Mrs Chatterjee Vs Norway movie review मिसेज चटर्जी वर्सेज नॉर्वे के मेकर्स ने दावा किया है कि उनकी फिल्म सत्य घटना पर आधारित है, लेकिन भारत में नॉर्वे के एम्बेसडर ने फिल्म की कुछ बातों को फिक्शनल करार देते हुए आपत्ति जताई है। उनके अनुसार मिसेज चटर्जी वर्सेज नॉर्वे फिल्म फैमिली लाइफ में नॉर्वे के विश्वास और विभिन्न संस्कृतियों के प्रति सम्मान को गलत तरीके से दर्शाती है।
फिल्म की बात की जाए तो इसमें नॉर्वे में रहने वालों को बेहद कठोर और विलेन की तरह दिखाया गया है, लेकिन फिल्ममेकर इस बात से अपना बचाव कर सकते हैं कि उन्होंने फिल्म को किरदार की निगाह से दिखाया है। सागरिका चक्रवर्ती नामक महिला ने अरसे पहले नॉर्वे सरकार से अपने बच्चे की कस्टडी को लेकर लंबी लड़ाई लड़ी थी और उनके जीवन की इस घटना से प्रेरित होकर ही मिसेज चटर्जी वर्सेज नॉर्वे को बनाया गया है।
मिसेज चटर्जी वर्सेज नॉर्वे देबिका चटर्जी (रानी मुखर्जी) की कहानी है जो अपने पति अनिरुद्ध चटर्जी (अनिर्बान भट्टाचार्य) और दो छोटे बच्चों के साथ नॉर्वे में रहती है। वेलफ्रेड नामक एजेंसी चटर्जी परिवार का दस सप्ताह तक रिव्यू करता है कि वे अपने बच्चों की देखभाल ठीक से कर रहे हैं या नहीं। वे पाते हैं कि देबिका का पति घर के काम में हाथ नही बंटाता, देबिका सफाई का ध्यान नहीं रखती, बच्चों को हाथ से ही खाना खिलाती है, कुछ इसी तरह के आरोप लगाते हुए वे एक दिन दोनों बच्चों को ले जाते हैं और अच्छी देखभाल के लिए दूसरे पालक को सौंप देते हैं।
देबिका चटर्जी इस घटना से हिल जाती है और इमोशनल होकर कई गलतियां कर बैठती है जिससे उसके खिलाफ मामला गंभीर हो जाता है। वह अकेली नॉर्वे सरकार से भिड़ जाती है और इसमें उसकी मदद भारत की एक मंत्री भी करती हैं। देबिना की लड़ाई नॉर्वे से शुरू होती है और भारत में भी उसे अपनों से लड़ना पड़ता है।
कहानी में दम तो है कि इस पर पॉवरफुल फिल्म बन सकती थी, लेकिन लेखक आशिमा छिब्बर, राहुल नंदा और समीर सतीजा कहानी में इमोशन उभार नहीं पाए जबकि एक मां जिसका बच्चा छीन लिया गया है, एक ऐसी महिला जो अपने पति के सहयोग ना मिलने के बावजूद देश से भिड़ जाती है, जैसी बातों में पॉवरफुल फिल्म बनने के सारे तत्व मौजूद थे।
फिल्म को रियलिटी के नजदीक रखने की कोशिश की गई है, लेकिन इससे बात नहीं बन पाई। एक तरफ फिल्म को वास्तविकता के निकट रखने की कोशिश है तो दूसरी ओर लाइन कुछ ज्यादा ही क्रॉस कर दी गई है जैसे देबिका के घर रिव्यू के लिए आने वाली नॉर्वे की महिलाओं को अति नाटकीय तरीके से दिखाया गया है, मानो उनकी देबिका से दुश्मनी हो। देबिका और उसके सास के रिश्ते में भी बहुत ज्यादा ड्रामेबाजी है।
नॉर्वे के बच्चों के बारे में जो कानून उसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं दी गई। इसी तरह फिल्म में यह बात बहुत ही हल्के तरीके से उठाई गई है कि नॉर्वे के कुछ लोग इस कानून की आड़ में पैसा कमाते हैं, लेकिन इस पर ज्यादा फोकस नहीं किया गया है। नॉर्वे से जब फिल्म भारत में शिफ्ट होती है तो ग्राफ और नीचे चला जाता है। यहां पर लंबा कोर्ट रूम ड्रामा है जो बेहद उबाऊ है।
निर्देशक आशिमा छिब्बर ने सेट पैटर्न पर फिल्म बनाई है कि आपको पता रहता है कि अब फिल्म किस तरह आगे बढ़ेगी। वे फिल्म में इमोशन नहीं डाल पाईं और न ही कैरेक्टर्स को ठीक से पेश कर सकी। रानी मुखर्जी जैसी बेहतरीन एक्ट्रेस उनके पास मौजूद थी, लेकिन ठीक से उपयोग नहीं कर पाईं। नॉर्वे और वहां के रूखेपन को उन्होंने जरूर अच्छे तरीके से दर्शाया है।
रानी मुखर्जी को जितने सीन मिले उन्होंने अच्छे से निभाएं, लेकिन उनकी प्रतिभा के साथ फिल्म न्याय नहीं करती। अनिर्बान भट्टाचार्य ने स्वार्थी पति का किरदार अच्छे से अदा किया है। जिम सरभ का अभिनय शानदार है।
हितेश सोनी का बैकग्राउंड म्यूजिक बढ़िया है और कई सीन में खामोशी का भी अच्छा उपयोग है। सिनेमाटोग्राफी स्तरीय है। अमित त्रिवेदी के संगीत में कुछ गाने हैं जो ठीक हैं, लेकिन फिल्म में इनकी जगह नहीं बनती।
कुल मिलाकर मिसेज चटर्जी वर्सेज नॉर्वे एक मां की उस लड़ाई को ठीक से दिखा नहीं पाई जो उसने लड़ी थी।