बॉस में मुझे हीरोइन नहीं मिली : अक्षय कुमार

बॉस को लेकर अक्षय कुमार उत्साहित हैं और उनके फैंस भी इस फिल्म का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं। पेश है अक्षय से बातचीत जिसमें उन्होंने बॉस और फिल्मों की असफलता के बारे में बताया है।

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क्या पूरी फिल्म पर नियंत्रण रखने के लिए आप ‘बॉस’ के निर्माता बने हैं?
जी नहीं। मेरे निर्माता बनने की वजह यह है कि जिस तरह की फिल्में मैं करना चाहता हूं कर सकूं।

बॉस के बारे में क्या कहेंगे?
मलयालम फिल्म ‘पोखरी राजा’ का हिंदी रिमेक है। दो भाइयों और उनके पिता के रिश्तों की कहानी है। पिता-पुत्र का रिश्ता इसलिए पसंद आया क्योंकि मैं खुद अपनी जिंदगी में पिता के बेहद करीब रहा हूं। इस वजह से भी मैंने यह फिल्म बनाने की सोची। बॉलीवुड में मां को लेकर तमाम फिल्में बनी हैं, लेकिन पिता-पुत्र के रिश्ते पर बनी फिल्मों की संख्या बहुत कम है। यह सच है कि पूरे विश्व में मां का दर्जा ही सबसे ऊपर है, लेकिन बाप के दर्जे को भी इतना नीचा नहीं मानना चाहिए। मैं साफ तौर पर यह भी कहना चाहूंगा कि मां-बेटे और बाप-बेटे के रिश्तों की तुलना नहीं हो सकती है।

पिता-पुत्र के रिश्ते पर आपने कुछ फिल्में की हैं। बॉस उनसे कितनी अलग है?
इसमें विचार अलग हैं। ‍सोच अलग है। लेकिन रिश्ता वही है।

‘पोखरी राजा’ और ‘बॉस’ में कितना अंतर है?
खास अंतर नहीं है। ‘पोखरी राजा’ की तरह बॉस में भी मुझे हीरोइन नहीं मिली है। बॉस में मेरे पात्र की एंट्री फिल्म शुरू होने के 19 मिनट बाद होती है, जबकि ‘पोखरी राजा’ में हीरो 45 मिनट बाद पहली बार परदे पर नजर आता है।

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सुना है कि ‘बॉस’ के फाइट सींस में केबल का उपयोग नहीं किया गया है?
सच है। केबल फाइट्स में एक आदमी खूब दूर तक आगे चला जाता है जो अस्वाभाविक लगता है। अब केबल फाइटिंग का जमाना लद गया है। इस फिल्म के क्लाइमेक्स में छ: मिनट की फाइट है। यह मैन टू मैन है। यानी कि मेरे और विलेन के बीच सीधी टक्कर। फिल्म लार्जर देन लाइफ होने के साथ-साथ रियलिस्टिक भी है।

मिथुन चक्रवर्ती के साथ काम करने के अनुभव कैसे रहे?
कई फिल्में मैंने मिथुन दा के साथ की है। हमेशा मजा आता है। इस फिल्म में वे मेरे पिता बने हैं। परदे पर दिखाई देता है कि वे मुझे अपना पिता मान रहे हैं। यह बात उनके अभिनय में उभरकर दिखाई देती है। वे ब्रिलियंट कलाकार हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है।

निर्देशक एंथनी डिसूजा के बारे में क्या कहेंगे?
फिल्म तकनीक के मामले में उन्हें कोई मात नहीं दे सकता। यदि उन्हें सही स्क्रिप्ट दी जाए तो वे माइंड ब्लोइंग काम करके दिखाते हैं। जब उन्होंने ‘ब्लू’ निर्देशित की थी तो उसमें भी आधुनिक तकनीक का उपयोग किया था। उस वक्त किसी ने इस तरह की फिल्म बनाने की बात सोची थी। फिल्म नहीं चली, यह एक अलग बात है। मैं आज भी ‘ब्लू’ की तारीफ करता हूं।

डैनी से क्या सीखा?
मैंने अपना पहला ऑफिस उन्हीं से खरीदा था। उनके इस ऑफिस खरीदने के बाद मेरे करियर में चार चांद लग गए। मैं उन्हें अपने लिए लक्की मानता हूं। मैं खुद को उनकी तरह बनाना चाहता हूं। वे आज भी एकदम युवा लगते हैं। मुझे उनसे बहुत कुछ सीखना है। जब मैं उनसे मिलता हूं, मुझे लगता है कि वे 24-25 साल के लड़के हैं। वे अपनी शर्तों पर काम करते हैं। गर्मी के मौसम में चार माह वह कभी शूटिंग नहीं करते हैं। उन्होंने अपने तरीके से अपने आपको बनाया है। मैं भी उनकी तरह जिंदगी जीना चाहता हूं।

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बॉस में आपने शिव पंडित को मौका दिया है।
मैं हमेशा नए लोगों को अवसर देता रहता हूं। यह शिव की दूसरी फिल्म है। इसके पहले वह ‘शैतान’ में नजर आया था। अच्छा और मेहनती कलाकार है। उसमें कुछ अलग करने की भूख है। इस फिल्म में उसे सही मौका मिला है।

क्या आप मानते हैं कि नामचीन कलाकार नहीं हो तो फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं रहती?
फिल्म नामचीन कलाकारों से नहीं बल्कि स्क्रिप्ट से चलती है। सुपरस्टार वाला जमाना अब गया। अब चरित्र आधारित और स्क्रिप्ट आधारित फिल्म ही चलेगी। स्क्रिप्ट ही सबसे बड़ा हीरो होती है। स्क्रिप्ट अच्छी हो और निर्देशक ठीक-ठाक न भी हो तो काम चल जाता है।

आपकी पिछली फिल्म नहीं चली। कहां गलती हुई?
पता नहीं। फिल्म शुक्रवार रिलीज होती है और शाम तक परिणाम पता चल जाता है। शनिवार को तकलीफ होती है और रात ग्यारह बजे तकलीफ दूर हो जाती है। रविवार को दूसरी फिल्म पर काम करना शुरू कर देता हूं। कहां गलती हुई? क्या गड़बड़ी हुई? इस पर मैं ज्यादा विचार नहीं करता। सफलता-असफलता आती-जाती रहती है।

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