फेंका बहुत पानी अब उसको बचाना चाहिए,
सूखे जर्द पौधों को अब जवानी चाहिए।
प्यासी सुर्ख धरती को अब रवानी चाहिए।
लगाओ पेड़-पौधे अब हजारों की संख्या में,
बादलों को अब मचलकर बरसना चाहिए।
समय का बोझ ढोती शहर की सिसकती नदी है,
इस बरस अब बाढ़ में इसको उफनना चाहिए।
न बर्बाद करो कीमती पानी को सड़कों पर,
पानी बचाने की अब एक आदत होनी चाहिए।
रास्तों पर यदि पानी बहाते लोग मिलें,
प्यार से पुचकारकर उन्हें समझाना चाहिए।
'पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून',