यूनिवर्सिटी कैंपस ऊंघ ही रहा था लेकिन उसके सामने यानी सीधे हाथ पर हरे बगीचों के बीच शफ्फ़ाक़ बिड़ला मंदिर जाग चुका था। तय पाया कि आज ही इस खूबसूरती का कोर्स पूरा कर लिया जाए। ज़ेबरा लाइन पार की और मंदिर कैंपस के अंदर। चार कदम आगे बढ़े तो वह जगह जहां जूते का स्टैंड बना हुआ था बिना किसी तर्क कुतर्क के जूते उतारे और मोजे भी। इसके बाद ज्यों ही पहला कदम उस मरमरी इमारत के फ़र्श पर रखा दिमाग तक के तंतु झनझना गए। संगमरमर इस कदर ठंडा होता है कि बस।
मुझे दो ही विकल्प नज़र आ रहे थे कि या तो फिर फ़ीते बांधे जाएं या इसी तरह आगे बढ़ें। तब तो दूसरा विकल्प चुन लिया लेकिन अब जाकर लगा कि एक और विकल्प था। मुझे जूते सहित ही आगे जाने की जिद करनी थी यूँ तो कोई चौकीदार या पुजारी रोकने को नहीं थे लेकिन हों भी तो जिद से कौन रोक सकता है? आखिर मौलिक अधिकार भी कोई बला है और उसके आगे नियमों, कायदों या सम्मान देने की आदत की क्या बिसात?
अब तक यही होता था कि गुरुद्वारा गए तो सिर पर कपड़ा लेना ही है या अज्ञारी में जाएं तो उनके नियम मानते हुए दूर ही खड़े रहे। लगता था कि सम्मान देना, बनाए गए नियम मानना कर्तव्य हैं। अधिकार वाली बात दिमाग मे घुसी ही नहीं थी। आखिर स्कूल के कायदे क्यों माने जाएं और कॉलेज तो हैं ही नियमों को धता बताने के लिए।