बचपन से कुंभ के मेले का जिक्र फिल्मी अंदाज में बड़ी शिद्दत से सुना था, और कई बार मस्ती में किया भी। बचपन की एक सहेली थी जो मेरी तरह ही दिखती थी। लोग अक्सर इस बारे में कन्फ्यूज होते कि यह मैं वो हूं या वो मैं। इसलिए हम कई बार कुंभ के मेले में बिछड़ी बहनों का उदाहरण देकर हंसी ठिठोली किया करते थे। इस बार इस मेले को अपनी आंखों से देखा भी और महसूस भी किया।
सिंहस्थ का समय और संतों का सानिध्य...सुनने में बड़ा ही अच्छा लगता है..मन धर्म की नदी में डुबकी लगाता है और दिमाग का भी शाही स्नान हो जाता है। बारह साल में एक बार मिलने वाले इस पुण्य बटोरने के अवसर से कोई भी अवसरवादी चूकना नहीं चाहता। सिंहस्थ में प्रवेश करते ही कुछ लोग तो सिर्फ बाबाओं को ढूंढने का कार्य करते हैं, कि कोई महान बाबा मिल जाए और किस्मत का ताला खुल जाए।
इस धर्मप्रेमी जनता के मन की बात भी साधु-सुत और सिंहस्थ में मौजूद तमाम बाबा लोग अच्छी तरह से समझते हैं, तभी तो वे भी अपना ताम-झाम और प्रभाव दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। ना ही मीडिया में छाने का कोई मौका।
असली साधु-संत तो मोह माया से दूर ही होते हैं,और बाकी सब तो सिंहस्थ की ही माया है। लेकिन एक बात तो है,साधु-संतों की इ तनी पूछ परख देख अब चोर, उचक्के,बदमाश भी संतों की राह पर चल पड़े हैं। वे अब भक्तों की जेब पर पीछे से नहीं झपटते बल्कि धर्म के मार्ग पर खड़े होकर सीना तानकर अपने भक्तों को लूटते हैं। कमाल की बात तो यह है कि पिटने का डर भी नहीं रहता और आप मुंह मांगी दक्षिणा मांग सकते हो। सिंहस्थ क्षेत्र के कोनों, गलियों और चौराहों पर यह नजारे आम है। यही असली महात्माओं की बात,तो उन्हें अपने धर्म निर्वाह से फुरसत ही नहीं।
ऐसा नहीं है कि यहां केवल उच्च और निम्न दर्जे के साधु संत ही मौजूद हैं। कुछ भगुआ धारी तो सिर्फ इसलिए हैं,कि कोई काम सूझ नहीं रहाथा,तो सोचा साधु बन जाएं। भंडारे में दोनों समय का भोजन मिलेगा और लोग पांव छूकर दक्षिणा देंगे सो अलग। बस भस्मी लपेटो, गांजा भरो और बैठ जाओ पब्लिक प्लेस पर । हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा।
तो सभी धर्मप्रेमी जनता से अनुरोध है कि आस्था में भले ही डुबकी लगाइए,लेकिन पानी को आंख में मत जाने दीजिए। धुंधली आंखों से आप स्पष्ट नहीं देख पाएंगे कि यहां चमत्कार है तो छलावा भी है। महानता है तो निकृष्टता भी है और आस्था है तो अंधविश्वास भी और दान है तो लूटपाट भी।