ग़ालिब का ख़त-20

मिर्जा़ तफ्ता,

जो कुछ तुमने लिखा, यह बेदर्दी है और बदगुमानी। मआ़ज़ अल्लाह तुमसे और आजुर्दगी! मुझको इस पर नाज़ है कि मैं हिंदुस्तान में एक दोस्त-ए-सादिक़-अल-विला रखता हूँ, जिसका 'हरगोपाल' नाम और 'तफ्ता 'तख़ल्लुस है। तुम ऐसी कौन सी बात लिखोगे कि मूजब-ए-मलाल हो? रहा ग़म्माज़ का कहना, उसका हाल यह है कि मेरा हक़ीक़ी भाई कुल एक था, कि वह तीस बरस दीवाना रहकर मर गया। मसलन वह जीता होता और होशियार होता और तुम्हारी बुराई कहता, तो मैं उसको झिड़क देता और उससे आजुर्द होता।

Aziz AnsariWD
भाई, मुझमें कुछ अब बाकी नहीं है। बरसात की मुसीबत गुज़र गई। लेकिन बुढ़ापे की शिद्दत बढ़ गई। तमाम दिन पड़ा रहता हूँ, बैठ नहीं सकता। अक्सर लेटे-लेटे लिखता हूँ, महिज़ यह भी ‍है कि अब मशक़ तुम्हारी पुख्ता हो गई़ ख़ातिर मेरी जमा है कि इस्लाह की हाजत न पाऊँगा। इससे बढ़कर यह बात है ‍कि क़सायद सब आश्क़ाना हैं, ब-कार-ए-आमदनी नहीं। ख़ैर, कभी देख लूँगा, जल्दी क्या है?

तीन बात जमा हुईं, मेरी काहिली तुम्हारे कलाम का मोहताज ब इस्लाह न होना, किसी क़सीदे से किसी तरह के नफ़े का तसव्वुर न होना। नज़रान मरातिब पर, काग़ज़ पड़े रहे। लाला बालमुकंद बेसबर का एक पार्सल है कि उसको बहुत दिन हुए, आज तक सरनामा भी नहीं खोला। नवाब साहिब की दस-पंद्रह ग़ज़लें पड़ी हुई हैं।

जो़फ़ ने गा़लिब निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के

यह क़सीदा तुम्हारा कल आया। आज इस वक्त, कि सूरज बुलंद नहीं हुआ, इसको देखा। लिफ़ाफ़ा किया, आदमी के हाथ डाकघर भिजवाया।

27 नवंबर 1862 गा़लि