भाग मिल्खा भाग ये आखिरी शब्द थे उस तेरह वर्षीय लड़के के पिता के, जिन्होंने मरने के पहले बोले थे। उसके बाद उस लड़के ने ऐसी दौड़ लगाई कि दुनिया के कई देशों में सफलता के झंडे गाड़ दिए। भारत का नाम ऊंचा कर दिया। बात मिल्खा सिंह की हो रही है, जिनकी जिंदगी पर राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने ‘भाग मिल्खा भाग’ नामक फिल्म बनाई है।
क्या मिल्खा सिंह की जिंदगी में ऐसी घटनाएं घटी हैं कि उन पर फिल्म बनाई जाए? इसका जवाब सकारात्मक है। भारत-पाक विभाजन की त्रासदी, छोटी-मोटी चोरियां, प्रेम-प्रसंग, सेना में भर्ती, दूध पीने की खातिर दौड़ना और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करना, ये सब बातें एक फिल्म के लिए काफी हैं।
मिल्खा सिंह के जीवन में कई घटनाएं घटी और इनमें से किसे चुनना और किसे छोड़ना निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा और लेखक प्रसून जोशी के लिए मुश्किल रहा होगा। कुछ बातें छूट गई हैं, लेकिन सबको शामिल नहीं किया जा सकता था। यहां प्रस्तुतिकरण बहुत मायने रखता है और राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने लगातार फ्लेश बैक का उपयोग कर घटनाओं को पेश किया है।
मिल्खा सिंह की जिंदगी में कई उतार-चढ़ाव आए। 1947 के पहले वे भारत के उस हिस्से में रहते थे जो अब पाकिस्तान में है। भारत-पाक विभाजन के कारण चारों ओर कत्ले-आम मचा हुआ था। मिल्खा और उनकी बहन को छोड़ परिवार के सारे लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। मिल्खा अपनी बहन के साथ भारत आए। बहन ने पाल-पोसकर बड़ा किया।
गलत संगत में मिल्खा बिगड़ गया। रेल से कोयले की चोरी कर पैसा कमाने लगा। एक लड़की से प्रेम हुआ तो उसने चैलेंज किया कि कुछ बनकर दिखाओ। मिल्खा सेना में भर्ती हो गए। रोज दूध पीने की उनकी इच्छा रहती थी। दूध उसे ही मिलता था जो दौड़ने में तेज हो। रेस होती है और मिल्खा फर्स्ट आ जाते हैं। इसके बाद सफलता की सीढ़ी वे चढ़ते ही जाते हैं।
इन सबके बीच में कई ऐसी घटनाएं हैं जिनमें से कुछ दिल को छूती हैं तो कुछ केवल फिल्म की लंबाई बढ़ाती है। मिल्खा का दो डिब्बे घी पी जाना, पहली बार इंडिया का ब्लेजर पहनना, बहन को उसके ईयररिंग लौटाना, प्रतिद्वंद्वी द्वारा मिल्खा की पिटाई करना, घायल मिल्खा का दौड़ में हिस्सा लेकर जीतना बेहतरीन प्रसंग हैं।
दूसरी ओर ऑस्ट्रेलियाई लड़की से प्रेम प्रसंग वाला किस्सा कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है। संभव है कि यह सब मिल्खा की जिंदगी में हुआ हो, लेकिन निर्देशक से चूक ये हो गई कि ये सब बातें मिल्खा का कोच बयां करता है और एक कोच इतना सब कुछ कैसे जान सकता है? एक एथलीट की फिल्म में इतने गाने शामिल करने के पीछे भी कोई तुक नहीं है। मिल्खा का बचपन, मिल्खा के प्रेम प्रसंग और मिल्खा का खेल, इन तीन ट्रेक पर फिल्म चलती रहती है। मिल्खा के बचपन को बहुत ज्यादा फुटेज दिया गया है। बचपन में हुई घटना ने मिल्खा के मन में कड़वाहट भर दी थी और उसके आधार पर ही उन्होंने पाकिस्तान जाकर दौड़ने से मना कर दिया था। मिल्खा के इस निर्णय को पुख्ता बनाने के लिए लेखक और निर्देशक को ये सब करना पड़ा हो, लेकिन इसे छोटा किया जा सकता था।
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राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने फिल्म बनाते हुए इसके व्यावसायिक हितों के बारे में भी सोचा और कुछ दृश्य ड्रामेटिक अंदाज में रखे। उन्होंने रोम ओलिम्पिक (1960) में हुई रेस, जिसमें मिल्खा हार गए थे, को फिल्म की शुरुआत में रखा। पाकिस्तान में आयोजित रेस को उन्होंने क्लाइमैक्स में रखा ताकि दर्शकों को सीटियां-तालियां मारने का अवसर मिले और जोरदार अंत के साथ समापन हो।
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उस दौर को फिर से जीवंत करना आसान बात नहीं थी और निर्देशक की मेहनत इसमें नजर आती हैं, लेकिन प्रस्तुतिकरण में थोड़ी और कल्पना की जरूरत महसूस होती है। इसका ये मतलब नहीं है कि राकेश का काम अच्छा नहीं है, उन्होंने बेहतरीन फिल्म बनाई है। तीन घंटे से ज्यादा की अवधि होने के बावजूद लंबाई अखरती नहीं है, लेकिन जब आप एक महान एथलीट पर फिल्म बनाते हैं तो थोड़ी उम्मीद बढ़ जाती है।
प्रसून जोशी का लेखन बढ़िया है। कहानी, संवाद और गीत उन्होंने ही लिखे हैं। मिल्खा के जीवन का उन्होंने बारीकी से अध्ययन किया है और फिर उसे स्क्रिप्ट का रूप दिया है। उनके लिखे गाने बेहतरीन हैं।
फरहान अख्तर इस फिल्म का मजबूत स्तंभ हैं। उन्होंने अपने किरदार को घोलकर पी लिया है। फिल्म शुरू होने के चंद सेकंड बाद ही आप भूल जाते हैं कि आप फरहान को देख रहे हैं, ऐसा लगता है कि मिल्खा सिंह सामने खड़ा है। उन्होंने अपने शरीर पर जो मेहनत की है वो लाजवाब है। उनका एक-एक मसल्स बोलता है।
मिल्खा की मेहनत, उसका दर्द और एक जूनूनी सरदार के अंदर धधकती आग को उन्होंने स्क्रीन पर जीवंत कर दिया है। पूरी फिल्म उनके इर्दगिर्द घूमती है और उन्होंने अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है। पंजाबी उच्चारण में उनकी जुबां कई जगह फिसली है। इसे छोड़ दिया जाए तो उन्होंने अपना सौ प्रतिशत इस फिल्म को दिया है।
पवन मल्होत्रा एक बेहतरीन एक्टर हैं। मिल्खा के पहले कोच की भूमिका को उन्होंने बारीकी से पकड़ा है और कमाल की एक्टिंग की है। मिल्खा की बहन के रूप में दिव्या दत्ता अपना प्रभाव छोड़ती हैं। मिल्खा जब ब्लेजर पहन अपनी बहन से मिलने आता है तो उस दृश्य में दिव्या की एक्टिंग देखते ही बनती है। प्रकाश राज अपने किरदार की मांग से मोटे लगे, लेकिन उन्होंने अच्छा साथ निभाया है। योगराज सिंह की उपस्थिति भी दमदार है। सोनम कपूर, रेबेका ब्रीड्स और मीशा शफी के लिए ज्यादा कुछ नहीं था, लेकिन जितना भी रोल था उन्होंने अच्छे से निभाया।
नकली हीरो और सुपरहीरो की तो कई फिल्में आपने देखी होगी, लेकिन ‘भाग मिल्खा भाग’ एक रियल हीरो की कहानी है, इसे देखने के लिए थिएटर तक दौड़ लगाई जानी चाहिए।