जिंदगी सतरंगी है, बहुत से पहलुओं में और जब बात नवोदयन की आती है तो सचमुच इससे इंकार नहीं किया जा सकता। उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के करीब कोटुली नाम के गांव में जन्मे आनंद मेहरा की लिखी पुस्तक 'इन्द्रधनुष' में इस सतरंगी एहसास को बखूबी दिखाया और समझाया गया है। जवाहर नवोदय विद्यालय, ताड़ीखेत अल्मोड़ा में, जहां उन्होंने अपनी जिंदगी के 7 खूबसूरत साल बिताए। ये पुस्तक उन्हीं 7 सालों के 7 रंग को दिखाती है।
ये पुस्तक दरअसल कोई कहानी नहीं, बल्कि एक संस्मरण है। नवोदय में बिताए उन 7 सालों का एक रिकैप। अगर आप वहां से पढ़े हुए हैं तो आप हर लाइन को झट से समझ जाएंगे और अगर आप गैरनवोदयन हैं, तब भी आप समझ पाएंगे कि आवासीय चारदीवारी कोई जेल नहीं, बल्कि मस्ती का बगीचा है।
किताब में लिखीं घटनाएं 1989 से 1996 के बीच की हैं, तो फिलहाल उस समय के नियम-कानून आज के नवोदय के नियम-कानून और रहन-सहन से काफी अलग हैं। इसके अलावा अलग-अलग जगह के हिसाब से भी कुछ भेद देखने को मिलेंगे इनकी पुस्तक में लिखी घटनाओं से जैसे कि
* हाउस ट्रॉफी को हाउस कप्तान के रूम में रखना। सभी नवोदयों में शायद इसकी इजाजत न हो।
* लड़कियों को जूनियर्स लड़कों के साथ खाना खिलाना, ये भी सभी जगह शायद न होता हो। (बेचारे सीनियर लड़के। बेमन से खाना होता रहा होगा उनका)।
* कई नवोदय में बाहर जाने की इजाजत नहीं होती जबकि इनको गेट पास जारी करके बाहर जाने की इजाजत थी (किस्मत वाले रहे ये)।
* इन्हें दिवाली की छुट्टियां नहीं दी जाती थीं, जबकि कई विद्यालयों में दिवाली की छुट्टियां रखी जाती रही हैं।
* इंग्लिश मीडियम में पढ़ाई तब क्लास नौवीं से हुआ करती थी लेकिन अब ये क्लास छठी से लागू किया जाता है।
* स्टाफ की बात करें तो SUPW के टीचर और लड़कियों के लिए अलग PET ये भी सभी नवोदय में उपलब्ध नहीं कराए जाते।
खैर, वक्त के साथ बदलाव तो होता ही रहता है। आपको समझना ये है कि नवोदय के जिंदगी की रूह हर विद्यालय में एक जैसी ही रहती है। 7 सालों को आनंद ने इन्द्रधनुष के 7 रंगों में बांटा है और जिसे बहुत खूबसूरती से समझाया भी है। हर रंग अपने साल के साथ पूरा न्याय करता दिखता है।
10-11 साल का एक बच्चा कैसे एक अनजान जगह घर से दूर बिना मां-बाप के अपने टीचर्स और नए बच्चों के साथ खुद को झट से ढालना सीख जाता है, इसे आनंद ने बहुत ही खूबसूरती से बताया है। अगर आप एक नवोदयन हैं तो आपको कहीं भी पेज फोल्ड करके बुक मार्किंग करने की जरूरत नहीं। रुकने के बाद आप कभी भी झट से वहीं से पढना शुरू कर सकते हैं, जहां से छोड़ा था, क्योंकि आपने उन हर पलों को जीया हुआ है।
बहरहाल, अब 7 साल जब उस सीमित आंगन में काटने ही हैं, तो मस्तीबाजी और नियम-कानून की ऐसी-तैसी होना भी लाजमी है। ऐसे ही कई घटनाओं को किताब में मजेदार ढंग से लिखा गया है, जैसे-
* बच्चों का खुद का हॉस्टल बिजनेस शुरू कर देना। आवश्यकता ही आवि ष्कार की जननी है। इस एक जुमले को नवोदयन कई रूपों से सार्थक बनाते हैं, जैसे कपड़े प्रेस करने का तरीका तथा और भी ऐसे ही बहुत से नए आइडिया हैं जिन्हें मैं डिटेलिंग नहीं करना चाहूंगा, वरना ये स्पोइलर होगा। विजिटर रूम में ड्यूटी वाली लिखावट दिल को छू जाने वाली है। टीचर्स के साथ नोक-झोंक, उनका नया नामकरण, उनके हाथों की चपत और हॉस्टल के थके, अधपके खानों का जिक्र सबकुछ मजेदार है बिना किसी शिकायत।
असल में सबकुछ परफेक्ट हो जाए तो दुनिया कैसी रहेगी? नीरस न? फिर हॉस्टल की जिंदगी के असली मजे तो उसकी कमियों में ही हैं। जब किताब को आप पढ़ते हैं तो इन कमियों को पढ़कर आप मुस्कुराते हैं, शिकायत नहीं करते, यही तो खूबसूरती है।
खैर...! इन सबके अलावा कुछ कमियां भी हैं।
* प्रिंटिंग मिस्टेक्स हैं। शायद आनंद ने प्रूफरीडिंग में थोड़ी जल्दीबाजी दिखाई है।
* डिनर प्रेयर का जहां जिक्र है, वहां मैं प्रेयर को लिखे जाने की उम्मीद कर रहा था, लेकिन वो नदारद है। गैरनवोदयन भी उसे जानना चाहेंगे।
* सबसे बड़ी कमी खलती है, लड़कियों के नजरिए से कुछ भी नहीं लिखा गया है। इसकी एक वजह ये हो सकती है कि लेखक इस किताब का दूसरा भाग लाने की सोच रखे हों, जो लड़कियों के नजरिए से नवोदय की दास्तां सुनाए।
* किताब में अन्य नवोदयन के ढेर सारे अनुभव को साझा किया गया है, जो मुझे सही नहीं लगा। एक रीडर के रूप में मैं उस लेखक की भावनाओं को जानना चाहूंगा जिसकी पुस्तक मेरे हाथ में हैं न कि किसी और की।
हालांकि उन्हीं अनुभव में 'कुसुम लता,' जो कि बोरई, दुर्ग (छत्तीसगढ़) से हैं। उनका साझा किया गया अनुभव काफी बढ़िया है। जो घर से दूर घर जैसा नवोदय के माहौल को बखूबी बताता है।
* पुस्तक का कवर अपने शीर्षक को 100 फीसदी सार्थक बनाता है, लेकिन कंधों पर हाथ डाले जो 6 खड़े बच्चों का इलस्ट्रेशन है, मैं ये तो नहीं जानता कि लेखक ने क्या सोचकर उन्हें कवर में 6 की संख्या में रखा। लेकिन मेरे खयाल से उन्हें 7 की संख्या में होना था, जो इन्द्रधनुष के 7 रंगों से मेल खाते।
अब बारी आती है रेटिंग की, तो मैं कवर के लिए 10 के अंकों में देना चाहूंगा 9 अंक। इंटीरियर के लिए 7, डिटेलिंग के लिए पूरे 10 अंक। लेखन शैली के लिए 9 और अंत के लिए 7 ओवरऑल 8.4।
बहरहाल, एक संदूक के साथ शुरू हुआ सफर आखिर उसी संदूक के साथ खत्म होता है, जो शायद हर नवोदयन के घर में अब भी किसी कोने में सहेज के रखा गया होगा, नाम के साथ। ठीक वैसे ही इस किताब को सहेजकर रखिए। ये आपको बीते उस खूबसूरत दौर में ले जाता है, जब आप सबसे ज्यादा खुश थे।
अगर आप नवोदयन हैं तो इसे पढ़ते समय एक ख्याल जरूर आएगा कि काश! फिर से सुबह एक गाड़ी लेने आए, जो नवोदय की राह पकड़े और उसके इंतजार में सारी रात आप ये गुनगुनाएं... 'सवेरे वाली गाड़ी से, चले जाएंगे....!'
लेखक परिचय -दिल्ली से मैनेजमेंट में पोस्ट ग्रेजुएट आनंद फिलहाल एक कंपनी में सीनियर मैनेजर (ट्रेनिंग) और क्वालिटी मैनेजमेंट सिस्टम के तौर पर कार्यरत हैं। उनकी अपनी कविताओं का ब्लॉग है, साथ ही कई ई-बुक, गूगल प्ले स्टोर पर मौजूद हैं।