सायरा बानो : ब्यूटी क्वीन का ग्लैमरस गुड़िया से समाज सेवा का सफर

'जा-जा-जा मेरे बचपन कहीं जा के छुप नादां'- गीत गाते हुए सायरा बानो फिल्म जंगली के साथ पहली बार परदे पर आई थी। उनका शबाब प्याले से छलकती शराब जैसा चंचल था। श्वेत-श्याम फिल्मों के जमाने में जंगली पहली रोमांटिक रंगीन फिल्म थी। इसमें शम्मी कपूर ने पहली बार 'याहू' की हुंकार भरी थी, जो देश की गली-गली में गूँजी थी। 
 
कश्मीर की मनमोहक घाटियाँ। बर्फ से लकदक पेड़ और मैदान। उस पर चहलकदमी करते, तराने गाते, छेडछाड़ करते दो जवाँ दिलों ने दर्शकों की धड़कनें बढ़ा दी थीं। फिल्म जंगली सुपरहिट रही। शंकर-जयकिशन के मीठे गीतों की वजह से और शम्मी कपूर के विद्रोही तेवरों की वजह से। सायरा बानो की बम्बइया सिनेमा में धूम मच गई। 
 
माँ-बेटी : दोनों ब्यूटी-क्वीन
23 अगस्त 1944 को जन्मी सायरा बानो के बारे में विस्तार से जाने के पहले तीस के दशक की ग्लैमरस नायिका नसीम बानो को जानना ज्यादा जरूरी है। उस दौर में फिल्मों में आने वाली लड़कियाँ प्रायः निचले तबकों से हुआ करती थी। ऊँचे-रईस खानदान की नसीम ने जब फिल्मों में आने की जिद की, तो परिवार का विरोध झेलना पड़ा। लेकिन सोहराब मोदी जैसे निर्माता-निर्देशक ने नसीम को फिल्म हेमलेट में ओफिलिया के रोल का ऑफर दिया, तो सबका गुस्सा काफूर हो गया। 
 
नसीम की किस्मत जागी फिल्म पुकार से। जहाँगीर के न्याय पर आधारित इस फिल्म में नसीम ने नूरजहाँ का किरदार चन्द्रमोहन के साथ निभाया था। अपनी ही आवाज गाना भी गाया था- 'जिंदगी का साज भी क्या साज है, बज रहा है और बेआवाज है।' 
 
नसीम तीस के दशक की तमाम तारिकाओं में सबसे अधिक हसीन और शोख थी। इसीलिए उन्हें ब्यूटी-क्वीन के नाम से प्रचारित किया जाता था। जब सायरा बानो को फिल्मों में लांच किया गया, तो माँ का ताज उनके सिर पर रखा गया। नसीम बानो की उल्लेखनीय फिल्मों में चल-चल रे नौजवान, उजाला, बेगम और चाँदनी रात प्रमुख हैं। 
 
लंदन से आया चाँद का टुकड़ा!
नसीम बानो ने अहसान मियाँ नामक एक अमीरजादे से निकाह किया था। उन्होंने नसीम की खातिर कुछ फिल्मों का निर्माण किया था। सायरा का जन्म 23 अगस्त 1941 को मसूरी में हुआ। सायरा की नानी शमशाद बेगम दिल्ली की मशहूर गायिका थी। 
 
भारत-पाक विभाजन के बाद अहसान मियाँ पाकिस्तान जा बसे। नसीम बेटी सायरा और बेटे सुल्तान को लेकर लंदन जा बसी। सायरा की शिक्षा-दीक्षा लंदन में हुई है। छुट्टियाँ मनाने सायरा जब भारत आती, तो दिलीप कुमार की फिल्मों की शूटिंग देखने घंटों स्टुडियो में बैठी रहती थी। 
 
सायरा बानो ने एक साक्षात्कार में यह माना है कि जब वह बारह साल की थी, तब से अल्लाह से इबादत में माँगती थी कि उसे अम्मी जैसी हीरोइन बनाना और श्रीमती दिलीप कुमार बनकर उसे बेहद खुशी होगी। सायरा ने 1959 में बॉलीवुड में प्रवेश किया। नसीम के पुराने दोस्त रहे फिल्मालय के शशधर तथा सुबोध मुखर्जी ने फिल्म जंगली में शम्मी कपूर के साथ सायरा को लांच किया था। 
 
रोमांस राजेन्द्र कुमार से
सन्‌ 1960 के दशक में सायरा की कई सुपरहिट फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धूम मचाने लगी थी। उन दिनों राजेन्द्र कुमार को जुबिली कुमार के नाम से पुकारा जाने लगा था। राजेन्द्र के अभिनय में दिलीप साहब की पूरी परछाई समाई हुई थी। 
 
सायरा का दिल राजेन्द्र पर फिदा हो गया, जबकि वे तीन बच्चों वाले शादीशुदा व्यक्ति थे। माँ नसीम को जब यह भनक लगी, तो उन्हें अपनी बेटी की नादानी पर बेहद गुस्सा आया। उन्हीं दिनों उन्होंने दिलीप कुमार के पाली हिल वाले बंगले के पास जमीन खरीदकर घर बनवा लिया था। सायरा का दिलीप के घर आना-जाना और बहनों से मेल-मिलाप जारी था। 
 
नसीम ने पड़ोसी दिलीप साब की मदद ली और उनसे कहा कि सायरा को वे समझाइश दें ताकि राजेन्द्र कुमार से पीछा छूटे। बेमन से दिलीप कुमार ने यह काम किया क्योंकि वे सायरा के बारे में ज्यादा जानते भी नहीं थे और शादी का तो दूर-दूर तक इरादा नहीं था। 
 
जब दिलीप साहब ने सायरा को समझाया कि राजेन्द्र के साथ शादी का मतलब है पूरी जिंदगी सौतन बनकर रहना और तकलीफें सहना। तब पलटकर सायरा ने दिलीप साहब से सवाल किया कि क्या वे उससे शादी करेंगे? सवाल से अचकचाए दिलीप उस समय तो कोई जवाब नहीं दे पाए। 
 
मगर 11 अक्टोबर 1966 को उन्होंने अपनी 44 साल की उम्र में पच्चीस साल की सायरा से बाकायदा शादी रचा ली। दूल्हे दिलीप कुमार की घोड़ी की लगाम पृथ्वीराज कपूर ने थामी थी और दाएँ-बाएँ राज कपूर तथा देव आनंद नाच रहे थे। 
 
शादी से पहले का ड्रामा
दिलीप कुमार ने कोई चट मंगनी पट ब्याह की स्टाइल नहीं अपनाई थी। नसीम और सुबोध मुखर्जी को इसके लिए काफी फिल्डिंग करना पड़ी। दिलीब साब चेन्नाई में एक फिल्म की शूटिंग के समय बीमार हो गए। फौरन सायरा ने फ्लाइट पक्रडी और चेन्नाई जाकर नर्स की तरह दिलीप साहब की सेवा में जुट गई। 
 
महाबलेश्वर में भी दोनों की मुलाकातें हुईं। आखिर उनका झुकाव सायरा की ओर होने लगा क्योंकि वे कामिनी कौशल तथा मधुबाला से निराश हो चुके थे। अपने कुँवारेपन की आजादी को आखिर वे छोड़ देना चाहते थे। 
 
आँधी-तूफान और अस्मां
दिलीप कुमार के भीड़-भाड़ वाले घर में सायरा का ज्यादा दिनों तक मन नहीं लगा। वे उसी मोहल्ले में माँ के साथ रहने लगी। सायरा ने फिल्मों में काम जारी रखा। दिलीप साहब के अलावा भी वे दूसरे नायकों की नायिका बनती रहीं। फिल्म विक्टोरिया 203 के समय वे गर्भवती थीं। शूटिंग लगातार करते रहने से उन्होंने मृत शिशु को जन्म दिया। इस दुर्घटना पर दिलीप कुमार फूट-फूटकर रोए थे। 
 
कुछ समय बाद दिलीप-सायरा के बीच अस्मां नामक एक खूबसूरत महिला आकर खड़ी हो गई। कहा जाता है कि यह सब एक साजिश के तहत रचा गया प्लान था। 30 मई 1980 को उसने बंगलौर में दिलीप कुमार से शादी की। 
 
समय रहते दिलीप साहब ने उससे छुटकारा पा लिया, लेकिन तीन साल तक वे झूठ बोलते रहे कि उनकी कोई दूसरी शादी नहीं हुई है। ऐसा माना जाता है कि दिलीप साहब के दिल में पिता कहलाने की एक ललक थी, जिसे वे शायद अस्मां के जरिये पूरी करना चाहते थे। 
 
दिलीप-सायरा : आदर्श दम्पति
इन दिनों दिलीप कुमार और सायरा दोनों बुढ़ापे की दहलीज पार कर चुके हैं। अल्जाइमर की बीमारी के चलते सायरा ही उनकी एकमात्र याददाश्त और सहारा है। हर कहीं दोनों एक साथ आते-जाते हैं और एक-दूसरे का सहारा बने हुए हैं। कुछ पार्टियों और फिल्मी प्रीमियर के मौके पर वे नजर भी आते हैं। 
 
सायरा बानो ने अपने खाली समय को सामाजिक सेवा में भी लगाया है। मुंबई के दंगों के बाद घायल लोगों के घाव पर मरहम लगाने अथवा उनके फिर से नई जिंदगी शुरुआत करने के काम में वे मदद करती हैं। 
 
वेल्फेयर आर्गेनाइजेशन फॉर रिलीफ एंड केयर सर्विसेस के तहत बगैर किसी धर्म, जाति, सम्प्रदाय के भेदभाव के सायरा यह काम खुले दिल-दिमाग से कर रही हैं। एक ग्लेमरस तारिका का इससे बड़ा सामाजिक सरोकार और क्या हो सकता है?

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