भारत की राजनीति में अगर नहीं होते क्षेत्रीय दल तो...

अनिरुद्ध जोशी
1. 28 दिसंबर 1885 में कांग्रेस की स्थापना अंग्रेज एओ ह्यूम (थियिसोफिकल सोसाइटी के प्रमुख सदस्य) ने की थी। इस कांग्रेस का पहला विभाजन 1907-1919 में हुआ। दूसरा विभाजन 1969 में हुआ। कांग्रेस का सबसे बड़ा विभाजन 1967 में हुआ, जब इंदिरा गांधी ने अपनी अलग पार्टी बनाई जिसका नाम कांग्रेस (आई) रखा। दूसरी ओर कामराज की अगुआई में कांग्रेस का एक अलग धड़ा कांग्रेस (ओ) के रूप में संगठित हुआ। बाद में कांग्रेस (ओ) का जनता पार्टी में विलय हो गया। इंदिरा गांधी ने इलेक्शन कमीशन पर दबाव डाला और कांग्रेस (आई) का नाम इंडियन नेशनल कांग्रेस बदलवा दिया। 1981 से इंदिरा कांग्रेस का नाम इंडियन नेशनल कांग्रेस पड़ गया। यह एक नई पार्टी थी लेकिन नाम पुराना था। सही मायने में वर्तमान कांग्रेस को अपना स्थापना दिवस 1885 को ध्यान में रखकर नहीं मनाया जाना चाहिए। उन्हें इंदिरा कांग्रेस का जब गठन हुआ था तब से इसकी शुरुआत मानना चाहिए।
 
 
पूर्व और बाद में कांग्रेस से अलग होकर लगभग 40 से से ज्यादा पार्टियां बनीं लेकिन उनमें से कुछ का ही वर्तमान में अस्तित्व है। उसमें से शरद पवार की नेशनल कांग्रेस पार्टी, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और जनता पार्टी, लोकदल (ब) और जनमोर्चा के विलय के बाद बने जनता दल के टूटने से उपजे कई सारे दल आज भी अस्तित्व में हैं।
 
 
हालांकि ऐसे भी कई नेता थे जिन्होंने पहले कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी का गठन किया और बाद में वही पार्टी टूटकर कई पार्टियों में बदल गई। इसी तरह कुछ ऐसे भी नेता थे जिन्होंने कांग्रेस छोड़कर नई पार्टी ज्वॉइन की और बाद में खुद की ही पार्टी बना ली, जैसे एआईएडीएमके के रामचंद्रन कांग्रेस छोड़कर गए और द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (डीएमके) ज्वॉइन की और बाद में खुद की अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कषगम (एआईएडीएमके) बनाई।
 
 
तो यह तो था कांग्रेस का संक्षिप्त परिचय यह बताने के लिए कि देश की ज्यादातर पार्टियां कांग्रेस से टूटकर ही बनी हैं जिसमें इंदिरा गांधी की इंडियन नेशनल कांग्रेस प्रमुख है। इसकी बागडोर राजीव गांधी के बाद सोनिया गांधी और अब राहुल गांधी संभाल रहे हैं। कांग्रेस और उससे टूटकर बने सभी दल, जिनमें से वर्तमान में बहुतों का अस्तित्व हैं, में से अधिकतर की विचारधारा धर्मनिरपेक्ष या वामपंथी है। कुछ की अलग भी है, जैसे जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया आदि।
 
 
2. इसी तरह देश में और भी कई दल थे। उनमें प्रमुख भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) थी। इसी पार्टी में से आजादी के बाद कई पार्टियों का जन्म हुआ जिसमें 1964 में जन्मी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (CPM) प्रमुख है। इसके अलावा फॉरवर्ड ब्लॉक और रिवॉल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी मिलकर लगभग 7 या 8 ऐसे दल हैं जिनकी विचारधारा वामपंथ से जुड़ी है।
 
3. इसके अलावा जनसंघ का नाम आता है। श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने 1951 में इसकी स्थापना भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षार्थ की थी। आपातकाल के बाद जनसंघ सहित भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों का विलय करके एक नए दल जनता पार्टी का गठन किया गया। जनता पार्टी ने 1977 से 1980 तक भारत सरकार का नेतृत्व किया। आंतरिक मतभेदों के कारण जनता पार्टी 1980 में टूट गई।
 
 
1980 में जनसंघ से निकलकर एक नई पार्टी बनी जिसका नाम भारतीय जनता पार्टी रखा गया। इसकी स्थापना अटलबिहारी वाजपेयी ने श्यामाप्रसाद मुखर्जी के आदर्शों को लेकर की। आज इसी भारतीय जनता पार्टी की केंद्र में सरकार है।
 
4. सबसे बड़ी बात यह कि इस लड़ाई में ऐसे कई दल हैं जिनकी कोई विचारधारा ही नहीं है। वे सिर्फ सत्ता का सुख चाहते हैं इसीलिए वे वक्त के साथ खुद को बदलते रहते हैं। आप उन दल और नेताओं को स्पष्ट रूप से पहचान सकते हैं, जो कि दोनों ही पार्टियों के शासनकाल में सत्ता में रहे। तृणमूल कांग्रेस ने जहां अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार का साथ दिया था, वहीं एक समय बाद वह मनमोहन सिंह की पार्टी में भी उनके साथ खड़ी थी। ऐसे भी कई नेता या दल हैं, जो चुनाव के बाद अपना समर्थन उसे ही देते हैं जिसने सत्ता की कुर्सी को जीत लिया है। इसी के बीच हैं- ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग जैसी कई पार्टियां तो मुस्लिम होकर खुद को धर्मनिरपेक्ष बताती हैं। आप देख सकते हैं कि इस तरह भारत में कम से कम 100 से ज्यादा पार्टियां रजिस्टर्ड हैं।
 
 
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तो हमने देखा कि किस तरह भारत में 3 तरह की विचारधाराएं अस्तित्व में रहीं, बाकी चौथी ऐसी विचारधारा थी जिसकी कोई विचारधारा नहीं है। विचारधारा की बात है तो अब देखिए एक वह विचारधारा जिसने खुद को धर्मनिरपेक्ष दल के नाम से स्थापित किया लेकिन उस पर वामपंथ का रंग भी बीच-बीच में चढ़ता और उतरता रहा। इस दल का नाम कांग्रेस है।
 
दूसरी विचारधारा है वामपंथ की जिसके 2 खास दल हैं- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी। इस विचारधारा ने धर्मनिरपेक्ष दलों से तो समझौता किया लेकिन कभी जनसंघियों का साथ दिया हो, ऐसा देखने में नहीं आता।
 
 
एक तीसरी विचारधारा है, जो जनसंघ और संघ से जुड़ी हुई है जिसमें भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। देश में ऐसी कई छोटी-मोटी पार्टियां अस्तित्व में आईं और चली गईं। हिन्दू महासभा भी कभी हुआ करती थी। हाल ही में प्रवीण तोगड़िया ने एक नई पार्टी बना ली है।
 
उक्त 3 विचारधाराओं की जंग में कांग्रेस के साथ माकपा, भाकपा, सपा, बसपा, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस से टूटे कई दल शामिल हैं, तो दूसरी ओर जनसंघ और संघ की विचारधारा में भारतीय जनता पार्टी के साथ शिवसेना के अलावा कुछ ऐसे भी दल शामिल हैं जिनकी विचारधारा राममनोहर लोहिया या जयप्रकाश नारायण से जुड़ी हुई है।
 
 
ऐसे में कहा जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी की लड़ाई किसी भी क्षेत्र में किसी से भी हो लेकिन वह लड़ाई कांग्रेस से ही है। उसी तरह कांग्रेस की लड़ाई भी किसी भी क्षेत्र में हो, वह लड़ाई भारतीय जनता पार्टी से ही है। कहीं पर कांग्रेस और भाजपा प्रत्यक्ष तो कहीं पर अप्रत्यक्ष रूप से लड़ रहे हैं।
 
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कांग्रेस वर्सेस भाजपा से कांग्रेस को फायदा ही हुआ है, क्योंकि एक समय ऐसा था जबकि इस पार्टी का अस्तित्व खतरे में था। लेकिन जब कोई सत्ताधारी पार्टी किसी दल को अपना प्रतिद्वंद्वी मानकर लड़ाई लड़ती है तो निश्चित ही उस दल का कद बढ़ जाता है। यदि मीडिया और भाजपा 2014 से ही अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी को ही भाजपा का असली प्रतिद्वंद्वी मानते तो संभवत: चुनाव का रुख कुछ और होता, क्योंकि यह वह दौर था जबकि लोग कांग्रेस का विकल्प ढूंढ रहे थे। लेकिन इसमें अरविंद केजरीवाल की गलतियां भी रहीं। उनकी पार्टी में ही फूट डल गई जिसके चलते पार्टी की छवि को धक्का लगा और पार्टी जिस तेजी से उभर रही थी, उसी तेजी से सिमटने भी लगी है।
 
 
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अब सचमुच ही भारत की राजनीति 2 राष्ट्रीय पार्टियों के इर्द-गिर्द ही घूमने लगी है- कांग्रेस और भाजपा। लेकिन ये दोनों ही पार्टियां राष्ट्रीय होकर इसलिए खुद को कहीं पर कमजोर पाती हैं, क्योंकि उनके सामने क्षेत्रीय दलों ने चुनौतियां जो खड़ी कर रखी हैं। तो अब यह मान लिया जाए कि सत्ता का रास्ता क्षेत्रीय दलों के कदमों से होकर ही गुजरता है।
 
लोकसभा 2019 के चुनाव में यदि किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलता है तो यह देखना दिलचस्प रहेगा कि क्षेत्रीय दल क्या करते हैं? यदि कांग्रेस के साथ दल बहुमत के करीब पहुंच जाते हैं, तो उनके सामने सबसे बड़ा संकट प्रधानमंत्री पद को लेकर होगा, क्योंकि महागठबंधन में कुछ लोग पीएम पद के दावेदार हैं, जैसे मायावती, ममता बनर्जी, राहुल गांधी और चंद्रबाबू नायडू। दूसरी ओर एनडीए का पीएम तो पहले से ही घोषित है- श्रीमान नरेन्द्र दामोदरदास मोदी।
 
 
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वर्तमान में न कांग्रेस का कोई विकल्प है और न ही भारतीय जनता पार्टी का और यह अच्छी बात भी है। लेकिन यदि भारत की राजनीति में अगर नहीं होते क्षेत्रीय दल, तो भारत की राजनीति कुछ और ही होती। संभवत: तब न कलह होता और न क्लेश। क्षेत्रीय दलों में कुछ दलों का इतिहास उठाकर देखें तो उनमें से कुछ ने प्रांतवाद की आग को ही भड़काया है, तो कुछ ने जातिवाद की आग को भड़काकर सत्ता का सुख पाया है। हालांकि उनके इस घृणित खेल में भारत का सामाजिक ताना-बाना टूट गया। दक्षिण और उत्तर भारत की लड़ाई के साथ ही जातिवाद और भाषावाद ने इस देश को कभी भी राष्ट्रीय तौर पर एक नहीं होने दिया।
 
 
भारत में अपना दल, आम आदमी पार्टी, मुस्लिम लीग, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन, बसपा, सपा, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, सपाक्स, जयस, अखिल भारतीय गोरखा लीग, जनता दल, तृणमूल कांग्रेस, असम गण परिषद सहित पूर्वोत्तर के हर राज्य की एक अलग पार्टी, बीजू जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल, वाईएसआर कांग्रेस, जम्मू व कश्मीर नेशनल पैंथर्स पार्टी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, झारखंड मुक्ति मोर्चा आदि ऐसी कम से कम 100 से अधिक पार्टियां हैं।
 
 
इस समय क्षेत्रीय पार्टियां आंध्रप्रदेश, असम, बिहार, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर, नगालैंड, ओडिशा, पंजाब, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल और पश्चिम बंगाल में अपने अकेले दम पर या राष्ट्रीय पार्टी अथवा किसी और पार्टी के साथ मिलकर शासन कर रही हैं। इन सभी क्षेत्रीय पार्टियों की एक खासियत यह है कि ये सभी एक ऐसे नेता के इशारे पर चलती हैं जिसकी सत्ता को पार्टी के अंदर कोई चुनौती नहीं दे सकता। संक्षेप में कहें तो इन्हें कोई एक नेता और उसके विश्वासपात्र चला रहे हैं। उनके परिवार के सदस्य और रिश्तेदारों का भी पार्टी के काम-काज में खासा दखल रहता है। ये पार्टियां किसी एक ही परिवार के संगठन, संस्‍था या कंपनी की तरह हैं।
 
 
हालांकि जो पार्टियां किसी वैचारिक आधार पर गठित हुई हैं, उन्हें भी समय के साथ व्यक्तिगत जागीर और व्यक्तिगत हितों की रक्षा का साधन बना दिया गया है। क्षेत्रीय दलों की एक और खास बात यह है कि परिवार के सदस्य, नजदीकी रिश्तेदार और मित्र ही पार्टी के कामकाज देखते हैं। यह उसी तरह कि किसी बड़ी किराने की दुकान को बेटा या रिश्तेदार विरासत में हासिल करते हैं। इस दुकान पर काम करने वाले कई कर्मचारी भी इसे अपनी ही दुकान समझकर समर्पित भाव से अपना संपूर्ण जीवन दांव पर लगा देते हैं। जब दुकान के मालिक के ज्यादा भाई या पुत्र होते हैं तो संकट खड़ा हो जाता है। समाजवादी पार्टी (सपा) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
 
 
इसी तरह की सभी पार्टियों की कहानी है। अन्नाद्रमुक और बसपा की कहानी लगभग एक जैसी है। जयललिता ही पार्टी की सबकुछ थीं, जैसे माया ही वर्तमान में सबकुछ हैं। अब वे उनके रिश्तेदार और भतीजे को आगे बढ़ा रही हैं। द्रमुक का हाल भी वैसा ही है। करुणानिधि के बाद उनका पुत्र स्टालिन अब पार्टी का मुखिया है। आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में भी 2 क्षेत्रीय दलों तेलुगुदेशम पार्टी (टीडीपी) और तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) का शासन है जिन्होंने कभी राष्ट्रीय दलों को पैर नहीं पसारने दिया। ओडिशा में बीजू जनता दल (बीजद) सालों से जमे हुए हैं। इस क्रम में आप शिवसेना का नाम भी ले सकते हैं।
 
 
क्षेत्रीय पार्टियां भारत की राजनीति में सिर्फ सत्ता के लिए हैं, देशसेवा के लिए नहीं। ये वक्त-वक्त में अपनी जातियां और मुद्दे बदलते रहती हैं। कभी ये जातिवाद की बात करती हैं, तो कभी भाषा की, तो कभी अपने प्रांत की रक्षा की। हालांकि यह भी बहुत ही आश्‍चर्य है कि इन प्रांतवादी पार्टियों ने ही अपने प्रांत के टुकड़े करने के लिए आंदोलन चलाए हैं और वे बाद में नए प्रांत के मुखिया बन बैठे। दरअसल, यह समझना जरूरी है कि इनमें से कितनी क्षेत्रीय पार्टियों को देश से कोई मतलब नहीं है।
 
 
व्यक्तिगत संस्था या कंपनी की तरह अपने दल को चला रहे क्षेत्रीय दलों के केंद्र या राष्ट्रीय राजनीति में दखल से क्या भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, जातिवाद, प्रांतवाद, अपराध और जंगलराज को बढ़ावा नहीं मिलता है?
 
 
सवाल तब कांग्रेस और भाजपा पर उठते हैं जबकि वे ऐसे ही क्षेत्रीय दलों का सहयोग लेकर केंद्र की सत्ता का सुख भोगना चाहते हैं। क्या उन्हें यह नहीं समझना चाहिए कि हमें प्रांत, जाति और भाषा की राजनीति से उठकर राष्ट्रवादी और धर्मनिरपेक्ष सोच का समर्थन करना है?
 

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