बजरडीहा का दर्द...

रेशम कीड़े से बनता है ये तो पता है लेकिन उससे रेशमी साड़ियाँ बुनने वाले कीड़ों के बीच नारकीय जीवन कैसे बिताते हैं ये देखना हो तो बनारस के बजरडीहा जाना होगा। बनारस... जहाँ की बनारसी साडियाँ दुनियाभर में मशहूर हैं और चमचमाते मॉल्स और वातानुकूलित शो रूम में हज़ारों रुपए में बिकती हैं। उन बनारसी साड़ियों को बुनने वाले बुनकरों के नारकीय जीवन पर बहुत बातें हुईं, योजनाएँ भी बनीं, पैसा भी आ रहा है.... पर कहाँ जा रहा है वो तो इन बुनकरों से मिलकर ही पता चलता है।
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बनारस की सड़कों और चेहरे को चमकाने की कवायद चल रही है। चुनाव के चलते यहाँ काफी गहमागहमी भी है। मुख्य सड़क से जैसे ही आप बजरडीहा की ओर मुड़ते हैं तो एक अलग ही वाराणसी से आपका परिचय होता है। कच्ची-पक्की सड़क और दोनों और गंदी बजबजाती नालियाँ....सड़क पर दौड़ लगाते अधनंगे बच्चे और बीच में अचानक आ जाती एक बकरी। पान की दुकान पर पूछो की आज इतनी ख़ामोशी क्यों है तो बोले दावत है। कहाँ है? तो बोले आगे मैदान के पास, मस्जिद की तरफ। उधर ही चल दिए। फिर एक पान की दुकान जहाँ कुल्फी की चुस्की लेता एक नौजवान....। पूछा क्यों भई ये दावत कहाँ है? उसने आगे की ओर इशारा किया, कहा.... वहाँ। अच्छा ये बताओ चुनाव हैं, कुछ पता है। हाँ पता है। तुम्हारा वोट है। बोला हाँ है... किसको वोट दोगे... हँस दिया। फिर पूछा तो बोला अजय राय को देंगे। क्यों मोदी को नहीं दोगे? बोला नहीं .... अच्छा केजरीवाल को .... बोला नहीं वो तो बाहर का है।

इतने में और भी लोग जमा हो गए। सब एकमत, बोले मोदी को तो नहीं देंगे। हम आगे बढ़े। कुछ बुजुर्ग दिखे। सोचा युवाओं से तो पूछ लिया इनसे भी पूछ लें। बात शुरू की तो अच्छा ख़ासा मजमा लग गया। वो भी सब वो ही बात कह रहे थे। बोले अच्छा हुआ मुख्तार अंसारी बैठ गया। वोट नहीं बँटेगा। क्या नाराज़ी है मोदी से। बोले कोई व्यक्तिगत नाराज़ी नहीं है पर हमें उनका कैरेक्टर नहीं जमता। क्या आप 2002 के गुजरात से नाराज़ हैं? देखिए वो आदमी ग़लत है बस। ... ऐसे तो बात कैसे बनेगी? मैंने कहा.... तो बोले जब वो ही हमसे दुश्मनी पालकर बैठे हैं तो हम उनसे दोस्ती कैसे कर लें? मैंने कहा पर और मुसलमान भी तो हैं जो उनके साथ हैं....मुख़तार अब्बास नकवी हैं, शाहनवाज हुसैन हैं, और अब तो एमजे अकबर भी हैं.... बोले हम तो इनको मुसलमान ही नहीं मानते....। फिर मैंने पूछा तो बात बनेगी कैसे? बोले ये तो वो जानें। अच्छा तो वोट किसे देंगे? उनको नहीं देंगे...किसे देंगे ये सोचेंगे। क्या अजय राय को ... बोले दे सकते हैं, यहीं के हैं। और केजरीवाल... वो देखेंगे।

हम आगे बढ़े और एक घर से हमें करघे की खटर-पटर सुनाई दी। अंदर पहुँचे। दो ही करघे चल रहे थे। एक पर शोएब थे। ये साड़ी बनाते हो आपको क्या मिलता है? बोले हमें क्या, मिलता तो ठेकेदार को है। अच्छा तो आप। हमें तो मजूरी मिलती है बस। सामान भी वो ही देता है। .... अच्छा तो वोट किसे दोगे। पास में खड़ा बच्चा चिल्लाया - अजय राय। शोएब चुप ही रहा। उससे साड़ी बनाने की जल्दी थी शायद... और वो बहुत बारीकी से तागे इधर से उधर कर रहा था।

यहाँ बजरडीहा में आकर पता चलता है कि दिलों में ख़लिश कितनी गहरी है। मोदी कहते हैं कि मैं बनारस जाकर मुसलमानों से गले मिलूँगा तो वो मान जाएँगे।... ये इतना आसान नहीं है शायद... गले मिल भी लेंगे तो दिल मिल नहीं पाएँगे। कुछ और ठोस करना होगा... वो सीमेंट जो इस टूटन को जोड़े... उसका तो कुछ अलग ही घोल होगा। ये जो बुनकर दिन-रात धागे जोड़कर इतनी बेहतरीन साड़ी जोड़ लेते हैं... इनके दिल में टूटे धागे को जोड़ना... वो भी बिना गाँठ के ... कैसे हो पाएगा....? वो गुलज़ार साहब ने कहा है ना ...

मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे!

अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते

जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ

फिर से बाँध के

और सिरा कोई जोड़ के उसमें

आगे बुनने लगते हो

तेरे उस ताने में लेकिन

इक भी गाँठ गिरह बुनकर की

देख नहीं सकता है कोई

मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता

लेकिन उसकी सारी गिरहें

साफ़ नज़र आती हैं

मेरे यार जुलाहे।

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