कुछ करने की चाह हो तो उम्र महज नंबर ही है। चंद्रो तोमर और प्रकाशी तोमर ने साठ के ऊपर होने के बाद शूटिंग में हाथ आजमाया और ढेर सारे पदक अपने नाम किए। इनकी ये सफलता तब और सराहनीय हो जाती है जब वे ऐसी पृष्ठभूमि से आती हैं जहां पर महिलाओं को महज बच्चा पैदा करने की मशीन समझा जाता है और नेल पॉलिश लगाना भी उनके लिए सपना होता है।
इन दोनों महिलाओं के जीवन से प्रेरित होकर सांड की आंख बनाई गई है। शूटिंग टारगेट का जो सेंटर पाइंट होता है वहां पर कोई निशानेबाज निशाना लगाने में सफल होता है तो कहा जाता है कि उसने बुल्सआई को हिट किया है। इसी का हिंदी अनुवाद कर सांड की आंख नाम रखा गया है।
चंद्रो (भूमि पेडणेकर) और प्रकाशी (तापसी पन्नू) अपनी बेटियों को यशपाल (विनीत कुमार) के पास निशानेबाजी सिखाने के लिए ले जाती है लेकिन यशपाल तब चकित रह जाता है जब चंद्रो और प्रकाशी सटीक निशाना लगाती हैं।
चंद्रा और प्रकाशी की प्रतिभा को वह तराशना चाहता है और रोजाना अभ्यास करने के लिए बुलाता है। इन 'दादियों' को भले ही घर के 'मर्दों' ने दबा कर रखा है, लेकिन वे बहुत नटखट हैं।
इन पुरुषों को बेवकूफ बना कर वे न केवल रोजाना निशानेबाजी सीखती हैं बल्कि प्रतियोगिता में भी उतरती हैं। नई दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई जा कर टूर्नामेंट जीतती हैं।
फिल्म के लेखक बलविंदर जनूजा और निर्देशक तुषार हीरानंदानी ने चंद्रा और प्रकाशी की कहानी में कई बातों को समेटा है। उन्होंने दोनों की खेल की दुनिया में यात्रा दिखाने के साथ-साथ पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की स्थिति, चंद्रा-प्रकाशी की जीवटता को भी दर्शाया है।
फिल्म के बारे में सबसे अच्छी बात यह है कि बातें तो गंभीर उठाई गई हैं, लेकिन प्रस्तुतिकरण बेहद हल्का-फुल्का रखा गया है। लगातार मनोरंजक सीन आते रहते हैं और दर्शकों को हंसाते रहते हैं। माहौल खुशनुमा बना रहता है। चंद्रो का अंग्रेजी बोलना, झूठ बोलकर प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना, पार्टी में जाना जैसे कई सीन मजेदार बन पड़े हैं।
दूसरी ओर कई ऐसे दृश्य भी हैं जो महिलाओं की गंभीर स्थिति को बयां करते हैं। हैरानी होती है कि देश में आज भी लाखों महिलाएं ऐसा जीवन जी रही हैं जहां पर उन्हें कुछ भी करने की आजादी नहीं है।
फिल्म में एक बहुत बढ़िया सीन है जहां पर टूर्नामेंट जीतने के बाद चंद्रो और प्रकाशी से पूछा जाता है कि आपकी उम्र क्या है? जिस पर वह जवाब देती है कि औरत जानती ही नहीं है कि वह अपने लिए कितना जी है।
पहले हाफ में फिल्म बहुत तेज गति से भागती है। काफी घटनाएं दिखाई गई हैं। इंटरवल तक लगता है कि सब कुछ तो दिखाया जा चुका है, अब आगे क्या बचता है? असर दूसरे हाफ में नजर आता है जब फिल्म सुस्त हो जाती है और ड्रामा हावी हो जाता है।
यहां पर फिल्म थोड़ी खींची गई है और इस हिस्से को थोड़ा कम किया जा सकता था। खासतौर पर रतन सिंह (प्रकाश झा) वाले दृश्यों की संख्या कुछ ज्यादा ही हो गई और ये लंबे भी है और कहानी को आगे नहीं बढ़ाते हैं। रतन सिंह की जिद कुछ ज्यादा ही लंबी हो गई।
तुषार हीरानंदानी ने कहानी को सरल तरीके से पेश किया है। उन्होंने ज्यादा घुमाव-फिराव नहीं दिए हैं, जो कि दिए जा सकते थे। वे चंद्रो और प्रकाशी की कहानी को और अच्छे तरीके से दर्शा सकते थे। तुषार ने फिल्म को मनोरंजक और मुख्यधारा के सिनेमा से जोड़ने की भी कोशिश की है जो दिखाई देती है। लेकिन वे ऐसी फिल्म बनाने में सफल रहे जो दर्शकों को पसंद आती है। उन पर 'दंगल' का प्रभाव भी नजर आया। वैसे भी यह फिल्म 'दंगल' की याद लगातार दिलाती रहती है।
फिल्म में कुछ पंच लाइनें शानदार हैं। 'मर्दानगी मूंछ और धोती में नहीं जिगर में होती है' जैसे संवाद समय-समय पर सुनाई देते हैं।
तापसी पन्नू और भूमि पेडणेकर समर्थ अभिनेत्रियां हैं और इस फिल्म में दोनों की केमिस्ट्री कमाल की है। उन्होंने अपनी वास्तविक उम्र से कहीं ज्यादा उम्र का किरदार निभाया है इसलिए उनका खासा मेकअप किया गया है जो कि बहुत अच्छे से नहीं किया गया है। कई बार आंखों को यह चुभता है, लेकिन दोनों की एक्टिंग शानदार है।
तापसी ने ग्रामीण लहजा बारीकी से पकड़ा है जो अंत तक छूटता नहीं है जबकि भूमि से यह कहीं-कहीं छूट जाता है। तापसी ने बॉडी लैंग्वेज पर भी काफी काम किया है और भूमि की कॉमिक टाइमिंग अच्छी है।
कड़क मर्द के रूप में प्रकाश झा जमे हैं जो औरतों को पैर की जूती मानता है। विनीत कुमार अपने नैसर्गिक अभिनय के बूते पर छाए रहते हैं। सपोर्टिंग कास्ट का काम अच्छा है।
फिल्म का संगीत थीम के अनुरूप है। 'उड़ता तीतर' और 'आसमां' अच्छे बने हैं। सुधाकर रेड्डी ने फिल्म को अच्छे से शूट किया है।
कुल मिलाकर सांड की आंख का निशाना टारगेट के करीब है।