बॉलीवुड में ऐसे कई फिल्म निर्देशक हुए हैं जिनकी अधिकांश फिल्मों को दर्शकों ने सफल बनाया। कई ऐतिहासिक फिल्में इन निर्देशकों ने बनाईं, लेकिन कुछ ऐसी भी फिल्में रहीं जो बॉक्स ऑफिस पर असफल रही। कभी ये फिल्मकार फेल हो गए तो कभी दर्शक। आइए चर्चा करते हैं ऐसे ही सफल निर्देशक और उनकी सबसे बड़ी फ्लॉप फिल्मों की।
गुरुदत्त : कागज के फूल (1959)
गुरुदत्त कितने बेहतरीन निर्देशक थे, ये बताने की जरूरत नहीं है। बाजी (1951), जाल (1952), आर पार (1954), मि. एंड मिसेस 55 (1955), प्यासा (1957) और कागज के फूल (1959) जैसी शानदार फिल्में उन्होंने बनाईं। ये फिल्में आज भी देखी जाती हैं। सिनेमा को जो बारीकी से समझना चाहता है, अध्ययन करना चाहता है, उसके लिए गुरुदत्त की ये फिल्में किसी खजाने से कम नहीं हैं। गुरुदत्त द्वारा निर्देशित फिल्म 'कागज के फूल' बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह से असफल रही थी। इसका जबरदस्त झटका गुरुदत्त को लगा था। यह फिल्म उनके दिल के बेहद करीब थी। फिल्म में गुरुदत्त, वहीदा रहमान और जॉनी वॉकर ने अभिनय किया था।
यह फिल्म ऐसे फिल्म निर्देशक की कहानी है जिसके गृहस्थ जीवन में समस्या है। बरसात की एक रात में इस निर्देशक की मुलाकात एक महिला से होती है जिसे वह अपना कोट देता है। कोट लौटाने के लिए अगले दिन यह महिला स्टुडियो आती है और अनचाहे कैमरे के सामने आ जाती है। निर्देशक को इस महिला में कलाकार नजर आता है। वह उसे मौका देता है और यह महिला बड़ी स्टार बन जाती है। दोनों की नजदीकियों की चर्चा पत्रिकाओं के गॉसिेप कॉलम में होती है। फिल्म की कहानी में हमें गुरुदत्त के जीवन की झलक भी मिलती है।
फिल्म को बहुत ही उम्दा तरीके से शूट किया गया। लाइट एंड शैडो का कमाल इस फिल्म में देखने को मिलता है। गुरुदत्त के निर्देशन की छाप हर दृश्य में आप महसूस करते हैं। गुरुदत्त और वहीदा ने अद्भुत अभिनय इस फिल्म में किया। गीता दत्त द्वारा गाया गीत 'वक्त ने किया क्या हसी सितम' आज भी लोगों की जुबां पर है।
जब फिल्म रिलीज हुई तो असफल रही। इसकी असफलता ने गुरुदत्त को तोड़ दिया। कई लोगों ने माना कि यह समय से आगे की फिल्म है। फिल्मकार नहीं बल्कि दर्शक असफल रहे हैं जो इस फिल्म को समझ नहीं पाए। बाद में इसे क्लासिक फिल्म माना गया। कुछ क्रिटिक्स ने इसे 'ग्रेटेस्ट फिल्म्स ऑफ ऑल टाइम' में भी स्थान दिया। यदि आपने यह फिल्म नहीं देखी है तो जरूर देखिए।
राज कपूर : मेरा नाम जोकर (1970)
राज कपूर को शो-मैन यूं ही नहीं कहा जाता था। उनकी फिल्मों का दर्शक वर्षों तक इंतजार करते थे। राज कपूर इत्मीनान से फिल्में बनाते थे। सशक्त कहानी को मधुर गानों के साथ गूंथकर वे इस तरह से पेश करते थे कि दर्शक कायल हो जाते थे। टिकट खिड़की पर उनकी फिल्म पैसों की बरसात करती थी। 24 वर्ष की छोटी-सी उम्र में उन्होंने अपना बैनर 'आरके स्टुडियो' स्थापित कर और 'आग' निर्देशित कर सभी को चौंका दिया। आवारा, श्री 420, बूट पॉलिश, संगम, बॉबी, प्रेम रोग, राम तेरी गंगा मैली जैसी कई बेहतरीन फिल्म उन्होंने बनाई, जिसे फिल्म समीक्षकों और दर्शकों ने सराहा।
राजकपूर ने 1970 में 'मेरा नाम जोकर' बनाई थी। इसे बनाने में उन्हें 6 वर्ष लगे। उन्होंने फिल्म को अथक परिश्रम के साथ तैयार किया। खूब प्रचार किया। लोगों में अपेक्षाएं बढ़ गई, लेकिन फिल्म आम दर्शकों को छू नहीं पाई। फिल्म समीक्षकों ने इसकी आलोचना की और आम दर्शकों ने फिल्म को फ्लॉप करा दिया। मेरा नाम जोकर की असफलता राज कपूर के लिए किसी सदमे से कम नहीं था। आर्थिक परेशानियों से भी वे घिर गए।
राज कपूर ने इस फिल्म में सर्कस में काम करने वाले जोकर की भूमिका अदा की थी। फिल्म में इस जोकर के बचपन से तो अंतिम परफॉर्मेंस तक की यात्रा दिखाई गई थी। फिल्म में ढेर सारे सितारों ने काम किया। फिल्म का संगीत भी पसंद किया गया, लेकिन दर्शकों को यह फिल्म पसंद नहीं आई।
राज कपूर से जब एक इंटरव्यू में सवाल किया गया था कि उनके द्वारा निर्देशित कौन सी फिल्म उन्हें पसंद है तो उन्होंने जवाब दिया था कि एक मां से यदि यह सवाल पूछा जाए कि उसे अपना कौन सा बच्चा प्रिय है तो वह पहले जवाब नहीं देगी। जोर दिया जाए तो वह उस बच्चे का नाम लेगी जो सबसे कमजोर है। मैं मेरा नाम जोकर का नाम लूंगा क्योंकि यह असफल रही थी, लेकिन मुझे अति प्रिय है। मेरा नाम जोकर लगभग चार घंटे की फिल्म थी। कुछ वर्षों बाद इसे फिर से सम्पादित कर पुन: प्रदर्शित किया गया तो इसे काफी दर्शक मिले।
यश चोपड़ा : लम्हें (1991)
यश चोपड़ा मरते दम तक फिल्म बनाते रहे। पचास वर्षों से ज्यादा लंबा उनका करियर रहा है। इस दौरान उन्होंने 22 फिल्में निर्देशित कीं और कई फिल्मों के निर्माता भी रहे। अपने करियर के शुरू में उन्होंने अलग-अलग किस्म की फिल्में, धूल का फूल, वक्त, आदमी और इंसान, इत्तेफाक, दीवार बनाईं, लेकिन कभी कभी (1976) के बाद उनका रुझान रोमांटिक फिल्मों की ओर हो गया।
उनकी जोशीला (1973), मशाल (1984), फासले (1985), विजय (1988) फ्लॉप रहीं, लेकिन दो फिल्मों की असफलता ने उन्हें झकझोर दिया। अमिताभ-रेखा-जया को लेकर उन्होंने 1981 में सिलसिला बनाई थी जिसकी असफलता से वे आत्मविश्वास खो बैठे थे। इस फिल्म की असफलता की किसी को उम्मीद नहीं थी। सुपरस्टार का साथ, मधुर संगीत, भव्य बजट और कुशल निर्देशन के बावजूद इस फिल्म को दर्शकों ने नकार दिया। फिल्म में जया बच्चन के होते दर्शक अमिताभ-रेखा का रोमांस बर्दाश्त नहीं कर पाए।
इससे भी बड़ी नाकामयाबी यश ने 'लम्हें' (1991) के रूप में देखी। अनिल कपूर और श्रीदेवी अभिनीत इस फिल्म के सामने नए कलाकारों (अजय देवगन और मधु) की 'फूल और कांटे' रिलीज हुई और 'लम्हें' इस फिल्म से मात खा बैठी। लम्हें की नाकामयाबी ने यश को इसलिए भी निराश किया क्योंकि यह उनके करियर की बेहतरीन फिल्मों में से एक मानी जाती है। इस फिल्म की नाकामयाबी का यह सार निकाला गया कि एक पिता के उम्र से लड़की की मोहब्बत दर्शक बर्दाश्त नहीं कर पाए। यह समय से आगे की फिल्म मानी गई। फिल्म की नाकामयाबी से बॉलीवुड को करारा झटका लगा। यश को निराशा से दूर निकलने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। 'डर' के जरिये उन्होंने सफल वापसी की और उसके बाद कभी असफलता का मुंह नहीं देखा।
रमेश सिप्पी : ज़माना दीवाना (1995)
रमेश सिप्पी को 'शोले' के लिए आज तक याद किया जाता है। बॉलीवुड के इतिहास की सफलतम फिल्मों में से एक 'शोले' मानी जाती है। ढेर सारे सितारों को लेकर रमेश ने अपने करियर की बेहतरीन फिल्म बनाई। जीपी सिप्पी के बेटे रमेश को हमेशा भव्य फिल्म बनाना पसंद रहा। शान, शक्ति, सागर जैसी कुछ उम्दा फिल्में उन्होंने बनाई जिनके बॉक्स ऑफिस पर मिश्रित परिणाम रहे। दरअसल हर बार उनसे 'शोले' जैसी सफलता की उम्मीद करना बेमानी है। इसका भार उठाना उनके लिए हमेशा नुकसानदायक रहा। लोग सिप्पी की हर फिल्म की तुलना 'शोले' से करते थे।
भ्रष्टाचार और अकेला जैसी फिल्में जब पिटने के बावजूद रमेश सिप्पी की काबिलियत पर किसी को शक नहीं रहा। लगा कि यह निर्देशक वापसी का दम रखता है। 1995 में रमेश सिप्पी ने शाहरुख खान और रवीना टंडन को लेकर 'ज़माना दीवाना' बनाई। इस फिल्म को देख कर यकीन नहीं होता कि इसके निर्देशक रमेश सिप्पी हैं। घिसी-पिटी कहानी पर आधारित यह फिल्म अत्यंत ही कमजोर है और बॉक्स ऑफिस पर इस फिल्म ने कोई हलचल नहीं मचाई।
फिल्म की नाकामयाबी से रमेश सिप्पी इतने दु:खी हो गए कि उन्होंने निर्देशन करना ही छोड़ दिया। एक बेहतरीन निर्देशक का इस तरह से खाली बैठना फिल्म इंडस्ट्री के लिए नुकसानदेह ही साबित हुआ। वर्षों बाद उन्होंने 'शिमला मिर्च' नामक फिल्म निर्देशित की है, लेकिन अफसोस की बात यह है कि इस फिल्म को कोई खरीददार ही नहीं मिल रहा है।
सुभाष घई : यादें (2001)
सुभाष घई फिल्मों में हीरो बनने आए थे। सफलता नहीं मिलती तो निर्देशक बन गए। 'कालीचरण' (1976) उनकी पहली फिल्म थी जिसे दर्शकों ने काफी पसंद किया। इसके बाद कर्ज (1980), हीरो (1983), कर्मा (1986), राम लखन (1989), सौदागर (1991) और खलनायक (1993) जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्में उन्होंने बनाईं। सुभाष घई ने कभी महान या क्लासिक फिल्में नहीं बनाईं, लेकिन उस दौर के दर्शकों की नब्ज पर उनकी गजब की पकड़ थी। दर्शकों के मिजाज के अनुरूप वे फिल्म गढ़ते गए और सफलता के इतिहास रचते गए। घई और सफलता एक-दूसरे के पर्याय बन गए। पोस्टर पर सुभाष घई का नाम देख कर ही दर्शक टिकट खरीद लिया करते थे। उन्होंने खुद को 'शो-मैन' के रूप में प्रचारित भी किया। उनकी फिल्म में नाटकीय चरित्र और घटनाक्रम होते थे। संगीत की घई को गहरी समझ रही है और उनकी फिल्मों के अधिकांश गाने हिट भी रहे हैं।
खलनायक के बाद घई का जादू उतार पर आ गया। परदेस और ताल जैसी फिल्मों को उम्मीद से कम सफलता मिली। 2001 में रितिक रोशन और करीना कपूर जैसे सितारों के साथ सुभाष घई ने 'यादें' बनाई। यह उनकी बेहद कमजोर फिल्म थी और दर्शकों ने पहले दिन से ही इसे नकार दिया। 'यादें' इतनी बुरी तरह पिटी कि बॉलीवुड हैरान रह गया। कुछ ने कहा कि इसे तो मनोरंजन कर से मुक्त कर देना चाहिए क्योंकि इसमें मनोरंजन ही नहीं है। 'यादें' की असफलता ने सुभाष घई के आत्मविश्वास को हिला दिया और इससे वे अभी तक नहीं उबरे हैं। 'यादें' के बाद भी कुछ फिल्में घई ने बनाई, लेकिन 'यादें' के बाद यह मान लिया गया कि पुरानी सफलताओं को दोहराना घई के बस की बात नहीं है।