गर्मी वेबसीरिज रिव्यू : रबर की तरह खींची गई लंबी बात ने किया गर्मी का असर कम

समय ताम्रकर

सोमवार, 24 अप्रैल 2023 (13:02 IST)
Garmi web series review : छात्र राजनीति पर तिग्मांशु धुलिया ने 'हासिल' (2003) नामक उम्दा फिल्म बनाई थी और अब इसी विषय पर उन्होंने वेबसीरिज 'गर्मी' बनाई है। इस सीरिज में दिखाया गया है कि छात्र राजनीति की आड़ में किस तरह गुंडागर्दी और भ्रष्टाचार होता है और कॉलेज भविष्य में आने वाले नेताओं की फैक्ट्री के रूप में इस्तेमाल होता है। 
 
यह विषय बहुत बेहतरीन है, लेकिन तिग्मांशु इस पर ऐसी सीरिज नहीं बना पाए कि 'वाह' निकल जाए। शुरुआत के दो एपिसोड में चमक दिखाने के बाद 'गर्मी' की कहानी को इतना खींचा गया है कि आप थक जाते हैं। पहला सीज़न 9 एपिसोड में फैला है और हर एपिसोड 45 से 50 मिनट का है। 
 
कहानी अभी भी पूरी नहीं हुई है और दूसरे सीज़न का इंतजार करना पड़ेगा। दरअसल तिग्मांशु धुलिया के पास इतना मसाला ही नहीं था कि इस सीरिज का इतना फैलाव किया जाए। कुछ ऐसे प्रसंग डाले गए जिनका कोई अर्थ नहीं है। ऐसे ही कुछ किरदार हैं जो कहानी को आगे बढ़ाने में ज्यादा मदद नहीं करते। इस कारण 'गर्मी' का प्रभाव कम हो गया है। 
 
उत्तर प्रदेश में कहानी सेट है। यहां का हर छात्र सरकारी अधिकारी बनने के लिए ही पढ़ता है। अरविंद शुक्ला (व्योम यादव) नामक युवा छात्र भी इसी उम्मीद से कॉलेज में दाखिला लेता है। कॉलेज की राजनीति में बिंदु सिंह (पुनीत सिंह) का बोलबाला है जो अध्यक्ष है। उसका धुर विरोधी गोविंद मौर्य (अनुराग ठाकुर) उपाध्यक्ष है। इन्हें राजनीति संरक्षण प्राप्त है जिसमें पुलिस, बाबा और नेता भी शामिल हैं। ये अपना हित साधने किसी की हत्या करवाने में भी नहीं हिचकते। होनहार छात्र अरविंद छात्र राजनीति में न चाहते हुए भी उलझ जाता है और इनके भ्रष्ट सिस्टम का कैसे हिस्सा बन जाता है, अरविंद की इस यात्रा को 'गर्मी' में दिखाया गया है। 
 
इस वेबसीरिज के साथ दिक्कत ये है कि कुछ भी नया नहीं है। सारे किरदार और दृश्य आपने इस तरह की कई वेबसीरिज में देखे हुए हैं। बात छात्र राजनीति की होती है, लेकिन पुलिस-नेता-बाबा की ये कहानी बन जाती है। छात्रों वाला हिस्सा कमजोर रह जाता है। साथ ही रबर की तरह बात को इतना ज्यादा खींचा गया है कि उसका प्रभाव पूरी तरह से डाइल्यूट हो जाता है। कविताएं और शेक्सपीयर के नाटकों वाले हिस्से पर बहुत ज्यादा फुटेज खर्च किए गए हैं जो महज लंबाई बढ़ाते हैं।
 
निर्देशक के बतौर तिग्मांशु धुलिया ने अपनी स्टारकास्ट से अच्छा काम लिया है। कहानी को रियल लोकेशन पर फिल्मा कर वास्तविकता के निकट रखा है। दृश्यों को अच्छा फिल्माया है, लेकिन बतौर लेखक वे उतनी गहराई में नहीं उतरे जितनी विषय की मांग थी। कहानी को जितना विस्तार दिया है उतना मसाला उनके पास नहीं था। छात्र राजनीति की भयावह तस्वीर उन्होंने पेश की है जो दर्शाती है कि राजनीति की इस तिकड़म में ईमानदार रहना कितना कठिन है। 
 
गर्मी सीरिज की सबसे अच्छी बात इसके कलाकारों का अभिनय है। सबकी एक्टिंग इतनी नेचरल है कि लगता ही नहीं वे अभिनय कर रहे हैं। लीड रोल में व्योम यादव प्रभावित करते हैं। कुछ कर गुजरने की तमन्ना, युवा में जोश के उफान को उन्होंने अपने अभिनय में बेहतरीन तरीके से पेश किया है। पुलिस इंस्पेक्टर मृत्युंजय सिंह के रोल में जतिन गोस्वामी छाप छोड़ते हैं। उनका किरदार जिस तरह से रंग बदलता है उसे जतिन प्रभावी बनाते हैं। पुनीत सिंह, पंकज सारस्वत, अनुराग ठाकुर की एक्टिंग भी उम्दा है। मुकेश तिवारी का रोल उनके जैसे कलाकार के स्तर का नहीं है। 
 
गर्मी की सबसे बड़ी दिक्कत इसकी लंबाई है। सात घंटे इस सीरिज को देखने के लिए खर्च किए जाए, यह महंगा सौदा है। 
 

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