कश्मीरी विस्थापन की मार्मिक कहानी : यूं ही मैं बावरी

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-जानीमानी कथाकार कविता वर्मा की कलम से 
आज वे अचानक स्टाफ रूम में आ गईं। इतना अप्रत्याशित तो नहीं था लेकिन सभी को चौंका देने वाला जरूर था। यूं तो यह उनका अधिकार था कि वे कभी भी कहीं भी जा सकती थीं लेकिन स्टाफ रूम में वे कम ही आती थीं या नहीं ही आती थीं। बच्चों का पीटी पीरियड था इसलिए सभी टीचर्स फ्री थे। कुछ कॉपियां जांच रहे थे तो कुछ गपशप कर रहे थे। वैसे आजकल गपशप का विषय भी वे ही रहती हैं इसलिए चोरी पकड़ी जाने जैसा भाव उनके चेहरे पर फ़ैल गया जिसे उन सभी ने कुछ अस्त-व्यस्तता से और कुछ चतुराई से पोंछ लिया। 4-5 टीचर्स घेरा बनाकर बैठे गाना गा रहे थे और वे भी उन्हें देख सब चुप हो गए और अपने गाए गीतों के बोलों को मन में दोहराकर देखने लगे कि कहीं कुछ गलत तो नहीं गा रहे थे। वे भी एक कुर्सी खींचकर बैठ गईं तो गाना बंद होने से ज्यादा गहरी चुप्पी पसर गई। उस क्षण हवा चलना बंद हो गई बल्कि सबने सांस लेना ही जैसे बंद कर दिया।
 
'अरे चुप क्यों हो गए? गाओ-गाओ, मुझे तो गाने का बड़ा शौक है।' आज उनका मूड बिलकुल अलग था। आज वे मुस्कुरा रहीं थीं। उनके चेहरे की तनी रहने वाली नसें आज सहज थीं इसलिए थोड़ी देर में सब सहज हो गए। थोड़ी देर में, थोड़ी देर के लिए सब भूल गए कि वे कौन हैं और हम कौन? सब साथ में हंस रहे थे, गा रहे थे। फिर म्यूजिक टीचर अनु ने अचानक वह गीत शुरू किया जिसकी दूसरी लाइन ख़त्म होते-न-होते वे रोते हुए उठकर बाहर चली गईं। किसी की कुछ समझ में नहीं आया कि क्या हुआ? वे रूमाल से मुंह छुपाते तेज़ी से उठकर कमरे से बाहर चली गईं। अनु ने गाना बंद कर दिया और स्टॉफ रूम में सन्नाटा खिंच गया। सब एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। सबकी आंखों में एक ही प्रश्न था कि क्या हुआ और सभी एक-दूसरे से आंखों-आंखों में ही यह पूछ रहे थे। मिसेज सेन सबसे पहले उस सन्नाटे से बाहर निकलीं और तेज़ी से वहीं चली गईं, जहां वे गई थीं।
 
स्टॉफ रूम में खुसुर-पुसुर शुरू हो गई। हालांकि अब तक सभी हतप्रभ थे। वे अचानक रोने क्यों लगीं और इतनी भावुक कैसे हो गईं? वे जो अपने अटपटे स्वभाव के लिए मशहूर थीं जिनके तुनकमिज़ाजी के चर्चे रोज़ ही स्टॉफ रूम में होते थे और जिनसे उनका साबका पड़ा था और जिनका कभी वास्ता नहीं पड़ा था, वे भी उन्हें एक बदमिजाज औरत के रूप में जानते थे।
 
अभी 4 महीने ही तो हुए थे उन्हें ट्रांसफर होकर यहां आए। उसके पहले तक इस केंद्रीय विद्यालय में सभी कुछ सहज व शांत तरीके से चल रहा था। पिछले प्रिंसीपल बेहद खुशमिज़ाज और सभी से मित्रवत थे। अपने सरल व हंसमुख स्वभाव के कारण उन तक सभी की पहुंच थी, पर सरकारी नियम के तहत 3 साल बाद उनका तबादला होना ही था। उनके जाने की घड़ी आने से पहले ही कुछ सीनियर टीचर्स अपने संपर्कों के माध्यम से पता लगाने में लगे थे कि अगला कौन आने वाला है? जब उन्हें पता चला कि अगला आने वाला नहीं, 'आने वाली है' तो सब थोड़े निराश से हो गए।
 
यूं तो स्कूल स्टॉफ में ज्यादातर महिलाएं हैं और पुरुष स्टॉफ तो बहुत कम है, परंतु फिर भी सभी 'ही बॉस' (पुरुष बॉस) के साथ ज्यादा ज्यादा सहज होते हैं। महिलाएं इसलिए, क्योंकि अपनी परेशानी बताकर छुट्टी लेते समय 'ही बॉस' सहानुभूतिपूर्वक बात समझते हैं जबकि 'शी बॉस' (महिला बॉस) 'ऐसा तो मेरे साथ भी हुआ था तब मैंने तो ऐसे मैनेज किया था' कहकर या अपनी तरफ से दो-चार सलाह देकर छुट्टी की बात ही उड़ा देती हैं। पुरुष वर्ग भी अपनी बिरादरी में ज्यादा सहज रहते हैं। कुछ लोगों को तो 'शी बॉस' से ऑर्डर लेने में परेशानी रहती है। हां, एक छोटा स्त्री-पुरुष वर्ग जरूर अपनी चापलूसी के दम पर दोनों के साथ सहज रहते हैं लेकिन इन मैडम के आने से पहले उनकी इतनी ख़बरें आ गई थीं कि वह वर्ग भी आशंकित था।
 
पता चला कि उन्हें 4 साल पहले प्रिंसीपल के रूप में केंद्रीय विद्यालय में सीधी नियुक्ति मिली थी। अब तक करीब 6-7 जगह उनका तबादला हो चुका है। वैसे तो ये भी सुनने में आया कि वे अपने विषय की महारथी हैं और डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त हैं। पर बस उनका व्यवहार ही पल में तोला पल में माशा है, जो वही किसी को समझ नहीं आता।
 
जिस दिन उन्होंने ज्वॉइन किया था, बड़ी खुश थीं। सबसे बड़ी बेतकल्लुफी से मिलीं। सबसे उनके व उनके परिवार के बारे में जानकारी लेती रहीं। उनकी पिछली पोस्टिंग के बारे में बात करती रहीं। हां, अपनी पोस्टिंग या तबादले के बारे में कोई चर्चा नहीं की बल्कि कहें कि अपने बारे में पूछे गए सवालों को टालने के लिए ही दूसरों के बारे में बहुत सारी बातें पूछती रहीं। नई-नई बॉस उस पर दसियों उड़ी-उड़ी ख़बरें। कोई ज्यादा कुछ पूछता भी क्यों? करीब आधा-पौन घंटा बड़ी सहजता से गुजरा।
 
उनके केबिन से बाहर आते लोग उनके बारे में मिली अपनी ख़बरों के प्रति आशंकित थे। वे सोचने लगे कि कहीं उनके किसी प्रतिद्वंद्वी की साजिश तो नहीं थीं वे ख़बरें। पर ख़बरें किसी एक स्रोत से थोड़ी मिली थीं और वे तो अलग-अलग स्रोतों से आई थीं और उनमें वैसी ही समानता थी, जैसी पहाड़ी नदी की अलग-अलग धाराओं में होती है। पहली मुलाकात ने उन ख़बरों की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया था। लोग चुप थे, पर उनके मन में कुछ घुमड़ रहा था। अपने विश्वसनीय स्रोत पर वे शक नहीं करना चाहते थे तो अपनी आंखों देखी पर भी शक कैसे करते? हां, एक राहत की सांस जरूर सबने ली।
 
कुछ ही दिन हुए होंगे, जब कुछ चुनिंदा टीचर्स के साथ मीटिंग करते हुए वे अचानक भड़क गईं। सामने टेबल पर रखे पेपर्स उठाकर फेंक दिए। गुस्से में चिल्लाते हुए कहने लगीं कि 'आप लोग क्या समझते हैं, मैं पागल हूं? आप लोग कुछ भी कहेंगे, कुछ भी सोचेंगे, उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। अब मैं बॉस हूं और काम वैसे ही होगा, जैसे मैंने कहा है।' 
 
भौंचक बैठे लोगों ने कम से कम अपने खबरियों की विश्वसनीयता का तो शुक्र मनाया। उस दिन परिसर में खूब सरगर्मियां रहीं व फुसफुसाहटें एक स्टाफ रूम से दूसरे तक दौड़ लगाती रहीं। तिरछी मुस्कुराहटें होंठों से आंखों तक फैलती रहीं और कुछ चुहलबाजियां अठखेलियां करती रहीं।
 
उस मीटिंग के बाद उन्होंने अपने केबिन में खुद को बंद कर लिया। वाइस प्रिंसीपल और हेड क्लर्क किसी काम के लिए गए तो उन्हें भी अंदर आने की इजाजत नहीं दी गई और 'बाद में आइएगा' कहकर टरका दिया। उनके इस वनवास की ख़बरें फिर उड़ने लगीं। कोई कहता शर्मिंदगी है तो कोई कयास लगाता गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ है। स्कूल के प्यून ने बाहर की खिड़की से झांककर अंदर का जायजा लेने की कोशिश की तो पाया वे कुर्सी की पुश्त से सिर टिकाए आंखें बंद किए बैठी हैं। कमरे की लाइट बंद है, पर्दे भी लगे हैं। कमरे में लगभग अंधेरा है। वह तो पर्दे की एक झिर से झांक आया।
 
इस खबर ने फिर सहानुभूति का दरिया उनकी तरफ मोड़ दिया। हो सकता है किसी कारण से परेशान रही हों इसलिए खुद पर काबू ना रख सकीं। स्कूल की छुट्टी हो गई थी। स्टाफ के लोगों ने घर जाने से पहले एक बार फिर बंद दरवाजे की ओर देखा और चुपचाप निकल गए। दूसरे दिन पता चला कि वे देर शाम को घर गईं। 
 
वे अभी तक केंद्रीय विद्यालय के गेस्ट रूम में ही थीं और जल्दी ही उन्हें क्वार्टर मिलने वाला था। एक दिन सहजता से बातें करते हुए क्वार्टर की साफ-सफाई व नौकर आदि की बात करते हुए लोगों ने उनके परिवार के बारे में पूछ लिया। अचानक ही वे बहुत गंभीर हो गईं। परिवार तो बहुत बड़ा था। फिर अचानक सिर झटककर बोलीं कि अभी तो मुझे अकेले ही रहना है और पति और बेटा दिल्ली में हैं। जॉब और पढ़ाई के कारण यहां आ नहीं पाएंगे। मेरा अकेले का क्या है, जैसा गेस्ट हाउस, वैसा घर। रहना तो अकेले ही है। इसके बाद उन्होंने काम का बहाना बनाकर सभी को जाने का इशारा किया।
 
कैंपस में फिर ख़बरें उड़ने लगीं कि पति और बेटे से इतनी दूर उनका मन नहीं लग रहा है शायद इसलिए वे चिड़चिड़ा जाती हैं। लेकिन वे दुनिया की पहली औरत नहीं हैं, जो अकेली हैं। फिर वे अकेली हैं लेकिन तन्हा तो नहीं हैं न? उनके पति हैं, बेटा है। इस बात ने उनकी तन्हाई, पति से प्यार व रोमांस को गॉसिप बना दिया। अबकी तिरछी व चितवन अर्थपूर्ण मुस्कराहट स्कूल के गलियारे में घूमने लगी। इस बार पुरुष स्टॉफ को मसाला मिल गया जिसका लुत्फ़ दबे-छुपे महिला स्टाफ ने भी उठाया। बाबुओं और चपरासी ने भी आंख दबाकर दीवार या खम्भे की ओट लेकर बेबात की बात को अपना रंग दिया।
 
इसी बीच उनके विषय पर एक सेमिनार हुआ जिसमें उन्होंने भी प्रेजेंटेशन दिया। विषय के जानकारों में उनकी धाक जम गई। विषय पर उनकी पकड़, समझ और पहुंच ने उनके प्रति लोगों के नज़रिये में फिर बदलाव किया। अब उनकी विद्वता का मान उन्हें मिलने लगा, लेकिन फिर भी लोग उनसे तटस्थ से रहते। ही बॉस या शी बॉस वाले तो ठीक, अपने हुनर से किसी से भी बनाकर रखने वाले भी उनसे दूर ही रहते। कोई नहीं जानता था कि वे कब किस मूड में क्या कह बैठे?
 
स्कूल की काउंसलर के पास टीचर्स उनके व्यवहार का डर लेकर पहुंचतीं। उनकी बातों और व्यवहार का आकलन करने के बाद काउंसलर ने बताया कि वे किसी गहरे सदमे की-सी हालत में हैं इसीलिए उनका व्यवहार अचानक बदल जाता है। ये दुःख या सदमा पति और बेटे से दूर रहने के दुःख के अलावा कुछ और है। लोगों ने फिर कयास लगाना शुरू किया और क्या हो सकता है?

माता-पिता या भाई-बहन को खोना या उनसे मनमुटाव, जमीन-जायदाद या कुछ और? व्यक्तिगत बातें उनसे करे कौन? वैसे भी व्यक्तिगत बातों पर वे चुप्पी लगा लेती थीं। बस एक वाइस प्रिंसीपल मिसेज सेन ही थीं, जो उनसे काम के सिलसिले में लगभग रोज़ ही मिलती थीं। वे उम्र और अनुभव में उनसे बड़ी थीं इसलिए कभी-कभी उन्हें दोस्ताना सलाह दे देती थीं और कभी-कभी जब वे खुद को बहुत अकेला महसूस करतीं तब मिसेज़ सेन से ही थोड़ी देर अपने मन की बातें कर लेती थीं।
 
लोगों के बदलते व्यवहार को उन्होंने भांप लिया था। वे सहज रहने की कोशिश करतीं व मुस्कुराने की कोशिश भी करतीं और अपने काम से काम रखतीं। वे लोगों से कम ही मिलतीं। न किसी से मिलेंगी न कुछ कहेंगी। अपने बिगड़ते मूड पर उनका खुद का भी बस नहीं था। वे किसी ऐसे दु:ख की गिरफ्त में थीं जिससे बाहर निकल पाना उनके बस में नहीं था। अपने केबिन में अकेले बैठे काम करते भी उदासी की एक छाया उनके चेहरे पर होती।
 
कभी चर्चा होती वे बहुत भावुक हैं लेकिन भावुकता में आकर कोई ऐसे भड़क थोड़े न जाता है। वे तो अचानक बदमिजाज हो जाती हैं। फिर पता चला वे कविताएं लिखती हैं। गाहे-बगाहे कभी किसी अच्छे मूड में उन्होंने किन्हीं लोगों को अपनी कविताएं सुनाई भी। विरह और अकेलेपन के सुर के साथ उन कविताओं में अपनी जड़ से दूर होने का दु:ख भी मुखर था। सुनने वालों ने कहा कि कविताओं में दु:ख न हो तो वो कविताएं ही क्या? लेकिन सुनने वाले ये न समझ सके कि कोई दु:ख कोई बैचेनी तो है जिसकी वजह से ये कविताएं बाहर आई हैं।
 
लोग उनके पास कम ही जाते और काम की बात करके जल्द से जल्द वापस आ जाते। वे खुद भी केबिन से कम ही बाहर निकलतीं तथा एक राउंड लेतीं और वापस अपने केबिन में चली जातीं। लेकिन थीं तो वो भी इंसान ही। कभी-कभी उनका भी मन करता कि लोगों से बात करें और उनके साथ बैठें। जब भी वे मीटिंग में पहुंचतीं, सब एकदम चुप हो जाते और माहौल बोझिल हो जाता।

कभी स्टॉफ रूम में पहुंच जातीं तो गपशप में लगीं टीचर्स कॉपियां चेक करने में लग जातीं। एक-दो टीचर्स जिनके पास आकर वे बैठ गई होतीं, वे भी एक-दूसरे का मुंह देखती कि क्या कहें और क्या नहीं? एक दिन किसी मीटिंग में उन्होंने बहुत उदास होकर कह ही दिया कि 'मुझे देखकर आप लोग ऐसे चुप हो जाते हैं, जैसे मैं कोई अलग बिरादरी की हूं। मैं भी आप लोगों के जैसी ही हूं और मुझे इतना अलग-थलग मत करो' कहते-कहते उनकी आवाज़ रुंध गई और टेबल पर रखे गिलास के पानी के साथ उन्होंने अपने आंसू गटक लिए।
 
इसी बीच एक बड़ी बात हो गई। एक टीचर उनके पास छुट्टी का आवेदन लेकर गई। उसे घर की पूजा में शामिल होने जाना था। छुट्टी लंबी थी इसलिए पहले मंजूर करवाना जरूरी था। पहले तो उन्होंने सामान्य बातचीत से छुट्टी कम करने को कहा, पर टीचर ने असमर्थता जताते हुए कहा कि इतने समय बाद घर जा रहे हैं और सबसे मिलने-जुलने व साथ रहने को समय तो चाहिए, तो वे अचानक भड़क गईं।

घर-घर-घर क्या लगा रखा है? क्या सिर्फ आप लोगों का ही घर है, दूसरों का नहीं? आप ही लोगों को अपने पैतृक स्थान पर जाकर पूजा करना होता है, दूसरों को नहीं? आप जो चाहेंगे, वही करेंगे। दुनिया में बहुत लोग हैं, जो कभी घर नहीं जा सकते। उनका क्या? बोलते-बोलते वे हांफने लगीं और उनका शरीर कांपने लगा। गला रुंध गया। फिर अचानक वे उठ खड़ी हुईं और आवेदन को पेपरवेट से दबाया और 'मैं देखती हूं' कहते हुए बाथरूम में चली गईं।
 
वह टीचर कुछ हतप्रभ और कुछ गुस्से और कुछ अपमानित-सी बाहर आईं। उसकी आंखों में आंसू थे। स्टॉफ रूम में आते ही वह फट पड़ीं। कह तो ऐसे रही हैं, जैसे मैंने उन्हें उनके घर जाने से रोका हो। जाएं न अपने घर किसने मना किया है? मिनटों में ये खबर पूरे स्टॉफ में फ़ैल गई। सभी में आक्रोश फ़ैल गया। वे सभी केंद्रीय विद्यालय की स्थायी टीचर्स थीं, किसी प्राइवेट स्कूल की नहीं। केंद्र शासन के नियम-कायदे से वाकिफ थे सभी। कभी किसी ने उनसे ऐसा व्यवहार नहीं किया था, न ही ऐसा व्यवहार झेलना उनकी मजबूरी थी।

क्या किया जा सकता है, क्या करना है की सुगबुगाहटें चल ही रही थीं कि चपरासी उसी आवेदन पर छुट्टी स्वीकृति की मोहर के साथ उस टीचर को ढूंढता हुआ आ गया। एक बार फिर सब असमंजस में थे कि जब छुट्टी देना ही था तो इतनी बातें क्यों की? किस बात पर इतना गुस्सा दिखाया?
 
जब-जब उन्हें समझने की कोशिश की जाती या समझने का आभास होता, तब-तब वे और उलझी पहेली बनकर सामने आतीं। उनसे बात किए व मिले बिना काम नहीं चलता, पर उनसे कब व किस समय बात की जाए यह किसी के समझ नहीं आता। उनके लिए अलग-अलग संबोधन तय किए गए। कोई खिसकेल कहता, कोई हटेली, तो कोई क्रेक। पर ये सब कहकर सब उनके प्रति अपना गुस्सा ही बाहर निकाल रहे थे, कर तो कोई कुछ नहीं पा रहा था। पता नहीं कब यहां से इनका ट्रांसफर होगा और कब इनसे मुक्ति मिलेगी?
 
आज तो वे अचानक स्टॉफ रूम में आ गईं। एकदम अलग ही मूड में खुश-खुश, खिली-खिली। उनके पीछे गईं मिसेज़ सेन लौट आईं। सब आंखों में एक ही प्रश्न लेकर उन्हें घेरकर खड़े हो गए। मिसेज सेन ने जो बताया, उससे पिछले 4 महीनों में उनका व्यवहार, उनकी उदासी व अकेलापन, अलग बिरादरी, घर जैसे वाकये सबके जेहन में कौंध गए। उनके अटपटे व्यवहार व उनके दुःख का खुलासा-सा हुआ, जो सभी को स्तब्ध कर गया। 
 
उन्होंने बताया कि वे कश्मीर से विस्थापित हैं और अनु के गीत 'चल उड़ जा रे पंछी, के अब ये देश हुआ बेगाना' सुनकर अपने दर्द को संभाल नहीं पाईं।

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