ये गुलज़ार की नज़्मों का मजमुआ है जिससे हमें एक थोड़े अलग मिजाज के गुलज़ार को जानने का मौका मिलता है। बहैसियत गीतकार उन्होंने रूमान और जुबान के जिस जादू से हमें नवाजा है, उससे भी अलग। ये नज़्में सीधे सवाल न करते हुए भी हमारे सामने सवाल छोड़ती हैं, ऐसे सवाल जिन्हें कोई ऐसा ही शख्स पूछ सकता है जिसे दुनिया का बहुरंगी तिलिस्म अपने बस में न कर पाया हो।
इन नज़्मों में गुस्सा भी है, अपने आसपास की दुनिया के मामूलीपन से कोफ्त भी इन्हें होती है। कहीं वे अपने आसपास के लोगों की क्षुद्रताओं पर उन्हें चिकोटी काटकर मुस्कुराने लगती हैं, कहीं हल्का-सा तंज करके उन्हें उनकी ओढ़ी हुई ऊंचाइयों में छोटा कर देती हैं। यहां तक कि वे ईश्वर को भी नहीं बख्शतीं। उसको कहती हैं कि ये तुम्हारे भक्त तुम्हारे ऊपर तेल भी डालते हैं और शहद भी, कितनी चिपचिपाहट होती होगी! अगर सब कुछ देख रहे हों तो एक बार घी से उठे धुएं पर जरा छींककर ही दिखा दो। लेकिन फिर उन्हें महसूस होता है कि दुनियाभर की नज्मों को जितनी जुबानें आती हैं, उनमें से कोई भी उस सर्वशक्तिमान की समझ में नहीं अंटती- 'न वो गर्दन हिलाता है, न वो हंकारा भरता है'।
इसलिए गुलज़ार चांद की तख्ती पर गालिब का एक शे'र लिख देते हैं कि शायद वो फरिश्तों ही से पढ़वा ले कि इंसान को उसकी इंसानियत में छोटा बनाने वाले वे खुदा के चहेते ही शायद पढ़कर उसे सुना दें। लेकिन अफसोस कि बजाय इसके वह उसे या तो धो देता है या कुतर के फांक जाता है यानी वो 'खुदा अपना' शायद पढ़ा-लिखा भी नहीं है, अगर होता तो कम-से-कम चिट्ठी-पत्री तो कुछ करता! ताकत के सबसे ऊंचे मचान पर इससे बड़ी चोट और क्या होगी!
गुलज़ार की ये नज़्में बड़बोली नहीं हैं, न अपनी कद-काठी में और न अपनी जुबान में। लेकिन वे हमें बड़बोलों की एक एंटी-थीसिस देती हैं। वे बड़ी समझदारी के साथ हमें यह हिम्मत जुटाने की दावत देती हैं कि मोबाइल की ठहरी हुई इस दुनिया में 'पर्तिपाल' नाम के आदमी की बरतरी को 'पाली' नाम के कुत्ते की कमतरी के साथ रखकर तौला जा सकता है।
लेखक गुलज़ार के बारे में...
गुलज़ार एक मशहूर शायर हैं, जो फिल्में बनाते हैं। गुलज़ार एक अप्रतिम फिल्मकार हैं, जो कविताएं, कहानियां लिखते हैं। बिमल रॉय के सहायक निर्देशक के रूप में शुरू हुए सफर में फिल्मों की दुनिया में उनकी कविताई इस तरह चली कि हर कोई गुनगुना उठा। एक 'गुलज़ार -टाइप' बन गया। अनूठे संवाद, अविस्मरणीय पटकथाएं, आसपास की जिंदगी के लम्हें उठाती मुग्धकारी फिल्में। 'परिचय', 'आंधी', 'मौसम, 'किनारा', 'खुशबू', 'नमकीन', 'अंगूर', 'इजाजत'- हर एक अपने में अलग।
1934 में दीना (अब पाकिस्तान) में जन्मे गुलज़ार ने रिश्ते और राजनीति- दोनों की बराबर परख की। उन्होंने 'माचिस' और 'हू-तू-तू' बनाईं। 'सत्या' के लिए लिखा- 'गोली मार भेजे में, भेजा शोर करता है।' कई किताबें लिखीं। 'चौरस रात' और 'रावी पार' में कहानियां हैं तो 'गीली मिट्टी' एक उपन्यास। 'कुछ नज़्में', 'साइलेंसेस', 'पुखराज', 'चांद पुखराज का', 'ऑटम मून', 'त्रिवेणी' वगैरह में कविताएं हैं। बच्चों के मामले में बेहद गंभीर।
बहुलोकप्रिय गीतों के अलावा ढेरों प्यारी-प्यारी किताबें लिखीं जिनमें कई खंडों वाली 'बोसकी का पंचतंत्र' भी है। 'मेरा कुछ सामान' फिल्मी गीतों का पहला संग्रह था, 'छैंया-छैंया' दूसरा। 'खराशें' नाट्य-पुस्तक है। 'मीरा', 'खुशबू', 'आंधी' और अन्य कई फिल्मों की पटकथाएं लिखीं। 'सनसेट प्वॉइंट', 'विसाल', 'वादा', 'बूढ़े पहाड़ों पर' या 'मरासिम' जैसे अल्बम हैं तो 'फिजा' और 'फिलहाल' भी। यह विकास-यात्रा का नया चरण है। बाकी कामों के साथ-साथ 'मिर्जा गालिब' जैसा प्रामाणिक टीवी सीरियल बनाया, कई अलंकरण पाए। सफर इसी तरह जारी है। चिट्ठी का पता वही है- बोस्कियाना, पाली हिल, बांद्रा, मुंबई।