हिन्दी फिल्म संगीत की पार्श्वगायिकाओं में गीता दत्त- और सिर्फ गीता दत्त- एक ऐसी अकेली गायिका हैं, जिनकी आवाज और गायन में मिस्टीसिज्म (गैबी रंग) का पुट है। उनके कई गाने ऐसे अजीबोगरीब विरह और बेकली का स्वप्नलोक तैयार करने लगते हैं कि हमारी रोज की पहचानी हुई जमीन छूट जाती है और हम बेचैन रूह में तब्दील होकर, बिना किसी जिस्म के सहारे, बादलों को भेदते हुए, स्पेस में तैरने लगते हैं। यहां अब कोई नहीं बचता। बस पवित्र पीड़ा बचती है और उसका अनोखा सुख।
यह सब शायद इसलिए है कि बंगाल में 'मिस्टीसिज्म' की साइकिक परंपरा पुरानी है। वह चैतन्य महाप्रभु और रामकृष्ण परमहंस से होती हुई बाऊल संगीत, भटियाली संगीत और रवीन्द्र संगीत तक जाती है। यहीं दुनिया का सारा आध्यात्मिक संगीत एक हो जाता है, जहां मूल में पावन वेदना और पवित्र सुख एकसाथ है। गीता अपनी आवाज में यही परास्पर्श लेकर आई थीं और इस दम पर देश की तमाम महिला पार्श्व गायिकाओं में अलग खड़ी हैं।
आप उनका यह 'मिस्टीकल' रंग इन तमाम गानों में देख सकते हैं, जैसे- 'प्रीतम आन मिलो / आज सजन मोहे अंग लगा ले / आन मिलो, आन मिलो श्याम सांवरे / कोई दूर से आवाज दे चले आओ / ऐ वतन के नौजवां जाग और जगा के चल तथा ऐ दिल ऐ दीवाने (दोनों गीत, फिल्म 'बाज') / ठहरो जरा सी देर तुम (सबेरा)/ नीले आसमानी (मिस्टर एंड मिसेज फिफ्टी फाइव) / ये कौन आया (जाल) और लौट चले अवधूत (बुलो. सी. रानी के साथ, फिल्म 'जोगन' में) वगैरह।
तस्लीम कि इन गीतों में धुनों और संगीतकारों- खासकर बंगाली संगीतकारों- का बहुत हाथ है, पर इन गानों के बीच से गीता को निकाल दीजिए, तो भीतर का रोमांच और रहस्यवाद कमतर हो जाएगा। गीता 'मीरा' की विकल याद हैं और उस याद में छिपा लोमहर्षक क्रंदन भी! यह 'क्रंदन' का सूक्ष्म स्पर्श... फिर कहीं नहीं मिलता। लता और आशा यह 'मिस्ट्री' लाती हैं।
यह रहस्यवाद उनके मिजाज और खून में नहीं है। उनके बनिस्बत गीता अपने निजी जीवन में भी एक रहस्यमय महिला (एनिग्मा) थीं और अंत तक उन्हें उनके सिवा कोई नहीं समझ पाया। बहुत से तारे चमकने के लिए नहीं आते, टूटने के लिए आते हैं। और गीता अपनी तन्हाई में सदा टूटता हुआ तारा रहीं!
आज उन्हीं के एक अद्भुत गीत को उठा रहा हूं। उसकी तरफ इस स्तंभकार का ध्यान इंदौर के संगीत-मर्मज्ञ सुरेश गावड़े ने खींचा। गीत पहले कई बार सुना था, पर आज सुना तो सुनता रह गया! फिर लिखने के लिए उसे बार-बार बजाकर सुना तो आश्चर्य और रोमांच में डूब गया! पीड़ा हुई कि क्या थीं गीता और क्या हश्र हुआ उनका! यह अकेला गीत उन्हें अमर कर जाने के लिए काफी है।
'हौले-हौले हवा डोले' में जहां खुली हवा में बहने का सुख है, वहीं 'आजा मेरे मन के राजा' में दुःख में ठुका रह जाने की फ्रीजिंग भी है। 'कारे-कारे बादरा छाए' में जहां मीठी-सी पुलक है, वहीं 'पिया मेरे तुम न आए' में हताश तमाशाई की कसक भी है।
'विरही गगन रोए' में गीता की लुनियाई (मक्खन सी खट्टी) आवाज जहां हमें आसमान में डुबो देती है, वहीं 'पिया तुम पास नहीं, कहां किस देस खोए' की दुःखभरी ढलान हमें गुलिया कर (गोल लपेटकर) कोने में टिका देती है।
इस गाने में हमें एक भद्र बंगाली बाला का खुलापन, उन्मुक्तता और जलते हुए युवा पवित्र बदन की सनसनाहट, छनछनाहट एकसाथ मिलती है। ऐसा लगता है, जैसे... बहती हवाओं में एक सोने की सुई हमारी तरफ खिसली आ रही है और आंख खुशी से नम है, तो कलेजा इस स्वर्ण-सूयिका से बिंधा जा रहा है। समझ नहीं आता, क्या करें। पढ़िए गीत-
हौले-हौले हवा डोले (पहले धीरे से, 'हौले' शब्द को सजेस्ट करते हुए। फिर, फास्ट) हौले-हौले हवा डोले, कलियों के घूंघट खोले, आजा मेरे मन के राजा, पियू पियू पपीहा बोले (फिर से। आगे अंतरा) कारे-कारे बादरा छाए, और संदेशा लाए -2 सावन सुहावन आया, पिया मेरे तुम न आए हौले-हौले... बोले, हौले-हौले हवा डोले! (अंतरा) विरही गगन रोए, मेरे दो नयन रोए -2 पिया तुम पास नहीं, कहां किस देस खोए (म्यूजिक टूटता/गैप को ढोलक भरती हुई) घन-घन बादरा बाजे, छन-छन पायल बाजे छाई-छाई हाय बहार -2 / तुम बिन जिया ना लागे हौले-हौले हवा डोले, कलियों के घूंघट खोले आजा मेरे मन के राजा, पियू-पियू पपीहा बोले (चारों लाइनें, फिर से) हौले-हौले हवा डोले।
दोस्तो, यह गीत भुलाए नहीं भूलता। खुशबू से नहला जाता है। हम हवा में बहते हैं। हमारे बाल उड़ते हैं। शरीर के एक-एक रंध्र में हवा का झोंका समाता है। और एक औरत की मीठी, पीर-भरी आवाज हमारे भीतर, झुट्ठे मन के बखिए उधेड़ते जाती है। हम धुल जाते हैं। गीत सन् 50 के सालों में कभी रेकॉर्ड हुआ था। सो गुजरा जमाना याद आता जाता है और उस जमाने को खो देने का दर्द सताता है।
गीता मिथ थीं, आवाज की परी थीं, हकीकत थीं या नजर का साफ धोखा? नहीं, वे सब कुछ एकसाथ थीं। और खुद को मिथक बना ले जाना, इतना आसान नहीं होता। जीनियस ही ऐसा साध सकती है। इस गीत के मीठे, प्रवाहमय, संगीत के लिए संगीतकार निखिल बोस भी याद रखे जाएंगे। गीत को भरत व्यास ने लिखा था।
कौन रंग मुंगवा कौने रंग मोयिा, कौने रंग हो ननदी तोरे बिरना
उत्तरप्रदेश का अमर लोकगीत। पीढ़ियां की पीढ़ियां इसे सुनते हुए बड़ी हुईं और इसे अगली पीढ़ी को सौंपते गईं। मुमकिन है उत्तरप्रदेश के दूर-दराज के देहातों में अब भी यह गाया जाता हो। द्य द्य
यह अपने मूल में 'ननद-भौजाई' के बीच का गीत है। हाथ चक्की (घट्टी) पर सुबह-सुबह गेहूं पीसते हुए घर की कोई भी दो महिलाएं इसे गाती थीं। श्रम के भार को काटने के लिए या मन द्वारा उसे अनदेखा करने के लिए ऐसे गीतों का मानव- बायोलॉजी ने सदियों पहले आविष्कार कर लिया था।
इनके बहाने वह अस्तित्व के बोझिल यथार्थ को ठगती गई और थकान-पसीने के बीच हंसती रही। फिल्म में भी यह गीत नायिका और सहनायिका के बीच, उसी हाथ चक्की पर होता दिखाया गया है।
ननद-भाभी गेहूं पीसती जाती हैं और सवाल-जवाब की शक्ल में गाती जाती हैं। सुखद आश्चर्य यह कि संगीतकार रोशन ने गाने की पृष्ठभूमि में हाथ चक्की चलने का सांगीतिक इफेक्ट भी दिया है, जिससे गीत और भी यथार्थ के करीब चला जाता है। वह मीठा लगने के साथ-साथ जाने किन यादों से आंखें भी तर करता है।
गीत का अर्थ कुछ इस तरह है- भाभी पूछती है- ननदी, मूंगे का रंग कैसा होता है? मोती का रंग कैसा होता है? और बता तेरे भैया का रंग कैसा है?
ननद जवाब देती है- भाभी, मूंगा सब्जी के रंग का (यानी हरा) होता है? मोती सफेद रंग का होता है। मेरे भैया का रंग सांवला है। और फिर ननद ही कहती है- मूंगा टूट गया! मोती बिखर गया। और मेरे भैया (बिरना) मुझे भूल गए!
इसके जवाब में भाभी बोलती है- मूंगे को बीन लूंगी। मोती को बटोर लूंगी। और, तुम्हारे भैया को मना लूंगी।
आगे फिर भाभी पूछती है- ननदी, मूंगा कहां शोभा देता है? मोती कहां शोभा देता है? और, बता, तेरे भैया को क्या शोभा देता है?
और दोस्तों, भीग जाने दीजिए आंखों को, कि ननदी बनाम हमारे देश की आत्मा बनाम मदर इंडिया बनाम हमारी अम्मा, मौसियां बनाम हमारा गौरवशाली राष्ट्रीय अतीत... जवाब देता है- मूंगा अंगूठी में शोभा देता है। मोती कंगन में शोभा देता है। और हमारी प्यारी भाभी हमारे प्यारे भैया को शोभा देती है।
वाह क्या कौमाल्य है! क्या पवित्रता है! क्या पारिवारिक अपनापा है, जिसकी पृष्ठभूमि दीनता में है। आर्थिक अभाव में है। सदियों के शोषण में है। एक हकीकत, जिसे हम गीत के बाहर जानते हैं और जिसे देश का इतिहास बतलाता है। यह लोकगीत अपनी मूल धुन में तो मीठा है ही!
पर लाख धन्यवाद दीजिए, सिने-संगीत को, प्रतिभाशाली और संवेदनशील संगीतकार रोशन को, कि उन्होंने धुन को और उसके संगीत को और भी मधुर बना दिया है। इसे न लता गाती हैं और न आशा। बल्कि रोशन इसे सुधा मल्होत्रा और सुमन कल्याणपुर की आवाजों में गवाते हैं। सुधा-सुमन ने भी इसे इतनी सूक्ष्मता और मार्मिकता से गाया है कि रोशनजी के लिए हमारे मन में दुआएं निकलते जाती है।
कोमल मेलडी के वे बादशाह थे। यह गीत उनके कारण और भी श्रव्य तथा स्मरणीय बन गया है। कैलाश मंडलेकर (खंडवा) कहते हैं- 'भैया, इस मेलडी पर एक आंख रोती है और एक आंख हंसती है। अद्भुत गीत है।' मैं समझता हूं, यही इस गीत की संक्षिप्ततम समीक्षा है।गीत फिल्म हीरा-मोती का है, जो सन् 1959 में आई थी। गीत यद्यपि पारंपरिक है, पर उसे हल्का सा स्पर्श, यहां-वहां, प्रेम धवन ने दिया है। वह भी करीब-करीब न के बराबर। पढ़िए गीत।
भाभी का हिस्सा सुमन गाती हैं और ननद के हिस्से को सुधा संभालती हैं- सुमन : कौने रंग मुंगवा, कौने रंग मोतिया, कौने रंग मुंगवा-कौने रंग मुंगवा, कौने रंग मोतिया/ हो कौने रंग? न न दी तोरे बिरना? हो, हो, हो, होजी।
सुधा : सबज रंग मुंगवा, सफेद रंग मोतिया, सबज रंग मुंगवा-सबज रंग मुंगवा, सफेद रंग मोतिया/ हो सांवरे रंग- सांवरे रंग भा अ भी (भाभी) तोरे बिरना! हो, हो, हो, होजी।
सुधा : टूट गइले मुंगवा, बिखर गइले मोतिया, टूट गइले मुंगवा-टूट गइले मुंगवा, बिखर गइले मोतिया/ बिसर गइले- हाय, बिसर गइले भाभी मोरे बिरना। हो, हो, हो, होजी।
सुमन : बीन लइबे मुंगवा, बटोर लइवे मोतिया, बीन लइबे मुंगवा- बीन लइबे मुंगवा, बटोर लइबे मोतिया/ मनाई लैबू- मनाई लैबू ननदी तोरे बिरना। हो, हो, हो, होजी।
सुमन : कित सोहे मुंगवा, कित सोहे मोतिया/ कित सोहे मुंगवा-कित सोहे मुंगवा, कित सोहे मोतिया/ हो कित सोहे- हो कित सोहे ननदी तोरे बिरना। हो, हो, हो, होजी।
सुधा : सुंदरी सोहे मुंगवा, बहुतइया सोहे मोतिया/ सुंदरी सोहे मुंगवा- सुंदरी सोहे मुंगवा, बहतुइया सोहे मोतिया/ तिरिया सोहे- कि तिरिया सोहे भाभी मोरे बिरना। हो, हो, हो, होजी। अंत में दोनों बारी-बारी से 'हो हो' को उठाती हुई, गीत को समाप्त करती हैं।
यह गीत रेडियो पर खूब बजा था और अरसे तक इसकी फरमाइशें की जाती रही थीं। रोशन, सुधा और सुमन ने हमारी आत्माओं को अमृत से छका दिया था। गायन के महीन डिटैल्स तो खैर अपनी जगह हैं। अब ऐसी बंदिशें कहां? जान देकर जान लेने वाला अब ऐसा गायन कहां? मन 'चल कंता घर आपने रैन भई चहुं देस'।