेकर खीज़ पैदा होती है। उसको स्वीकारने की क्षमता को बढ़ावा देना भी इलाज का हिस्सा है।'
प्रोफ़ेसर मुंडा कहते हैं, 'किसी तरह की निश्चित धारणा घटना को लेकर न बने ये भी मनोवैज्ञानिक इलाज का हिस्सा है जिसमें व्यक्ति को उस घटना से जुड़ी सभी बातें बताने के लिए प्रेरित किया जाता है, ताकि डिप्रेशन अथवा अवसाद बाहर आ सके।'
कुछ लोग ऐसे मामलों में बहुत ज़्यादा मानसिक दबाव में आ जाते हैं तो उसके लिए चिकित्सक उन्हें दवा मुहैया करवा सकते है। जिन लोगों के भीतर डर बैठ जाता है उनके लिए अलग तरह के इलाज उपलब्ध हैं।
प्रोफ़ेसर मुंडा कहते हैं, 'बाहर मौजूद लोगों खासतौर पर परिवार को लोगों से बातचीत होना ज़रूरी है। जो बचाव कार्य चल रहा है उसकी जानकारी किस प्रकार और कितनी अंदर फ़ंसे लोगों को दी जा रही है, ये भी अहम है। मगर इन सबके साथ-साथ ये देखना भी ज़रूरी है कि इन्हें खाना-पानी पूरी तरह से मिल पा रहा है या नहीं।'
जो लोग भीतर फ़ंसे हैं उनके परिवार पर भी असर पड़ रहा होगा, वो किस तरह की मानसिक स्थिति से गुज़र रहे होंगे?
इस सवाल पर प्रोफ़ेसर मुंडा ने कहा, 'अभी तो सब का ध्यान भीतर फ़ंसे लोगों पर है। परिवार पर क्या बीत रहा होगा, ये तो आमतौर पर सोचा ही नहीं जा रहा।'
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जो लोग सुरंग में फ़ंसे हैं उन्हें नींद को लेकर समस्याएं आ सकती हैं या उनके मनोभाव पर भी असर पड़ सकता है। ऐसे में क्या ये समस्याएं उनके रिश्तों को भी प्रभावित कर सकते हैं?
इस पर डॉक्टर मनोज कुमार कहते हैं, "जब किसी सुरंग या खदान में लोग फंस जाते हैं तो सबसे अधिक अहसास घुटन का होता है। जिससे चिंता और बेचैनी पैदा होने लगती है और ये अंतत: शरीर पर असर डालती है। नींद नहीं आने की समस्या पैदा हो सकती है। उन लोगों को भूख नहीं लगने की परेशानी भी आ सकती है।"
ये भी हो सकता है कि अगर जहां आप फ़ंसे हैं वो धूल भरी जगह है, तो ऑक्सीजन की कमी होने लगती है। इससे सांस लेने में परेशानी हो सकती है। ये शुरुआती लक्षण हैं।
उनका कहना था कि अलग-अलग हालात में लोगों पर अलग-अलग तरह से असर हो सकते हैं। वे कहते हैं कि फ़ंसे होने के वक़्त अगर उस जगह सीलन हुई तो सांस लेने की दिक्क़त पैदा हो सकती है।
ठंड के कारण शरीर की गर्मी कम होने लगती है। ऑक्सीजन नहीं मिलने से फेफड़ा प्रभावित हो सकता है। सांस की परेशानी हो सकती है। इसका दिल पर असर पड़ सकता है और जिससे धीरे-धीरे दूसरे अंग प्रभावित होते हैं। हाइपोथर्मियां में ख़ून के बहाव में कमी आती है। इससे दिमाग़ के काम करने में प्रभाव पड़ सकता है।