जैसे, चिं चीं चिं चीं...., ट्यु ट्यु ट्यु ट्यु....., क्यें क्यें क्यें क्यें….., च्यून चिं च्यून च्यून चिं…., कांव कांव कांव कांव…..,चींss चींss चींss चींss…, ह्वोक ह्वोक ह्वोक ह्वोक….., कों को कों कों…., टिर्र टिर्र टिर्र टिर्र…..,त्युं त्युं त्युं त्युं…. मोssओ मोssओ….आदि।
मुझे याद आया कि बारीक से बारीक ध्वनि को अधिकतम सुन पाने की अनुभूति हमें तब होती है जब हम कान नाक गला विशेषज्ञ डाक्टर से अपने कान में जमा अतिरिक्त वेक्स निकलवा कर घर आते हैं। तब चुन्नी की हलकी से हलकी सरसराहट हो या चम्मच कड़छी का चलना हर ध्वनि और आवाज हमें न सिर्फ स्पष्ट सुनाई देती है अपितु कर्ण प्रिय भी लगती है।
हमने ही हमारी प्यारी पृथ्वी के कानों में हार्न की कर्कश ध्वनि का वेक्स खुद ही बाहर से कूढ़ा है। क्या हमें आज कोराना के बहाने उत्तर कोरोना समय में अनावश्यक हार्न और लाउड स्पीकर नहीं बजाने, धीमी आवाज में बोलने का प्रण नहीं लेना चाहिए?