कविता : शब्द मौन हैं

सुशील कुमार शर्मा
शब्दों के बीच के
शब्दहीन अंतराल
जीवन को उकेरते
कुछ अनसुलझे सवाल।
 
शब्द खोजते भाव
साहित्य के संदर्भ में
संभावनाओं के गहरे अतल में
अनुभूतियों का अथाह जल है।
 
अपने से इतर
शब्दों के इर्द-गिर्द
अभिव्यक्तियों का शोर है।
 
सौंदर्य-सृष्टि का निर्व्याज भाव है 
शब्दों की प्रामाणिकता
साहित्य में खनकती है।
 
भाषा की परिभाषा में
शब्द वर्ण परमाणु हैं
मौन के किनारों पर
संभाव्य अर्थ व्यंजित हैं।
 
कविता भाषा में नहीं होती है
कविता शब्दों में भी नहीं है।
 
साहित्य नीरव में सृजित होता है
साहित्य सूक्ष्म और विराट का द्वंद्व है
सूक्ष्मता से विराट की ओर यात्रा है
साहित्य अनुभूति का चरम है
साहित्य आत्मविसर्जन है
विश्व चेतना का आत्मसातीकरण है
आत्मा की परिव्याप्ति की अभिव्यंजना है।
 
शब्द पुष्प हैं 
जब वो निर्झर झरते हैं प्रेम की अभिव्यंजना में
शब्द बाण हैं, जब वो भेदते हैं 
उस अभिव्यक्ति को 
जिसमें पर्यावरण का विनाश
स्त्रियों, दलितों पर अत्याचार
हिंसा के स्तर पर व्याप्त 
आस्थापरक असहिष्णुता 
राजसत्ता, पूंजी और बाजार की तानाशाही को।
 
शब्द शूल हैं
जब वो उकेरते हैं
क्रूर नस्लवादी प्रजाति 
और पौरूषेय अहंकार के 
बुनियादी अंतरविरोध को। 
 
शब्दों के संस्कार में
जीवन और मृत्यु के बीच
जीवन की संभावनाओं का अन्वेषण है
दलितों की चीत्कार है
नारियों का आर्तनाद है
बच्चों की बिलखती भूख है
राजनीति की कूटनीति है
और विकास के अंतिम छोर पर खड़े
उस जन-मन-गण के
निहित प्रश्नों के निरूपण हैं।
 
जीवन के हर सुख-दु:ख, संवेग,
राग-विराग और संघर्ष के 
अभिन्न संधान हैं।
 
भाषा की सृजनात्मकता में
बहते भावों के छंद हैं
करुणा विगलित मन
चिर जागरूक निर्द्वंद्व हैं।

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