ज्यादातर हिंदी फिल्में हॉरर के नाम पर कॉमेडी बन जाती है तो कुछ कॉमेडी के नाम पर हॉरर। अब हॉरर-कॉमेडी नामक पतली गली भी खोज ली गई है ताकि दर्शक हंसता भी रहे और डरता भी रहे और उसे समझ ही नहीं आए कि वह डरने वाली जगह कहीं हंस तो नहीं रहा है।
इस जॉनर में गोलमाल अगेन बुरी फिल्म होने के बावजूद चल निकली थी, जबकि स्त्री बढ़िया फिल्म थी और सफल भी। लक्ष्मी इस जॉनर की ताजा फिल्म है़, लेकिन यह निराश करती है। यह हिट तमिल फिल्म 'कंचना' का हिंदी रीमेक है जो कि टेलीविजन पर कई बार दिखाई जा चुकी है।
'लक्ष्मी' में कॉमेडी-हॉरर के साथ-साथ इमोशन और मैसेज भी हैं, लेकिन दिक्कत यह है कि ये सभी बिना सिचुएशन के घुसाए गए हैं। ऐसा लगता है कि कोई आपको जोर-जबरदस्ती कर हंसाने की या डराने की कोशिश कर रहा है। माहौल बनाए बिना यह कोशिश निरर्थक लगती है और 'लक्ष्मी' का ज्यादातर हिस्सा इसी बात का शिकार है।
फिल्म का शुरुआती एक घंटा निराशाजनक है। इस हिस्से में कॉमेडी को महत्व दिया गया है, जो कि एकदम सपाट है। बीच-बीच में हॉरर सीन आते हैं, लेकिन ये ऐसे नहीं है कि आपकी चीख निकल जाए।
इन दृश्यों को कहानी का साथ नहीं मिलता। जल्दबाजी नजर आती है। न जाने क्यों फिल्म को भगाने की कोशिश की जाती है और हड़बड़ी में अधपके सीन दर्शकों के सामने परोस दिए जाते हैं। लेखन की कमी साफ उभर कर नजर आती है।
फिल्म आसिफ (अक्षय कुमार) और रश्मि (किआरा आडवाणी) की कहानी है जिनकी शादी से रश्मि के माता-पिता खुश नहीं हैं। रश्मि के माता-पिता की शादी की 25वीं सालगिरह है और वे उसे मनाने के लिए उनके घर पहुंचते हैं। यहां पर आसिफ के अंदर एक भूत प्रवेश करता है जो ट्रांसजेंडर है।
इसको भगाने के लिए हिंदू बाबा, मुस्लिम बाबा का सहारा लिया जाता है तो पता चलता है कि इस भूत का नाम 'लक्ष्मी' जो बदला लेना चाहती है।
कहानी ऐसी है जिस पर तर्क-वितर्क की गुंजाइश नहीं है। हॉरर फिल्मों का मजा लेना हो तो ज्यादा लॉजिक की बात करनी भी नहीं चाहिए, लेकिन मनोरंजन हो तो दर्शक बर्दाश्त कर लेता है, लेकिन 'लक्ष्मी' में मनोरंजन की खुराक भी भरपूर नहीं है।
यह कहानी इतने प्रश्न उठाती है कि आप गिनती भूल जाते हैं। लेखक राघव लॉरेंस को लगा कि हॉरर और कॉमेडी के बीच दर्शक ये बातें भूल जाएंगे, लेकिन मनोरंजन की आड़ में वे अपनी इन कमियों को छिपा नहीं पाए।
अंतिम 45 मिनट में फिल्म में थोड़ी जान आती है जब लक्ष्मी की कहानी पता चलती है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
ट्रांसजेंडर के प्रति समाज के नजरिये को लेकर भी बातें की गई हैं, लेकिन साफ-साफ दिखता है कि 'ज्ञान' पिलाने की कोशिश की जा रही है। इसलिए ये मैसेज बेअसर साबित होते हैं।
निर्देशक के रूप में राघव लॉरेंस ने कहानी को बहुत ज्यादा नाटकीय तरीके से पेश किया है। हर बात 'ओवर द टॉप' है जो अखरती है। कलाकारों तो उन्होंने अच्छे चुने हैं, लेकिन उनसे ओवरएक्टिंग कराई है जिसकी जरूरत नहीं थी।
फिल्म का संगीत औसत दर्जे का है। 'बुर्ज खलीफा' मिसफिट है। 'बम भोले' का फिल्मांकन शानदार है और यह फिल्म में ऊर्जा पैदा करता है।
अक्षय कुमार अपने अभिनय के दम पर फिल्म को ऊंचा उठाने की कोशिश करते हैं, लेकिन कमजोर स्क्रीनप्ले के कारण उनकी यह कोशिश कम साबित होती है। किआरा आडवाणी के पास चंद सीन और सुंदर लगने के अलावा करने को कुछ नहीं था। छोटे रोल में शरद केलकर असर छोड़ते हैं।
राजेश शर्मा, मनु ऋषि चड्ढा, अश्विनी कलसेकर, आयशा रज़ा बेहतरीन कलाकार हैं, लेकिन फीके साबित हुए और इसमें दोष निर्देशक का है।
कुल मिलाकर लक्ष्मी उन लोगों के लिए भी निराशा लेकर आती है जो मसाला फिल्मों के शौकीन हैं।
निर्माता : फॉक्स स्टार स्टूडियोज़, केप ऑफ गुड फिल्म्स, शबीना एंटरटेनमेंट, तुषार एंटरटेनमेंट हाउस