‘अधूरी कहानी में कोई नायक नहीं होता, न कोई नायिका, इसमें सिर्फ संवाद होते हैं, जो अकसर उन दो लोगों के बीच होते हैं, जिनको न कल्पनाओं का पूरा आसमान मिल पाता है, न सच की धरातल पर खड़े होने की जगह। कुछ रिश्ते बस यूँ ही इन दो धूरियों के बीच अपना अस्तित्व तलाशते हुए नज़र आते हैं। खुद ही रूठ जाते हैं और खुद ही मान भी जाते हैं। वे अपने जीवन के किस्सों के खुद रचयिता होते हैं। वे खुद ही कठपुतलियाँ हैं और खुद ही डोर संभाले हुए भी। वे इन किस्सों को जो रूप देना चाहें, दे देते हैं...’
‘तुम्हारी कहानी पढ़ी, तुम तो ऐसा नहीं लिखती थी... मेरा मतलब है तुम्हारी कहानियों में तुम्हारा दर्द दिखाई देता है...ये बहुत ऑप्टिमिस्टिक लगी।’
‘कब तक ज़िंदगी से शिकायत करती रहती?’
‘‘जब मौन पिघल जाता है’ विचार अच्छे लगे इसमें, हर इंसान को ऐसी सोच रखना चाहिए।’
‘हाँ, अपने पुराने ग़म को भुलाकर नई खुशियाँ ढूँढ ही लेता है इंसान।’
‘अच्छा है ढूँढने से तो भगवान भी मिल जाते हैं, ये तो सिर्फ खुशियाँ हैं।’
‘हाँ हम अकसर उन चीजों को ढूँढने निकल पड़ते हैं, जिनको आज तक किसी ने नहीं देखा। तुमने भगवान को देखा है?’
‘अधूरी कहानी में कोई नायक नहीं होता, न कोई नायिका, इसमें सिर्फ संवाद होते हैं, जो अकसर उन दो लोगों के बीच होते हैं, जिनको न कल्पनाओं का पूरा आसमान मिल पाता है, न सच की धरातल पर खड़े होने की जगह।
‘नहीं’
‘खुशियों को? ’
‘मिल जाएगी’
‘कुछ नहीं मिलता, सब लिखने-पढ़ने की बातें हैं, मैं लिखकर खुश हो जाती हूँ, लोग पढ़कर, चीजें वहीं की वहीं रहती है, समय आगे बढ़ता है और नए लोग मिलते जाते हैं, पुराने छूटते जाते हैं।’
‘अच्छा है ना, परिवर्तन ही तो जीवन है।’
‘हाँ, यदि आप परिवर्तन से खुश हो तो और फिर जो पुराना छूट जाता है उसका ग़म भी ज़िंदगीभर संभालो...खैर, फिर ज़िंदगी से शिकायत नहीं करूँगी।’
‘सच है, आगे बढ़ो और खुश रहो।’
‘तुमने बहुत कुछ दिया, कैसे शुक्रिया कहूँ।’
‘कुछ भी तो नहीं दे पाया मैं, ज़िंदगी से शिकायतों के अलावा।’
‘क्यों नहीं, जीवन में जब भी तुम्हारी सबसे ज्यादा ज़रूरत महसूस हुई, तुम नहीं थे... अकेले भी जिया जा सकता है, ये सिखाने के लिए।’
‘मैं वहीं था जहाँ होना चाहिए था।’
‘हमेशा वहीं रहो यही दुआ करूँगी, लेकिन मुझे जहाँ जाना है वहाँ तो जाना ही पड़ेगा, अब कोई नहीं रोक सकता मुझे, मैं खुद भी नहीं।’
‘मैंने कभी नहीं रोका, तुम अपना अच्छा-बुरा खुद समझती हो।’
‘समझती होती तो इतने साल तुम्हारा इंतज़ार नहीं करती, ये जानते हुए कि तुम कभी नहीं आओगे।’
‘मैंने ऐसा कभी नहीं कहा।’
‘हाँ, तुमने कभी कुछ नहीं कहा और मुझसे उम्मीद करते रहे कि मैं वे बातें भी समझ जाऊँ, जो तुम दुनिया के डर से नहीं कह सके।’
‘हर बात कहना ज़रूरी है?’
‘हाँ, कम से कम उस समय जब आपकी बात न समझ पाने के कारण कोई आपको छोड़कर जा रहा हो।’
‘तुम जानती हो तुम नहीं जा पाओगी, फिर क्यों हर बार ये कोशिश करती हो?’
‘नहीं, ये हर बार का फ्रस्ट्रेशन नहीं है, जो मैं तुम पर निकालती थी और कुछ दिन की दूरियों के बाद तुम्हारी एक नज़र की डोर को पकड़कर खींची चली आती थी।’
‘इस बार भी इसे फ्रस्ट्रेशन समझकर मुझ पर निकाल दो।’
‘नहीं, इस बार ये फ्रस्ट्रेशन मैंने किसी और पर निकाल दिया है।’
‘मतलब?’
‘हर बात कहना ज़रूरी है?’
इसके आगे वह कुछ नहीं कह पाया, मैं जानती थी वह कभी नहीं कह पाएगा, मेरे लिए यह दर्द असहनीय हो चुका था, एक अजनबी रिश्ते को बरसों तक घर में पनाह देती रही सोचकर कि एक दिन उस अजनबी रिश्ते में अपनेपन का स्पर्श पा सकूँगी। हर बार झूठा गुस्सा दिखाकर सचमुच का प्यार दिख जाता था, लेकिन आज एक झूठ बोलकर मैंने अपना आखिरी फ्रस्ट्रेशन निकाल दिया, एक ऐसा झूठ जो कभी सच नहीं हो सकता।
यह बात जानते हुए भी वह कभी लौटकर नहीं आया...!
ये अधूरी कहानी थी अमृता और सागर के बीच जो पूरी हुई चंद सालों बाद जब सागर एक बार फिर लौटकर आया...।
‘सीने में उठते सारे ग़ुबार बर्फ से जम चुके हैं, आँसू सिर्फ आँखों को धो रहे हैं, दिल के बादल अब भी नहीं बरसे हैं। अपना रिश्ता बंजर भूमि पर खरपतवार-सा उग आया है। तुम कितना ही इश्क का पानी देते रहो, खरपतवार पर सुगंधित फूल नहीं उगते। बस उम्र को यूँ ही बालों की सफेदी पर बढ़ता देख रही हूँ और समय के एक-एक पल को चेहरे की झुर्रियों में पिरो रही हूँ। हुस्न का दीया बुझने तक ही प्रेम के मंदिर का पट खुला रहेगा फिर... फिर वही बच्चों का करियर और रिटायरमेंट के बाद की पेंशन, बस ज़िंदगी इसी में सिमटकर रह जाएगी।’
अमृता की इन बातों में एक अजीब-सा खालीपन था, जो सागर की आँखों से गुजर रहा था। वह तो यह सोचकर लौटा था कि शायद अब वह अमृता को वह सबकुछ दे सकेगा जिसकी उसे तलाश थी, लेकिन अमृता को बिना कुछ कहे चले जाना और फिर इतने बरसों बाद उसी उम्मीद में लौटना कि शायद वक़्त शहर की उन पुरानी गलियों में ही ठहर गया होगा, सागर का अनुमान गलत था। सागर के लौट आने तक वक़्त ढाई घर चल चुका था। जीवन के शतरंज पर किस्मत ने शय, मात दोनों दे दी थी। सागर समझ नहीं पा रहा था कि वह खुद को संभाले या अमृता को। वह उम्मीद करता रहा कि काश बंजर भूमि पर इश्क का मेह फिर कोई नए रिश्ते का फूल खिला सके।
‘मैंने कब तुमसे तुम्हारे देह की सुगंध को पाना चाहा? मैं तो अब भी कहता हूँ कि एक छत के नीचे अलग-अलग कमरों में दो दुनिया बसा लेंगे। तुम चाहो तो मेरी दुनिया में मत आना, बस मुझे तुम्हारी दुनिया में आने-जाने की इजाज़त दे दो।
‘अब भी आज़ाद रहना चाहते हो?’
‘नहीं तुम गलत समझ रही हो। बस तुम्हारे साथ उम्र के कुछ पल बाँटना चाहता हूँ ताकि...’
‘ताकि मन में कोई ग्लानि न रहे कि तुम मुझे ऐसे वक़्त छोड़कर चले गए थे, जब मुझे तुम्हारी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी।’
‘नहीं मजबूरी थी...गया कुछ दिनों के लिए ही था, लेकिन नहीं जानता था कि किस्मत ने कोई जाल बिछाकर रखा था।.... लेकिन तुमने पति का घर क्यों छोड़ दिया और कब?’
‘अपना जूठा शरीर कब तक परोसती रहती उन्हें...एक न एक दिन तो यह होना ही था।’
‘अमृता... मैं क्या माफी के लायक भी नहीं?’
‘मैंने तो तुम्हें उसी दिन माफ कर दिया था, जिस दिन तुम लौट गए थे।’
‘मैं परिवार की जिम्मेदारी में फँस गया था।’
‘अब मैंने अपने परिवार की जिम्मेदारी उठा ली है।’
‘हम दोनों साथ नहीं उठा सकते?’
‘नहीं, अब बच्चे बड़े हो चुके हैं। उन्हें समझाना नामुमकिन है।’
‘मैं बहुत अकेला हूँ...’
‘लेकिन मैं नहीं, मेरे साथ सबकुछ है, परिवार, बच्चे, उनका करियर और तुम्हारी यादें...लौट जाओ अब मुझे यादों में जीने की आदत हो चुकी है।’
सागर लौट गया। अमृता ने घर ठीक-ठाक किया, बच्चों के लिए खाना बनाया। और अपने घर के आँगन में उग आई खरपतवार को साफ करने लगी।