मकाऊ यात्रा का अंतिम पड़ाव

- आलोक मेहता

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चालीस डॉलर का चूना लगाने पर समझ में आ गया कि असली चीनी असर है। मकाऊ में पुर्तगीज रहे और हांगकांग में ब्रिटिश। इसलिए मकाऊ में तो अंग्रेजी बोलने-सुनने वाले मिलना मुश्किल है। गाँव-कस्बेनुमा मकाऊ में 400 साल पुराने चर्च खड़े हैं। ऐतिहासिक, यादगार। मेरी तरह जावेद अख्तर और शबाना आजमी को भी जुआघर के बजाय मकाऊ की ऐसी टूटी-फूटी इमारतें देखने और भोले-भाले लोगों के साथ टूटी-फूटी भाषा में बात करने में आनंद आता है। मकाऊ से हांगकांग वापसी टर्बो बोट फेरी में की।

मुंबई, बनारस, इलाहाबाद, पटना की याद आने लगती है। बोट में हर वर्ग, क्षेत्र, देश, भाषा के लोग। कोई कड़वाहट नहीं। हांगकांग में तो पूरी दुनिया के लोग जमे हुए हैं। लगभग 1100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हांगकांग में करीब 70 लाख लोग बसे हुए हैं। न्यूयॉर्क की तरह गगनचुंबी इमारतें, पुराने-नए बंदरगाह, ट्रेन, ट्राम, बस, कार, रिक्शे सब कुछ। लेजर रोशनी से नहाती इमारतें और कभी न सोने वाला शहर। थोक बाजार हो या खुदरा, दिन की व्यावसायिक भागदौड़ हो या नाइट लाइफ की रंगीनी, लूटपाट का कोई डर नहीं।

कड़ी सजा के डर से अपराध कम। तभी तो भारतीयों को हांगकांग दशकों से भा रहा है। लगभग 10-15 वर्षों से जमे प्रवासी मनीष और दिनेश शर्मा का परिवार बहुत प्रसन्न है। उन्हें यहाँ बेगानापन नहीं लगता। मनीष-दिनेश हमारे इंदौर-महू में पले, पढ़े और बड़े हुए। मालवा बरसों पहले छूट गया लेकिन हांगकांग में सारे भाई-बहन एक साथ आसपास रहते हैं। चार्टर्ड अकाउंटेंट होने की वजह से चीनियों, भारतीयों, यूरोपियन, अमेरिकन के बही खातों की जिम्मेदारी संभालते हैं। चीनी सज्जन पार्टनर हैं लेकिन कभी मनमुटाव नहीं।

मनीष कहते हैं- चीनी तो अच्छे हैं ही, यहाँ पाकिस्तान, बांग्लादेश या नेपाल से आए भी परिवार के लगते हैं। कोई झगड़ा-झंझट-तनाव नहीं। सबको काम-धंधा करना है। मनीष भाई को पता चल गया था। शॉपिंग में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं और न ही माँसाहारी भोजन में। इसलिए थोड़ी चटपटी सूखी दाल और मठरी खिलाते हैं और परिवार सहित चल पड़ते हैं विशाल बुद्ध प्रतिमा के दर्शन कराने। लानताऊ द्वीप जाने के लिए फिर स्टीमर फेरी में बैठना पड़ा। 45 मिनट बाद वहाँ पहुँचे तो तेज बारिश।

अमेरिकी रेस्तराँ में ठंडा-गर्म पीकर टैक्सी से गौतम बुद्ध पोलिन मठ - द विजडम पाथ पहुँच गए। दुनियाभर में बुद्ध की इतनी बड़ी काँस्य प्रतिमा नहीं है। वह भी इतने ऊँचे पहाड़ पर। पैदल चढ़ने-उतरने में घंटाभर लग गया। शाम के 4 बजने को थे और भूख लगने लगी थी लेकिन दिनेश शर्मा ने दिलासा दी - घबराएँ नहीं। यहाँ भी शुद्ध शाकाहारी खाना मिलेगा। गौतम बुद्ध प्रतिमा की भव्यता और इतिहास की झलक देने वाले छोटे से म्यूजियम का टिकट लेने पर भोजन भी मुफ्त। शुद्ध शाकाहारी चाइनीज चाऊमीन।

बींस से बना दही और शहद। मशरूम-आलू डालकर बना स्प्रिंग रोल। ईश्वर और पेट पूजा के बाद पहाड़ से स्टेशन तक बस से यात्रा। साधारण बस में सामान्य लोग। भाषा न जाने, मुस्करा तो सकते हैं। प्यार के लिए कोई भाषा सीमा नहीं होती। बस के बाद लोकल ट्रेन पकड़ी तो अच्छी-खासी भीड़ लेकिन किसी को जल्दी नहीं। दूसरों की सीट झपटने का झगड़ा नहीं। सबको अपने काम पर या घर जाना है। लोकल ट्रेन की अलग-अलग लाइनें हैं। सड़क के नीचे हों या समुद्र के नीचे, ट्रेन चलती रहती है। कहीं गंदगी नहीं।

मशीनें रास्ता रोकती या बनाती हैं। हांगकांग हवाई अड्डा पहुँचाने के लिए पिछले साल से नई ट्रेन, नए ट्रैक पर चलने लगी है। डिज्नीलैंड जाएँ या फिशिंग विलेज, पर्यटकों का स्थानीय लोगों को खुशियाँ मनाते रहना है। आखिरकार, मेहनत तो खुश रहने के लिए ही की जाती है। मकाऊ में जुए से कमाऊ भले ही न बनें, हांगकांग में मेहनत करके संपन्न अवश्य बन सकते हैं।