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हिन्दी कविता : अधूरा जन्मदिन
सुशील कुमार शर्मा
मेरा जन्मदिन
कुछ अधूरा रहा
मां-बाबूजी के चरणों
में शीश न झुका पाया।
ना ही उनकी इंतजार
करती आंखों में वह ख़ुशी
देख पाया जो मेरे जन्म
के समय रही होगी।
अपने बच्चों के सिर पर
हाथ रखकर उन्हें
आशीष नहीं दे पाया।
मैंने आंगन में दौड़ती
गिलहरियों को कुतरने
के लिए मूंगफली नहीं डाली।
मैंने बाहर खड़ी
एक बूढ़ी भिखारन को
मांगने के बाद भी पैसे नहीं दिए।
कचरे के डिब्बे में रोटी ढूंढते
बच्चे से ये भी नहीं पूछा
कि वह कितने दिन से भूखा सो रहा है।
मैंने अपनी थकी पत्नी से
जो दिनभर से बीमार होने के बाद भी
जन्मदिन की तैयारी में लगी थी
एक बार भी नहीं पूछा कि
उसकी तबीयत कैसी है।
मैंने आंगन में सूखते पौधों
में पानी नहीं दिया न ही
पिछले साल जन्मदिन पर लगाए
हुए सूखते पौधे का हाल जाना।
अपने विद्यार्थियों को आज
मैंने कोई शिक्षाप्रद बात
भी कक्षा में नहीं बताई।
मेरे मित्रों के शुभकामना संदेशों
का जवाब भी यंत्रवत दिया
व्हाट्स एप के इस कोलाहल में
रिश्तों की संवेदनाओं को मरते देखा।
मैंने अपनी सभी अभिव्यक्तियों
को अपने अंदर मरते देखा है
जो कभी मुखरित होती थी
खिलखिलाती थी परिवार के साथ
दोस्तों के साथ अभिनंदित होती थी।
सिर्फ एक मरता हुआ अहसास है
अपने अधूरे जन्मदिन का।
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