क्या राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता खत्म होने का कांग्रेस फायदा उठा पाएगी?

BBC Hindi

शनिवार, 25 मार्च 2023 (08:46 IST)
मयूरेश कोन्नूर, बीबीसी मराठी संवाददाता
कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की लोकसभा की सदस्यता रद्द होने की ख़बर से राजनीतिक गलियारों की हवा तेज हो गई है। अदालत के इस फ़ैसले के बाद दिल्ली से लेकर देशभर की राजनीति कैसे बदलेगी, ये चर्चा शुरू हो गई है।
 
इस निर्णय के राहुल गांधी के लिए मायने क्या हैं? अपने हाथ से निकल चुकी प्रतिष्ठा को हासिल करने में जुटी कांग्रेस के लिए इसके क्या मायने हैं? क्या इसे देखते हुए विपक्षी दलों के इकट्ठा आने का जो सपना है, क्या वह पूरा होगा? ऐसे कई सवाल उठने शुरु हो गए हैं।
 
2024 के लोकसभा के आम चुनाव अभी सवा साल साल दूर है। मगर उससे पहले कर्नाटक, राजस्थान और मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव होने हैं।
 
इन तीनों राज्यों में कांग्रेस की टक्कर सीधे-सीधे भाजपा के साथ होनी है। ऐसे में ये सवाल भी उठ रहा है कि राहुल गांधी की सदस्यता जाने से क्या कांग्रेस यहां अपने पक्ष में माहौल खड़ा कर पाएगी?
 
क्या राहुल गांधी 'भारत जोड़ो यात्रा' से हासिल राजनीतिक प्रतिष्ठा को आगे बढ़ा पाएंगे या फिर ये माना जाए कि बीजेपी ने अपने प्रतिस्पर्धी को इस मौक़े पर मात दे दी है? हमने देश कुछ वरिष्ठ पत्रकारों से पूछा कि इस पूरे मामले की राजनीतिक मायने क्या हो सकते हैं।
 
'राहुल को फायदा होने की संभावना ज़्यादा'
वरिष्ठ पत्रकार संजीव श्रीवास्तव का मानना है की राहुल गांधी समेत सभी विरोधी दलों के लिए अब यह जनता को ये बताने का एक मौक़ा है कि उनको कैसे टारगेट किया जा रहा है।
 
वो कहते हैं, "अब यह कांग्रेस पर निर्भर रहेगा कि वह किस तरह राहुल गांधी की सदस्यता जाने पर 'जन आंदोलन' खड़ा करतr है। लेकि एक बात तो साफ़ है कि सारे विरोधी दल इस मामले में राहुल गांधी के साथ खड़े हैं।"
 
"यह राय बनती जा रही है कि यह लोकतंत्र के ख़िलाफ़ है और विरोधी दलों के नेताओं को टारगेट किया जा रहा है। इस पर सर्वसम्मति कैसे होती है, सारे दल इकट्ठा कैसे रह पाते है, किन मुद्दों पर और एकता बढ़ती है या बिखरती है, कांग्रेस अपने कैडर को किस तरह जोश दे पाती है, ये सब देखने वाली बात होगी।"
 
हालांकि वो ये भी कहते हैं कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल अभी तक मतदाताओं को बीजेपी के ख़िलाफ़ खड़ा नहीं कर पाई है।
 
संजीव श्रीवास्तव कहते हैं, "इसकी वजह ये है कि विपक्षी दल अभी तक लोगों को प्रेरित नहीं कर पाए हैं। हम उनके बारे मे विश्वास से कुछ नहीं कर सकते। हालांकि एक चीज़ तो साफ दिख रही है कि इस फ़ैसले से राहुल गांधी को फायदा ही होने की संभावना ज़्यादा है।"
 
लखनऊ में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान को लगता है कि जैसे आपातकाल के बाद जेल जाना इंदिरा गांधी ने एक मौक़े में बदला था, कुछ वैसा ही अवसर राहुल गांधी को मिला है। मगर क्या वह वैसा कर पाएंगे?
 
वो कहते हैं, "मुझे लगता है कि इस निर्णय ने कांग्रेस में नई ऊर्जा डाल दी है। राहुल गांधी को एक तरीक़े का बूस्ट मिला है। सबको पता है कितने ग़लत तरीक़े से यह निर्णय हुआ है। जब बाबरी मस्जिद का जजमेंट आता है तो कहते है की यह मोदीजी ने कराया और जब यह होता है तो कहते है कि कोर्ट ने किया है, हमसे क्या मतलब है?"
 
"यह कुछ ऐसा ही है जैसे इंदिरा गांधी को इमरजेंसी के बाद सताया गया था। इंदिरा गांधी ने आपातकाल लाकर ग़लती की थी। लेकिन बाद मे जब उन्हें जेल भेज दिया गया तो उन्हें सत्ता में वापसी की। मुझे लगता है कि राहुल गांधी के लिए यह 'ब्लेसिंग इन डिसगाइज़' होगा। इससे पहले किसी को डिफ़ेमेशन केस में दो साल की सज़ा नहीं हुई। तो यह सब 'बाइ डिज़ाइन' किया गया है।"
 
'कांग्रेस को नया चेहरा सामने लाने का भी एक मौक़ा'
महाराष्ट्र में 'लोकसत्ता' अख़बार के संपादक गिरीश कुबेर को लगता है कि अब कांग्रेस के लिए ये नया चेहरा सामने लाने का भी एक मौक़ा है।
 
वो कहते हैं, "यह कांग्रेस के लिए एक बढ़िया अवसर है। अगर राहुल गांधी सामने नहीं है तो बीजेपी कैसे खड़ी रहेगी। राहुल हमेशा उनके लिए 'पंचिंग बैग' रहे हैं। भाजपा के 'यश' में हमेशा राहुल गांधी के 'अपयश' भी एक हिस्सा रहा है। अब वही दूर हो गया। इसलिए अगर कांग्रेस सोच-समझकर आगे जाती है और नया चेहरा सामने लाती है, तो भाजपा के सामने नी चुनौती खड़ी हो सकती है। उन्हें सहानुभूति भी मिलेगी।"
 
एक तरफ राहुल गांधी के लिए यह एक अच्छा मौक़ा हो सकता है। मगर लोग पहुंच रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी को कैसे फायदा होगा?
 
गिरीश कहते हैं कि कांग्रेस के साथ एक बुनियादी समस्या है। कांग्रेस महंगाई, बेरोज़गारी, अडानी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे उठा रही है और उन्हें लोगों से प्रतिक्रिया मिल रही है। लेकिन कांग्रेस उस गति को बरकरार नहीं रख पा रही है और उस आंदोलन को जिंदा नही रख पा रही है।
 
संजीव श्रीवास्तव कहते हैं, "इसकी बड़ी वजह है कांग्रेस में संगठनात्मक खामियां। कांग्रेस ऐसी पार्टी कभी रही है कि जन आंदोलन या जन भावनाओं का सैलाब हो और उस पर सवार वह सत्ता में आ जाए। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद ऐसा माहौल बना था और राजीव गांधी 400 से ज़्यादा सीटें लेकर जीते थे। मगर फिलहाल लोगों का गुस्सा, भावनाएं, जनसैलाब जैसा माहौल तो नहीं दिख रहा है।"
 
संजीव श्रीवास्तव कहते हैं, "जो फ़ैसला हुआ है उसे कांग्रेस के अलावा और कौन आंदोलन में बदल सकता है, ज़मीन से आवाज उठाकर आंदोलन को ईवीएम तक ले जाया जा सकता है ये देखना होगा। ऐसी व्यवस्था फिलहाल कांग्रेस के पास नहीं दिखती, इसलिए जहां उनकी भाजपा के साथ सीधी टक्कर है वहां सीटें कांग्रेस हारती है।"
 
वो कहते हैं, "क्या ये परिस्थिति राहुल गांधी की सदस्यता जाने से एक दिन में बदल जाएगी? मुझे नहीं लगता वैसा होगा। मगर ऐसी स्थिति बनाने की कोशिश तो हो सकती है। यह एक अवसर है। अब तक कांग्रेस वह नहीं कर पायी है क्योंकि उनके पास संगठन नहीं है।"
 
वहीं शरत प्रधान को लगता है कि कांग्रेस आम लोगों से सीधी बात कर उसके साथ हुए अन्याय के बारे में बताए तो पार्टी को फायदा हो सकता है।
 
वो कहते हैं, "कांग्रेस अगर इस मामले को अच्छे तरीक़े से आम लोगों को बताए कि क्या हुआ है, तो उसे फायदा हो सकता है। पार्टी ने अब तक रिवाइवल का कोई भी प्रयास नहीं किया है। लोगों को 'अन्याय' के बारे में बताने में विपक्षी दलों की भी अहम भूमिका होगी। वो लोगों को बताए कि आज राहुल गांधी के साथ जो हुआ है वह कल किसी के साथ भी होगा।"
 
'कर्नाटक चुनाव में इसका कुछ असर नहीं होगा'
राजस्थान और मध्य प्रदेश से भी पहले अगले दो महीनों मे कर्नाटक में चुनाव होने वाले हैं। वहां फिलहाल भाजपा की सत्ता है, जो कांग्रेस से कुछ विधायक बाहर निकल जाने के बाद बनी है।
 
अब वहां कांग्रेस भाजपा को चुनौती दे रही है। लेकिन सवाल ये है कि क्या राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता खत्म होने का असर वहां के चुनाव में पड़ सकता है?
 
प्रोफेसर मुसफ्फर असादी मैसुरू युनिवर्सिटी' में राजनीति विज्ञान पढ़ाते हैं। उनका कहना है कि इस मुद्दे का असर नहीं पड़ेगा क्योंकि कर्नाटक की राजनीति स्थानीय नेताओं के इर्द-गिर्द घुमती है।
 
वो कहते हैं, "राहुल गांधी की सदस्यता जाने का जो फ़ैसला हुआ है वह बहुत ही अप्रत्याशित है। लेकिन कर्नाटक में चुनाव पर इसका कुछ अधिक असर होगा ऐसा मुझे नहीं लगता। क्योंकि, कर्नाटक में आप कांग्रेस की राजनीति देखें तो वो राहुल गांधी पर निर्भर नहीं है।"
 
वो कहते हैं, "यहां पर जो स्थानीय नेता हैं वही पार्टी के लिए वोट जुटाते हैं। जैसे कि यहां सिद्धारमैया राहुल गांधी से ज़्यादा लोकप्रिय हैं। ख़ास तौर पर ओबीसी समुदायों से आने वाले नेता यहां पर पार्टी के ताकत हैं।"
 
वो कहते हैं "इस बार चुनाव में यहां एंटी इंकम्बेंसी का मुद्दा है। यह मुद्दा जब हावी हो जाता है तो राहुल गांधी की सदस्यता जाने जैसे राष्ट्रीय मुद्दे यहां प्रभाव नहीं डालते। एक चीज़ हो सकती है कि यहां बीजेपी और कांग्रेस की विचारधाराओं की टक्कर हो। लेकिन कर्नाटक में राष्ट्रीय मुद्दे चुनाव में कोई मायने नहीं रखते।"
 

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