घेराव राजभवन का नहीं, दल बदलने वालों के घरों का होना चाहिए

श्रवण गर्ग
सोमवार, 27 जुलाई 2020 (15:36 IST)
राजस्थान में भी कांग्रेस की सरकार अगर अंतत: गिरा ही दी जाती है तो उसका 'ठीकरा' किसके माथे पर फूटना चाहिए? मध्यप्रदेश को लेकर यही सवाल अभी भी हवा में ही लटका हुआ है। मार्च अंत (या उसके पहले) से भी मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री का गांधी परिवार के साथ मंत्रणा करते हुए कोई चित्र अभी सार्वजनिक नहीं हो पाया है। महाराष्ट्र में अजित पवार भी फड़नवीस के साथ ताबड़तोड़ शपथ लेने के पहले सचिन पायलट की तरह ही किसी को दिखाई नहीं दे रहे थे। महाराष्ट्र का भाजपा प्रयोग तब सफल हो जाता तो शरद पवार की उम्रभर की राजनीतिक कमाई स्वाहा हो जाती। वे दोनों कांग्रेसों को बचा ले गए। इतना ही नहीं, शिवसेना का भी उन्होंने कांग्रेसी शुद्धिकरण कर दिया है। अब उद्धव ने मुख्यमंत्री के रूप में भाजपा को फिर से वैसा ही कोई प्रयोग करके दिखाने की चुनौती दी है।
 
अशोक गहलोत मुख्यमंत्री होने के अलावा एक बड़े जादूगर भी हैं। उनकी सरकार भी अब किसी बड़े जादू से ही बच सकती है। बहुत मुमकिन है पायलट के पास विधायकों की गिनती पूरी होने तक विधानसभा क्वारंटाइन में ही रहें। राजस्थान में संकट की शुरुआत 'सोने की छुरी पेट में नहीं घुसेड़ी जाती' के प्रचलित राजस्थानी मुहावरे से हुई थी और उसका आंशिक समापन 'जनता राजभवन घेर ले तो फिर मुझे मत कहिएगा', से हुआ था।
 
मुख्यमंत्री ने अब कहा है कि ज़रूरत (?) पड़ी तो वे अपने विधायकों के साथ राष्ट्रपति से भी मिलेंगे या प्रधानमंत्री निवास के सामने धरना देंगे। मुख्यमंत्री को अभी अपनी उस चिट्ठी का जवाब प्रधानमंत्री से नहीं मिला है जिसमें उन्होंने राजस्थान में लोकतंत्र बचाने की अपील की थी। गहलोत अपनी सत्ता बचाने के उनके संघर्ष को जनता के अधिकारों की लड़ाई में बदलना चाहते हैं। जनता जब महामारी और अभावों से मुक़ाबला कर रही हो, सत्ता की लड़ाई में उससे भागीदारी की उम्मीद करना वैसा ही है, जैसी कि प्रधानमंत्री से मदद की मांग करना।
 
हो यह रहा है कि सभी जनता को बेवक़ूफ़ बनाना चाहते हैं। जनता भी कई बार अपना परिचय इसी प्रकार देने में ज़्यादा सुरक्षित महसूस करती है। वह जानती है कि भाजपा लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर चुनी हुई सरकारों को गिराने और कांग्रेस उन्हें बचाने के काम में लगी है। जनता के विवेक पर किसी का कोई भरोसा नहीं है। ऐसा नहीं होता तो विधायकों का समर्थन जुटाने के लिए करोड़ों की बोलियां नहीं लगतीं और जनता के चुने हुए प्रतिनिधि अपने आपको सितारा होटलों के कमरों में 'दासों' की तरह बंद नहीं कर लेते। जनता के नाम पर सारा नाटक चल रहा है और जनता मूकदर्शकों की तरह थिएटर के बाहर खड़ी है। अंदर मंच पर केवल अभिनेता ही दिखाई देते हैं। सामने का हाल पूरा ख़ाली है। प्रवेश द्वारों पर सख़्त पहरे हैं।
 
मध्यप्रदेश में कोरोना काल का पूरा मार्च महीना एक चुनी हुई सरकार को गिराने में खर्च हो गया। जिसके बारे में मुख्यमंत्री ने ही, बाद में वायरल हुए ऑडियो के अनुसार, स्वीकार किया कि सब कुछ केंद्र के इशारे पर किया गया था। उसी केंद्र के इशारे पर जिसके प्रधानमंत्री को अपनी सरकार बचाने के लिए गहलोत ने चिट्ठी लिखी है। शिवराजसिंह के शपथ लेने के 3 महीने बाद पूरे मंत्रिमंडल का गठन हुआ और अभी कुछ दिन पहले ही काफ़ी जद्दोजहद के बाद मंत्रियों को विभागों का बंटवारा हुआ। अब ज्यादातर नए मंत्री उपचुनाव जीतने की तैयारी में लग गए हैं। मुख्यमंत्री को कोरोना हो गया है। प्रदेश फिर भी चल रहा है। लोकतंत्र भी देश की तरह मध्यप्रदेश में भी पूरी तरह सुरक्षित है। एक सरकार कोरोना में बन गई और दूसरी को कोरोना की आड़ में ज़िंदा नहीं रहने दिया जा रहा है।
 
देश एक ऐसी व्यवस्था की तरफ़ बढ़ रहा है जिसमें सब कुछ ऑटो मोड पर होगा। धीरे-धीरे चुनी हुईं सरकारों की ज़रूरत ही ख़त्म हो जाएगी। जनता की जान की क़ीमत घटती जाएगी और ग़ुलामों की तरह बिकने को तैयार जनप्रतिनिधियों की नीलामी-बोलियां बढ़ती जाएंगी। अमेरिका और योरप में इन दिनों उन बड़े-बड़े नायकों की सैकड़ों सालों से बनीं मूर्तियां, जिनमें कि कोलंबस भी शामिल हैं, इसलिए ध्वस्त की जा रही हैं कि वे कथित तौर पर ग़ुलामी की प्रथा के समर्थक थे। हमारे यहां इस तरह के नायकों के चित्र ड्राइंग रूम्स और कार्यालयों में लगाए जा रहे हैं और गांधीजी के पुतलों पर गोलियां चलाई जा रही हैं।
 
लोकतंत्र की रक्षा के लिए जिस जनता की लड़ाई का दम भरा जा रहा है, उसमें 80 करोड़ तो 5 किलो गेहूं या चावल और 1 किलो दाल लेने के लिए क़तारों में लगा दिए गए हैं और बाक़ी 50 करोड़ कोरोना से बचने के लिए बंटने वाली सरकारी वैक्सीन का अपने घरों में इंतज़ार कर रहे हैं। गहलोत और कमलनाथ को वास्तव में घेराव राजभवन और प्रधानमंत्री आवास का नहीं बल्कि उन लोगों के घरों का करना चाहिए, जो भुगतान की आसान किस्तों पर सत्ता की प्राप्ति के लिए अपनी ही पार्टी और नेतृत्व के प्रति स्व-आरोपित असहमति व्यक्त करने के लिए तैयार हो गए। और यह भी कि इस 'असहमति' के लिए उस मतदाता की कोई 'सहमति' नहीं ली गई जिसकी कि उम्मीदों को सरेआम धोखा दिया जा रहा है?
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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