एक नारी मां होती है, बहन होती है, बेटी होती है और भी कई रिश्ते होते हैं। पर जब वह किसी सामाजिक रिश्ते में नहीं होती है तो वह दूसरों की नजर में तवायफ होती है, लेकिन नारी तो आखिर नारी होती है। एक और साल महिलाओं के सशक्तिकरण से भरे झूठे वादे और जुमलेबाजी में बीत गया। कहने को तो वैसे बीते साल में महिलाओं के सशक्तिकरण को लेकर बहुत काम हुआ, लेकिन साल के अंत में आए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने तमाम किए गए महिला सशक्तिकरण के वादों और दावों की कलई खोल कर रख दी है। नई साल की शुरुआत भी बेंगुलुरु, दिल्ली जैसे बड़े शहरों में महिलाओं की आबरू और सम्मान पर हमले के साथ हुई है।
लड़कियों के पैदा होते ही उसे समाज के अजीबो-गरीब विडंबनाओं का सामना करना पड़ता है। जैसे मानो पूरी दुनिया का कानून इन्हीं के लिए बना हो। आज के वर्तमान परिवेश में यदि हम महिलाओं की बात करें तो वह इस जमाने द्वारा ना जाने कितनी बार मानसिक और शारीरक तौर पर उत्पीड़ित हुई है। हां, यह बात अलग है कि महिलाओं ने आवाज नहीं उठाई और यदि उठाई भी तो इस आवाज को उतने ही जोड़ से दबा दिया गया। कभी इनके आवाज को खाप पंचायत द्वारा दबा दिया जाता है तो कभी घर में बैठे पुरुष द्वारा, भले ही रिश्ता कोई भी हो, उनके द्वारा दबा दिया जाता है।
इसके उदाहरण से इतिहास और वर्तमान भरा पड़ा है। हाल का उदाहरण गुजरात के भीलवाड़ा जिले के खेड़ा गांव का है, 17 साल की नाबालिग लड़की किस्मत की है। किस्मत की शादी 22 साल के एक लड़के से तय कर दी गई थी, लेकिन जब किस्मत ने अपने माता-पिता को समझाया की वह अभी पढ़ना चाहती है, शादी करना नहीं, और जब किस्मत यह समझाने में भी कामयाब हो गई तो ग्राम पंचायत ने उसके माता-पिता पर शादी तोड़ने के लिए 1.11 लाख का जुर्माना लगा दिया है। अब किस्मत अपनी किस्मत लिखे भी तो कैसे लिखे।
जयशंकर प्रसाद ने अपने कविता कामायनी में लिखते हैं "नारी तुम श्रद्धा हो विश्वास करो नभ पग ताल में।" चाहे शिक्षा की बात करे, चाहे स्वतंत्रा की अभिव्यक्ति की बात करें या फिर नारी सशक्तिकरण की बात करें, महिलाएं आज भी अपने मुलभुत अधिकारों से मीलों-मील दूर है। महिलाओं की परिस्थिति समाज में लगातार ऊपर उठने के बजाए नीचे जा रही है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के हालिया रिपोर्ट के अनुसार प्रत्येक घण्टे 26 वारदात महिलाओं के साथ होती है और हरेक दो मिनट में एक शिकायत महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा की दर्ज की जाती है।
आज जब महिलाओं की आबरू दांव पर लगी है तब दिनकर जी के द्वारा लिखी गई एक कविता याद आती है।
" युवती की लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं,
माणिक जब तेल फुलेलों पर पानी सा द्रव्य बहाते हैं,
तब होगा इंसाफ यहां किसने क्या किस्मत पाई है,
अभी नींद से जाग रही युग की पहली अंगड़ाई है। "
आज के समाज में लड़कियों को उच्च शिक्षा देना एक जुर्म समझा जाता है। खासकर ग्रामीण इलाकों में इनके ऊपर इतने कायदे एवं कानून थोप दिए जाते हैं की इनकी जिंदगी एक बंद कमरे में कैद होकर रह जाती है। उनके सर पर एक दुपट्टा तो जरूर होता है पर वह पूरी तरह से अकेली हो जाती है। शादी हो जाने के पश्चात दूसरे घर में जाने पर वहां भी इन्हें एक गुमनामी की जिंदगी का सामना करना पड़ता है। उनके पैर से लेकर उनके होठों तक लगाम लगाया जाता है।
आए दिन छेड़खानी, बलात्कार तथा अन्य कुरीतियों ने इनकी जिंदगी को निगल लिया है। दहेज प्रथा से तंग आकर जहां एक तरफ लड़कियां आत्महत्या कर रही हैं, वहीं दूसरी तरफ हमारा समाज दहेज प्रथा को बढ़ाने की होड़ में लगा हुआ है। अगर हकीकत की बात की जाए तो आज लड़कियां बिल्कुल खामोश है। उनके चेहरे पर जो मुस्कान होती है उस मुस्कान में उनका दर्द साफ़ नजर आता है, लेकिन फिर भी यह दर्द जो उनके मुस्कान से झलक रहा होता है, वो बाकियों के नजर में बिलकुल भी नहीं चुभता है। उन्हें एक उम्मीद होती है कि वह इस भयावह दुनिया से निकल कर एक दिन आसमान तक की सैर करेंगी और आसमान को भी अपनी मुठ्ठी में कैद कर लेंगी पर समाज के संकुचित विचार वाले लोग इनके पर कुतरने को आतुर रहते हैं। इनके हौसलों को मिट्टियों के अंदर दफन करने की कोशिश लगातार की जा रही है। अब सवाल यह है कि इस तरह से महिलाओं को दर-किनार करके हमारे देश की असली तरक्की संभव कैसे हो सकता है ?
आज जब हमारे देश में सड़क से लेकर संसद तक तरक्की का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। हमारे सामने अच्छे दिनों का पिटारा खोल कर रख दिया गया है, पर इन में महिलाओं की तरक्की सामने क्यों नहीं दिखा दे रही है। जब की यह बात सर्वविदित है कि महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में ढेर सारे सरकारी तथा गैर सरकारी संगठन काम कर रहे हैं पर इसका कुछ खास नतीजा देखने को नहीं मिल रहा है। या फिर यूं कहें सत्ता में बैठे लोग या समाज सुधार के ठेकेदार इन महिलाओं की सिसकियां सुनने में असफल रहे हैं।
अतः महिलाओं की प्रगति को मद्देनजर रखते हुए, हमारे समाज में रूढ़िवादी विचार के लोगों को अपना विचार तथा नजरिया बदलने होंगे तभी महिलाओं का भी विकास संभव है। महिलाओं को भी कदम से कदम मिलाकर अपने हक और अधिकार के लिए लड़ना होगा तथा समाज को यह दिखाना होगा की महिलाएं किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से कम नहीं है।