साढ़े चार साल की सनाया (बदला हुआ नाम) सुबह ब्रश करने से लेकर नाश्ता करने और प्ले स्कूल जाने तक हर काम मोबाइल पर कार्टून देखते हुए करती है।
जब हाथ में ब्रश या खाने का निवाला नहीं होता, तो सनाया मोबाइल पर 'एंग्री बर्ड' गेम खेलने लगती है।
गेम का शॉर्टकट मोबाइल स्क्रीन पर नहीं है, लेकिन यू-ट्यूब पर वॉयस सर्च से सनाया को एंग्री बर्ड ढूंढने में ज़रा भी वक्त नहीं लगता।
उसके हाथ के साइज़ से बड़े मोबाइल पर उसकी उंगलियां इतनी तेजी से दौड़ती हैं जितनी बड़ों की नहीं दौड़तीं। उसके माता-पिता उसकी स्पीड देख कर पहले तो हैरान रहते थे, पर आजकल अफ़सोस करने लगे हैं।
सनाया के माता-पिता मल्टी नेशनल कंपनी में काम करते हैं. वे अक्सर घर पर दफ्तर का काम करते हुए अपना मोबाइल सनाया को पकड़ा दिया करते थे ताकि सनाया उनके काम में बाधा ना बने। लेकिन उनकी ये आदत आगे चल कर सनाया के लिए इतनी बड़ी दिक्क़त बन जाएगी, उन्होंने नहीं सोचा था।
अब सनाया मोबाइल की इतनी आदी हो चुकी है कि मोबाइल हाथ से छीनते ही वो जमीन पर लोट जाती है और माता-पिता की किसी भी बात को मानने से इनकार कर देती है। जिद ऐसी की अंत में माता-पिता को हार माननी ही पड़ती है।
मोबाइल पर सनाया कि निर्भरता इतनी बढ़ गई कि न तो वो प्ले स्कूल में अपने दोस्त बना पाई न ही पार्क में खेलने जाती है। दिन भर कमरे में बंद और मोबाइल से चिपकी हुई रहती है। फिलहाल सनाया का प्ले थेरेपी से इलाज चल रहा है। पिछले दो महीने में उसकी आदत में थोड़ा सुधार हुआ है।
गेमिंग एडिक्शन एक 'बीमारी'
देश और दुनिया में मोबाइल और वीडियो गेम में लोगों की बढ़ती निर्भरता और दिलचस्पी को देखते हुए, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गेमिंग एडिक्शन को एक तरह का डिसऑर्डर बताते इसे दिमागी बीमारी की श्रेणी में रखा है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के इंटरनेशनल क्लासिफिकेशन ऑफ डिसीज ( ICD - 11) ने 27 साल बाद अपना ये मैन्युअल इस साल अपडेट किया है। लेकिन ऐसा नहीं कि गेम खेलने की लत केवल बच्चों में होती है।
सनाया का इलाज कर रही डॉक्टर जयंती दत्ता के मुताबिक, बड़ों में भी ये बीमारी देखने को मिलती है। उनका कहना है कि बहुत से दफ्तरों में भी एंग्री बर्ड, टेम्पल रन, कैंडी क्रश, कॉन्ट्रा जैसे मोबाइल गेम के कई दीवाने मिल जाएंगे।
डॉक्टर जयंती दत्ता एक मनोवैज्ञानिक हैं। उनके मुताबिक, अक्सर समय बिताने के लिए लोग इसे खेलना शुरू करते हैं। पर ये कब आदत में बदल जाता है और जिंदगी का अहम हिस्सा बन जाता है, इसका अंदाजा इस्तेमाल करने वाले को कभी नहीं लगता।
गेमिंग डिसऑर्डर क्या है?
डब्ल्यूएचओ के शिकार लोगों में गेम खेलने की अलग तरह की लत होती है। ये गेम डिजीटल गेम भी हो सकते हैं या फिर वीडियो गेम भी।
डब्लूएचओ के मुताबिक इस बीमारी के शिकार लोग निजी जीवन में आपसी रिश्तों से ज़्यादा अहमियत गेम खेलने को देते हैं जिसकी वजह से रोज के कामकाज पर असर पड़ता है। लेकिन किसी भी आदमी को अगर इसकी लत है, तो उसे बीमार करार नहीं दिया जा सकता।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक उस व्यक्ति के साल भर के गेमिंग पैटर्न को देखने की ज़रूरत होती है। अगर उसकी गेम खेलने की लत से उसके निजी जीवन में, पारिवारिक या समाजिक जीवन में, पढ़ाई पर, नौकरी पर ज़्यादा बुरा असर पड़ता दिखता है तभी उसे 'गेमिंग एडिक्ट' यानी बीमारी का शिकार माना जा सकता है।
दिल्ली के एम्स में बिहेवियरल एडिक्शन सेंटर है। 2016 में इसकी शुरुआत हुई थी। सेंटर के डॉक्टर यतन पाल सिंह बलहारा के मुताबिक, पिछले दो साल में देश में मरीज़ों की संख्या बहुत बढ़ी है।
डॉक्टर बलहारा पेशे से मनोचिकित्सक हैं। उनके मुताबिक किसी भी गेमिंग एडिक्शन के मरीज़ में कुल पांच बातों को देखने की ज़रूरत होती है -
रोज के दूसरे काम के मुक़ाबले गेम खेलने को ज़्यादा तरजीह देना।
मोबाइल या वीडियो गेम हाथ में हो तो गेम खेलने के लालच को रोक नहीं पाना।
हर बार गेम खेलने पर एक अजीब सी सुखद अनुभूति का होना।
गेम खेलना शुरू करने के बाद रुकना कब है ये अक्सर गेम एडिक्ट को पता न होना।
गेम खेलने की वजह से जीवन में पढ़ाई या नौकरी या दूसरे काम पर बुरा प्रभाव पड़ना।
12 महीने से ज्यादा अरसे तक ऐसा होने पर डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए।
क्या हर गेम खेलने वाला बीमार है?
डब्ल्यूएचओ की तरफ से जारी रिपोर्ट के मुताबिक मोबाइल या फिर वीडियो गेम खेलने वाले बहुत कम लोगों में ये बीमारी का रूप धारण करती है। लेकिन इस बात का खयाल रखना बेहद जरूरी है कि आप दिन में कितने घंटे मोबाइल पर गेम खेलते हुए बिताते हैं। अगर आप अपने जीवन के बाकी काम निपटाते हुए मोबाइल पर गेम खेलने का वक्त निकाल पाते हैं तो उन लोगों के लिए ये बीमारी नहीं है।
कितने घंटे गेम खेलने वाला बीमार होता है?
इस सवाल के जवाब में डॉक्टर बलहारा कहते हैं कि 'ऐसा कोई फ़ॉर्मूला नहीं है। दिन में चार घंटे गेम खेलने वाला भी बीमार हो सकता है और दिन में 12 घंटे गेम पर काम करने वाला ठीक हो सकता है।
बीबीसी को उन्होंने बताया कि उनके पास एक केस है जिसमें बच्चा दिन में 4 घंटे ही गेमिंग करता है। लेकिन वो बीमार है।
बच्चे के बारे में विस्तार से बताते हुए डॉक्टर सिंह कहते हैं, '24 घंटे में चार घंटे गेम पर बिताना ज़्यादा नहीं है. लेकिन वो बच्चा बीमार इसलिए है क्योंकि बच्चा सात घंटे स्कूल में बिताता था, फिर ट्यूशन जाता था। वापस आने के बाद न तो वो माता-पिता से बात करता था, न पढ़ाई, खाना और सोना दोनों उसने छोड़ दिया था. इसलिए उसकी इस लत को छुड़ाना ज़्यादा मुश्किल था।'
डॉक्टर बलहारा आगे बताते हैं, 'एक दूसरा आदमी जो गेम बनाता है या उसकी टेस्टिंग करता है और दिन में 12 घंटे गेम खेलता है, वो बीमार नहीं कहलाएगा. ऐसा इसलिए क्योंकि उसका ये पेशा है और उसका ख़ुद पर नियंत्रण बरकरार है।'
गेमिंग एडिक्शन का इलाज?
ये एक ऐसी बीमारी है जिसमें मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक दोनों की मदद लेनी पड़ती है। कई जानकार मानते हैं कि दोनों एक समय पर इलाज करें तो मरीज़ में फ़र्क जल्दी देखने को मिलता है।
लेकिन मनोवैज्ञनिक डॉक्टर जयंती इससे इत्तेफ़ाक नहीं रखतीं। उनके मुताबिक कई मामले में साइको थेरेपी ही कारगर होती है, कई मामले में कॉग्नीटिव थेरेपी का इस्तेमाल किया जाता है। बच्चों में प्ले थेरेपी से काम चल सकता है। ये सब इस बात पर निर्भर करता है कि मरीज़ में एडिक्शन किस स्तर का है।
डॉक्टर बलहारा के मुताबिक इन दिनों तीन तरह के एडिक्शन ज़्यादा प्रचलित हैं - गेमिंग, इंटरनेट और गैम्बलिंग।
दिल्ली के एम्स में चलने वाले बिहेवियलर क्लीनिक में तीनों तरह के एडिक्शन का इलाज होता है। ये क्लीनिक हर शनिवार को सुबह नौ बजे से दोपहर के एक बजे तक चलती है। डॉक्टर हर हफ्ते तकरीबन पांच से सात मरीजों को देखते हैं और महीने में ऐसे तक़रीबन 30 मरीज़ सेंटर पर इलाज के लिए आते हैं।
मरीजों में से ज्यादातर लड़के या पुरुष होते हैं। लेकिन ऐसा नहीं कि लड़कियों में ये एडिक्शन नहीं है। आजकल लड़कियों और महिलाओं में भी इसकी संख्या बढ़ती जा रही है।
उनके मुताबिक, 'कभी थेरेपी से काम चल जाता है तो कभी दवाइयों से और कभी दोनों तरह के इलाज साथ में देने पड़ते हैं।'
आमतौर पर थेरेपी के लिए मनोवैज्ञिक के पास जाना पड़ता है और दवाइयों से इलाज के लिए मनोचिकित्सक के पास।
डब्ल्यूएचओ के आकंड़ो के मुताबिक इस बीमारी के शिकार 10 में से एक मरीज़ को अस्पताल में रह कर इलाज कराने की ज़रूरत पड़ सकती है। आम तौर पर 6-8 हफ्तों में ये गेमिंग एडिक्शन की लत छूट सकती है।
डॉक्टर बलहारा के मुताबिक गेमिंग की आदत न पड़ने देना ही इससे बचने का सटीक उपाय है। गेमिंग एडिक्शन के बाद इलाज कराना ज़्यादा असरदार उपाय नहीं है।
तो अगली बार बच्चों को मोबाइल हाथ में देने से पहले या अपने फोन पर भी गेम खेलने से पहले एक बार ठहर कर सोच जरूर लीजिएगा।